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चंद्रशेखर की राजनीति क्या है ?

एसआर दारापुरी

15 मार्च को चंद्रशेखर ने आज़ाद समाज पार्टी (एएसपी) के नाम से एक नई राजनीतिक पार्टी बनाने की घोषणा की है जिसका स्वागत है क्योंकि लोकतंत्र में हरेक नागरिक को अपनी पार्टी बनाने का अधिकार है। परन्तु इस पार्टी का एजेंडा अथवा राजनीति के बारे में अभी तक कोई भी घोषणा नहीं की गयी है।

प्रथमदृष्टया अभी तक आम जन में यह धारणा बनी है कि इसका मुख्य ध्येय दलित मुस्लिम गठजोड़ की राजनीति करना है जैसाकि पार्टी के गठन सम्बन्धी सम्मेलन से लगता है। यदि यह सही है तो यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या यह दलित-मुस्लिम गठजोड़ की सोशल इन्जीनियिरिंग का नया संस्करण है अथवा कुछ और।

यह ज्ञातव्य है कि इससे पहले बहुजन से सर्वजन में परिवर्तित बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ऐसा प्रयोग करके अब पतन की ओर अग्रसर है क्योंकि बीजेपी ने उसके इसी फार्मूले का प्रयोग करके उसकी ज़मीन का बड़ा हिस्सा छीन लिया है और उसे हिंदुत्व के छाते तले ले लिया है।

चूंकि चंद्रशेखर कांशीराम की राजनीतिक विचारधारा का अनुसरण करने का दावा करता है, अतः कांशीराम की बहुजन राजनीति की विचारधारा एवं रणनीति का विश्लेषण करना ज़रूरी है। यह सर्वविदित है कि कांशीराम ने दलितों की लामबंदी तो “बाबा तेरा मिशन अधूरा, कांशीराम करेंगे पूरा” के नारे से की थी पर क्या उन्होंने बाबासाहेब की राजनीति के मिशन को कभी परिभाषित भी किया। क्या उन्होंने बाबासाहेब की सैद्धांतिक तथा एजेंडा आधारित राजनीति का अनुसरण किया ? क्या उन्होंने बाबासाहेब की जनांदोलन आधारित राजनीति को कभी अपनाया ? क्या उन्होंने दलितों की भूमिहीनता को लेकर कोई भूमि आन्दोलन किया तथा बसपा के चार बार सत्ता में आने पर भूमि का आवंटन किया गया ? क्या उन्होंने अपने नारे “जो ज़मीन सरकारी है, वो ज़मीन हमारी है” के नारे को सत्ता में आने पर लागू कराया ? मायावती सरकार ने तो 2008 में दलित-आदिवासियों को वनाधिकार कानून के अंतर्गत भूमि आवंटित न करके सबसे बड़ा अन्याय किया है जिस कारण आज लाखों दलित-आदिवासी बेदखली का दंश झेल रहे हैं।

क्या कांशी राम ने कभी दलित एजंडा बनाया अथवा जारी किया था ? क्या उन्होंने “राजनीतिक सत्ता सब समस्यायों की चाबी है” का इस्तेमाल दलितों के विकास के लिए किया जैसाकि बाबासाहेब के इस नारे के दूसरे हिस्से में निहित “इसका (राजनीतिक सत्ता) का इस्तेमाल समाज के विकास के लिए किया जाना चाहिए”, किया ? क्या उन्होंने बाबासाहेब द्वारा आगरा के भाषण में दलितों की भूमिहीनता को दलितों की सबसे बड़ी कमजोरी के रूप में चिन्हित कर बाबासाहेब की तरह अपने जीवन के शेष भाग में दलितों को ज़मीन दिलाने के लिए संघर्ष करने का आवाहन किया? मेरे ज्ञान में इन सब सवालों का उत्तर “नहीं” में ही है।

यह सर्वविदित है कि बाबासाहेब ने कभी भी जाति के नाम पर वोट नहीं माँगा था। उनकी सारी राजनीति वर्गहित पर आधारित थी। बाबासाहेब ने स्वयं कहा था, ”जो राजनीति वर्गहित की बात नहीं करती वह धोखा है”।

बाबासाहेब ने जो भी पार्टियाँ (स्वतंत्र मजदूर पार्टी, शैडयूल्ड कास्ट्स फेडरेशन आफ इंडिया तथा रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया) बनायीं उन सबका विस्तृत रेडिकल एजेंडा था। उसमें दलित, मजदूर, किसान, भूमि आवंटन, महिलाएं, उद्योगीकरण, शिक्षा तथा स्वास्थ्य सुविधाएँ आदि प्रमुख मुद्दे रहते थे। इनमें ऐतिहासिक तौर पर वंचित वर्गों जैसे दलितों, आदिवासियों तथा पिछड़ों के उत्थान के लिए विशेष व्यवस्थाएं करने की घोषणा भी थी। बाबासाहेब की सभी पार्टियों ने समय समय पर भूमि आवंटन के लिए भूमि आन्दोलन चलाए थे जिनमे सबसे बड़ा अखिल भारतीय आन्दोलन रिपब्लिकन पार्टी द्वारा 6 दिसंबर 1964 से जनवरी 1965 तक चलाया गया था। इस भूमि आंदोलन के दौरान 3 लाख से अधिक पार्टी कार्यकर्ताओं ने गिरफ्तारी दी थी तथा तत्कालीन कांग्रेस सरकार को बाध्य हो कर भूमि आवंटन, न्यूनतम मजदूरी तथा ऋण मुक्ति आदि मांगें माननी पड़ी थीं। क्या कांशीराम ने इन मुद्दों को लेकर कभी कोई जनांदोलन चलाया ?

