Wednesday - 10 January 2024 - 4:26 AM

क्या भविष्य में भी मजदूरों के हितों को लेकर राजनेता सक्रिय रहेंगे?

न्यूज डेस्क

उत्तर प्रदेश हो या बिहार,महाराष्ट्र  हो या पश्चिम बंगाल, झारखंड हो या छत्तीसगढ़, देश के अधिकांश राज्यों में राजनीति के केंद्र में प्रवासी मजदूर हैं। महानगरों से अपने घरों को लौट रहे प्रवासियों को लेकर राजनीतिक सरगर्मी बढ़ गई है। इनको लेकर सत्ता पक्ष और विपक्ष आमने सामने हैं। सत्ता पक्ष, विपक्ष से अपील कर रहा है कि मजदूरों को लेकर राजनीति न करें तो वहीं विपक्ष सत्ता पक्ष पर यही आरोप लगा रहा है। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि राजनीति सभी कर रहे हैं और मानने को कोई तैयार नहीं है।

शुरुआत उत्तर प्रदेश से करते हैं। सबसे ज्यादा मजदूर यही से दूसरे राज्यों में कामकाज की तलाश में जाते हैं। घर लौट रहे प्रवासियों के लेकर पिछले कई दिनों से सियासी पारा चढ़ा हुआ है। मजदूरों को लेकर विपक्षी दल बीजेपी पर लगातार हमला कर रहे हैं। कांग्रेस , बसपा और सपा सभी इन मजदूरों के भरोसे अपनी राजनीतिक जमीन वापस पाने की कोशिश में लगे हुए हैं।

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विपक्षी दलों की मंशा को बीजेपी भी समझ रही है। इसीलिए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ लगातार प्रवासी मजदूरों की समस्याओं के समाधान में लगे हुए हैं, तो वहीं कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी भी तालाबंदी में दुख झेल रहे प्रवासी मजदूरों के मुद्दों के इर्द-गिर्द एक दबाव सृजित करती दिख रही हैं। उनके साथ-साथ कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी जनतांत्रिक राजनीति को मजदूरों के मुद्दों पर केंद्रित करती दिख रही है।

बसपा सुप्रीमो मायावती और सपा नेता अखिलेश यादव भी प्रवासी मजदूरों के मुद्दों को जिस तरह उठा रहे हैं उससे लगता है कि भविष्य में वे मजदूरों के हितों को लेकर और अधिक सक्रिय होने वाले हैं।

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लेकिन राजनीति में कुछ भी स्थायी नहीं होता, इसलिए भविष्य में ये ऐसे ही मुखर रहेंगे इसको लेकर वरिष्ठ पत्रकार सुशील वर्मा कहते हैं विरोधी दलों के लिए यह एक अवसर है अपनी खोई जमीन वापस पाने के लिए। केंद्र से लेकर बीजेपी शासित राज्यों में विपक्ष कमजोर भूमिका में है। उसे तो बैठे-बिठाए एक मुद्दा मिल गया है। यह ऐसा मुद्दा है जो वर्तमान भारतीय राजनीति की दिशा और दशा दोनों बदल सकती है।

वह कहते हैं यदि विपक्षी दल इस मुद्दे को नहीं भुना पाये तो इनका भगवान ही मालिक है। यह सच है कि प्रवासी मजदूरों के हितों को लेकर विपक्षी दल आंदोलन कर अपनी खोई साख वापस पा सकते हैं। इसके लिए जरूरी है कि विपक्ष सड़क पर उतरे न कि ट्विटर पर। ट्विटर से यह लड़ाई नहीं जीती जा सकती।

प्रवासी मजदूरों का जिक्र भारतीय इतिहास में शुरू से होता रहा है, किंतु अभी तक या तो इन्हें मात्र श्रमिक मानकर एक समरूपी समूह के रूप में देखा जाता रहा या मात्र जनगणना के आंकड़ों में दर्ज कर छोड़ दिया जाता रहा। अब वे एक बड़ी संख्या में तब्दील हो गए हैं। तालाबंदी की वजह से आज हम इनका चेहरा-मोहरा, दुख-दर्द सब देख रहे हैं, नहीं तो यह सिर्फ अभी तक आंकड़ों में ही दिख रहे थे।

अगर 2001 और 2011 के जनगणना के आंकड़ों की तुलना करके देखें तो इनकी संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है। 2001 से 2011 के बीच इनकी संख्या में उनकी वृद्धि कहीं तेज हुई है। 2001 में भारत के भीतर एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाकर श्रम करने वाले  प्रवासी मजदूरों की संख्या जहां लगभग 30 करोड़ थी वहीं 2011 में यह संख्या बढ़कर 45 करोड़ के आस-पास हो गई। यह विशाल आबादी एक इमोशनल कम्युनिटी के रूप में चुनावी राजनीति की एक प्रभावी संख्या होकर उभरती है। उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश जैसे राज्यों के चुनावों में इनकी संख्या आगे भी प्रभावी भूमिका में रहेगी।

