Saturday - 6 January 2024 - 9:01 AM

दक्षिण भारतीयों को हिंदी से इतना परहेज क्यों है

न्यूज डेस्क

ऐसा पहली बार नहीं कि हिंदी को लेकर विरोध हो रहा है। इतिहास गवाह है कि जब-जब हिंदी को महत्व देने की कोशिश की गई खूनी संग्राम छिड़ा। इतिहास खूनी दास्तानों से भरा पड़ा है। दक्षिण के राज्यों में तो इसके लिए आंदोलन तक हुआ। हिंदी विरोध की राजनीति करने वाले लोग राजनीतिक की मुख्य धारा में आ गए। हिंदी के विरोध ने राजनीति पार्टी को सत्ता में पहुंचा दिया। जाहिर है जब हिंदी का विरोध राजनीतिक दलों को सत्ता तक पहुंचा सकती है तो कोई क्यों नहीं इसका विरोध करेगा।

एक बार फिर दक्षिण के राज्यों से हिंदी का विरोध शुरु हो गया है। दरअसल 14 सितंबर को हिंदी दिवस के मौके पर केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने एक देश, एक भाषा की वकालत की थी। शाह ने कहा था कि पूरे देश की एक भाषा होना अत्यंत आवश्यक है जो दुनिया में भारत की पहचान बने। इसके आलवा गृह मंत्री ने ये भी कहा था कि आज देश को एकता की डोर में बांधने का काम अगर कोई भाषा कर सकती है तो वह सर्वाधिक बोली जाने वाली हिंदी भाषा ही है।

शाह के इस बयान के बाद सियासी घमासान बढ़ गया। दक्षिण के राज्यों के नेताओं ने इस बयान की कड़ी आलोचना की। आलोचना करने वालों AIMIM चीफ असदुद्दीन ओवैसी, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, DMK चीफ स्टालिन, कमल हासन व कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी शामिल है। इन सभी लोगों ने कहा कि सरकार के द्वारा गैर हिंदी भाषी राज्यों तक में हिंदी को जबरन थोपा जा रहा है।
यह विवाद यहीं नहीं रूका। अभिनेता कमल हसन के बाद अभिनेता रजनीकांत ने भी इसका विरोध किया है।

18 सितंबर को रजनीकांत ने कहा, ‘कॉमन भाषा देश की उन्नति के लिए अच्छी होगी लेकिन दुर्भाग्यवश भारत में कॉमन भाषा नहीं है। हिंदी को यदि थोपा जाता है तो इसे तमिलनाडु में कोई स्वीकार नहीं करेगा।’ उन्होंने कहा कि हिंदी को थोपा नहीं जाना चाहिए। सिर्फ तमिलनाडु ही नहीं बल्कि दक्षिणी राज्यों में से कहीं भी हिंदी को नहीं थोपा जाना चाहिए।

1937 में पहली बार हुआ हिंदी का विरोध

1937 में हिंदी को लेकर सबसे पहला विरोध गैर हिंदी भाषी राज्यों में दक्षिण भारत के तमिलनाडु में हुआ। तब इसे मद्रास प्रान्त के रूप में जाना जाता था। इस प्रांत को लोग नहीं चाहते थे कि हिंदी को उन पर थोपा जाए। राज्य में हिंदी की आधिकारिक स्थिति को लेकर कई बड़े विरोध प्रदर्शन, दंगे हुए। इतना ही नहीं छात्रों के साथ-साथ राजनीतिक आंदोलन भी हुआ। जिस तरह आज विरोध हो रहा है, उस समय भी लोग यही चाहते थे कि उन्हें हिंदी से दूर रखा जाए।

 

हिंदी विरोधी राजनीति कैसे बनी राजनीतिक पार्टी

कांग्रेसी नेता सी राजगोपालाचारी के नेतृत्व में 1937 में मद्रास प्रेसीडेंसी के स्कूलों में हिंदी की अनिवार्य शिक्षा को लागू किया गया। चूंकि यह तमिल बाहुल्य क्षेत्र था इसलिए लोगों को यह बात बिल्कुल पसंद नहीं आई। इसके विरोध में ई वी रामास्वामी (पेरियार) और विपक्ष की जस्टिस पार्टी (जो बाद में द्रविड़ कझागम के नाम से जानी गई ) ने इसका कड़ा विरोध किया। यह विरोध तीन साल तक चला।

विरोध के नाम कैसे बहा खून

तमिलनाडु में हिंदी विरोध के नाम पर पेरियार और विपक्ष की जस्टिस पार्टी ने मोर्चा संभाल रखा था। इस आन्दोलन को बहुमुखी आंदोलन भी कहा जाता है क्योंकि इस आंदोलन में जहां एक तरफ भूख हड़तालें, मार्च, सम्मेलन हुए तो वहीं इसमें खून तक बहा।

दरअसल उस वक्त कांग्रेस सरकार किसी भी हालत में मद्रास प्रान्त में हिंदी को लागू करना चाहती थी। इसीलिए यह विरोध बदस्तूर जारी रहा। सरकार ने इस पर क्रैकडाउन किया, जिसका नतीजा ये हुआ कि इसमें दो लोगों की मौत हो गई और 1198 लोगों को गिरफ्तार किया गया। गिरफ्तार होने वालों में महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे।

कांग्रेस को अपनी गलती का एहसास तब हुआ जब उसे इस मुद्दे पर भारी नुकसान उठाना पड़ा। 1939 में कांग्रेस सरकार के इस्तीफे के बाद, फरवरी 1940 में अनिवार्य हिंदी शिक्षा को ब्रिटिश गवर्नर लॉर्ड एर्सि्कन ने वापस ले लिया।

आजादी के बाद भी हिंदी का विरोध हुआ। हिंदी विरोध के नाम पर सबसे पहला बवाल 25 जनवरी 1965 को तमिलनाडु के मदुरई में हुआ। यहां कुछ स्थानीय छात्रों और कांग्रेस के लोगों के बीच टक्कर हुई। ये बवाल करीब दो महीने तक चला। इसमें आगजनी, गोलीबारी, लूट जैसे मामले तक देखने को मिले।

सरकार को इस विरोध को नियंत्रित करने के लिए पैरामिलिट्री तक की मदद लेनी पड़ी थी। इसमें करीब 70 लोगों की मौत हुई जिसमें 2 पुलिसवाले भी शामिल थे। तनावपूर्ण स्थिति संभालने के लिए लाल बहादुर शास्त्री सामने आए और उन्होंने लोगों को विश्वास दिलाया कि अंग्रेजी का इस्तेमाल आधिकारिक भाषा के रूप में किया जाए और ये तब तक हो जब तक गैर हिंदी भाषी राज्य चाहें।

डीएमके को मिला फायदा

हिंदी के विरोध में 1965 में हुए आंदोलन का सबसे ज्यादा फायदा डीएमके को मिला। डीएमके ने 1967 के चुनाव में हिंदी को एक बड़ा मुद्दा बनाया और इसके दम पर चुनाव जीतकर सत्ता में पहुंच गए।

बहरहाल एक बार फिर हिंदी का विरोध शुरु हो चुका है। हिंदी की स्वीकार्यता के विरोध के नाम पर पहले ही दक्षिण के राज्यों में बवाल हो चुका है। जिस हिसाब से सारे गैर हिंदी भाषी नेता इस मुद्दे को लेकर एकमंच पर आए हैं उससे कहा जा सकता है कि यदि केन्द्रीय गृहमंत्री अपने बयान को अमलीजामा पहनाने की कोशिश करेंगे तो निश्चित ही यह आग तेज होगी।

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