तालाबंदी के दौरान प्रवासी श्रमिकों को जो कटु अनुभव हुआ हैं उसे देखते हुए यह माना जा रहा है कि वे रोजी-रोटी के लिए दूसरे शहरों की ओर फिर से पलायन करने के लिए शायद ही तैयार हों। कई जानकार मानते हैं कि बहुत संभव है कि कोरोना संकट कम होने के बाद मजदूरों के महानगरों की ओर पलायन की प्रक्रिया थम सकती है। राजनीतिक दल भी इसे बखूबी समझ रहे हैं। तभी तो बिहार में प्रवासी मजदूरों को लेकर राजनीतिक दलों की चिंता समझ में आ रही है।

जैसे-जैसे बिहार में लौटने वाले प्रवासी मजदूरों की संख्या बढ़ती जा रही है वैसे-वैसे प्रदेश का सियासी तापमान बढ़ता जा रहा है। गैर राज्यों को कोई पैदल आ रहा है तो कोई साइकिल से अपने गांव पहुंच रहा है। गांव-घर लौट रहे प्रवासी मजदूरों की आपबीती बता रही है कि तालाबंदी के कारण उपजे संकट की घड़ी में उनकी पीठ पर हाथ रखने कोई नहीं पहुंचा, लेकिन बिहार में उनका हमदर्द बनने को होड़ सी दिख रही है।

दूसरे राज्यों से लौट रहे प्रवासी श्रमिकों को सत्तारूढ़ दल बेहतर सुविधाएं प्रदान करने का प्रयास कर रही है तो वहीं विपक्षी पार्टियां उनके दर्द को कुरेद कर उनका हमदर्द होने का भरोसा दिलाने में जुटी हैं। वजह साफ है, पांच-छह महीने बाद बिहार में विधानसभा चुनाव होने हैं। जाहिर है, तमाम दावों के बावजूद दर-दर की ठोकरें खा रहे इन लाखों प्रवासियों के बूते किसी का खेल बनेगा तो किसी का बिगड़ेगा।

यह भी माना जा रहा है कि बिहार की राजनीति में प्रवासी मजदूरों का मसला शायद निर्णायक होकर उभरे, क्योंकि सबसे अधिक मजदूर इसी राज्य के हैं। मध्य प्रदेश एवं राजस्थान की प्रशासनिक रणनीति भी प्रवासी मजदूरों के मुद्दों के इर्द-गिर्द घूमती दिख रही

है। महाराष्ट्र और गुजरात में भी मजदूरों को लेकर अलग तरह की राजनीतिक सक्रियता देखने को मिल रही है। इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि विभिन्न राज्यों में श्रम कानूनों में परिवर्तन का मसला भी जनचर्चा का विषय बन रहा है।

अभी जो हालात हैं उसमें श्रमिक भी अपना गांव-घर छोडऩे के मूड में नहीं दिख रहे हैं। इसे देखते हुए कई राज्य सरकारें इस कोशिश में हैं कि महानगरों से लौटे मजदूरों के लिए स्थानीय स्तर पर ही रोजगार के मौके उपलब्ध कराए जाएं। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, झारखंड, राजस्थान की सरकारें इस दिशा में प्रयास भी कर रही हैं। ऐसे में महानगरों में औद्योगिक गतिविधियों को चलाने में मैनपावर की कमी के चलते यह भी संभव है कि श्रमिक अब अपने श्रम को मात्र वेतन के रूप में नहीं देखें, वरन अपने लिए बेहतर सुविधाओं की मांग करें ताकि उन्हें फिर से ऐसी स्थितियों से दो-चार न होना पड़े।

ये श्रमिक अपने लिए बेहतर सुविधा मांग सकते हैं। इसके नतीजे में मजदूरों के पलायन की एक नियंत्रित प्रक्रिया विकसित हो सकती है और हो सकता है कि अब उन्हेंं महानगरों में बेहतर सुविधाएं मिलें, लेकिन बड़ा सवाल यह है कि उनकी आवाज कौन उठाएगा? क्या छीज चुकी श्रमिक राजनीति उनकी आवाज उठाएगी? फिलहाल अभी जो हालात हैं उससे ऐसा प्रतीत होता है कि धीरे-धीरे मजदूरों का मुद्दा फिर से भारतीय राजनीति के केंद्र में आ जाएगा।

भारतीय राजनीति में मध्यवर्ग किसी के पक्ष एवं विपक्ष में राय बनाने वाला प्रभावी समुदाय है। उसके राजनीतिक स्वर के मुकाबले अब गरीब मजदूरों की राजनीति उभर सकती है। फलत: राजनीतिक दलों के सामने यह मजबूरी होगी कि वे मजदूरों से जुड़े मुद्दे उठाएं। जनतंत्र में संख्याबल का बड़ा अर्थ होता है। प्रवासी मजदूरों का संख्याबल कम नहीं है। छितरे-बिखरे होने के बावजूद उनकी अस्मितापरक एकता कमजोर नहीं पडऩे वाली, क्योंकि दुख जोड़ता भी है।

इतना तय है कि भारतीय जनतांत्रिक राजनीति में प्रवासी श्रमिकों का एक नया दबाव समूह विकसित होने की प्रक्रिया शुरू हो गई है। इस समूह का विकास किस रूप में होता है, यह देखना है।

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