दरअसल कांशी राम ने बाबासाहेब की जनांदोलन तथा एजेंडा आधारित राजनीति को ख़त्म करके अवसरवादी तथा सौदेबाजी की राजनीति को स्थापित किया। क्या आज कांशीराम की सिद्धांतविहीन, मुद्दाविहीन तथा अवसरवादी राजनीति का खामियाजा दलित भुगत नहीं रहे है? क्या कांशी राम की बसपा ने सत्ता के लालच में घोर दलित भाजपा से तीन बार हाथ नहीं मिलाया था? क्या कांशी राम ने उन दलित विरोधी गुंडों तथा माफियायों को टिकट नहीं दिए थे जिनसे दलितों की लडाई थी? क्या यह कहना सही है कि कांशीराम का मिशन तो सही था पर मायावती उससे भटक गयी है? यदि निष्पक्ष हो कर देखा जाए तो ऐसा कहना बिलकुल गलत है क्योंकि मायावती ने तो कांशीराम के एजंडे को ही पूरी ईमानदारी से आगे बढाया है।

मायावती पर टिकट बेचने का जो आरोप है उसकी शुरुआत कांशीराम ने 1994 में जयंत मल्होत्रा पूंजीपति को राज्य सभा का टिकट बेच कर की थी। यह बात कांशीराम ने मेरे सामने स्वीकार भी की थी। इसी तरह बौद्ध धर्म परिवर्तन के बारे में उनका कहना था कि इससे कोई फायदा नहीं है, इसी लिए शायद उन्होंने बौद्ध धर्म ग्रहण नहीं किया था। (वैसे बौद्ध धर्म तो मायवती ने भी ग्रहण नहीं किया है पर यह उसका व्यक्तिगत मामला है।)

दलित एजेंडा के बारे में कांशी राम ने बताया था कि हमने तैयार तो कर रखा है पर वह दिल्ली में तालाबंद है क्योंकि उन्हें डर था कि उसे आऊट करने पर दूसरे लोग उसे चुरा कर लागू कर देंगे। शायद इसीलिए उन्होंने कभी चुनावी घोषणा पत्र तक जारी नहीं किया था। उनका कहना था कि हमें जो कुछ भी करना है वह सत्ता में आ कर ही करेंगे।

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अब अगर चंद्रशेखर कांशीराम के मिशन को ही आगे बढाने की बात करते हैं तो इसमें नया क्या है ? वह मिशन तो अब तक पूरी तरह से सबके सामने आ चुका है। क्या कांशीराम-मायावती की राजनीति के दुष्परिणाम पूरी तरह प्रकट नहीं हो चुके हैं ? क्या कांशीराम मार्का अवसरवादी, सत्तालोलुप एवं सिद्धान्तहीन राजनीति भाजपा की वर्तमान हिन्दुत्ववादी कार्पोरेट समर्थित राजनीति का जवाब हो सकती है ? क्या पूर्व की जाति एवं सम्प्रदाय की बहुजन राजनीति ने भाजपा की हिन्दुत्ववादी राजनीति को ही अपरोक्ष रूप से सुदृढ़ नहीं किया है ?

यह विचारणीय है कि चंद्रशेखर ने नई पार्टी बनाने की घोषणा तो कर दी है पर कांशीराम की तरह इसके एजेंडे के बारे में कुछ भी नहीं कहा है। क्या यह कांशीराम की एजेंडाविहीन एवं अवसरवादी राजनीति की ही पुनरावृति नहीं है ? क्या दलित-मुस्लिम गठजोड़ जैसा कि प्रथमदृष्टया प्रतीत होता है, की राजनीति भाजपा की हिन्दू-मुस्लिम राजनीति को ही मज़बूत नहीं करेगी ? क्या भाजपा की हिन्दुत्ववादी कार्पोरेटपरस्त राजनीति के सम्मुख एसपा का कोई एजेंडा है ? क्या कोई एक व्यक्ति आधारित पार्टी भाजपा जैसी विराट पार्टी को चुनौती दे सकती है ? क्या भाजपा के फासीवाद का मुकाबला केवल कुछ समुदायों के गठजोड़ से किया जा सकता है ? शायद नहीं।

उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि अभी तक चंद्रशेखर ने कांशीराम की राजनीति को ही आगे बढाने का ऐलान किया है जिसके दुष्परिणाम सबके सामने आ चुके हैं। आज ज़रुरत है एक रेडिकल एजेंडा आधारित लोकतान्त्रिक राजनीति की जो ज़मीन, रोज़गार, कृषि विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक न्याय जैसे ज़रूरी सवालों को उठाये और वैकल्पिक राजनीति का निर्माण करे। एक ऐसी राजनीति जो हिंदुत्व व कार्पोरेट गठजोड़ वाली आरएसएस-भाजपा की राजनीति का जवाब दे और अपने चरित्र में लोकतान्त्रिक ढंग से संचालित हो और व्यक्ति व परिवार केन्द्रित राजनीति का निषेध करे। एक ऐसी राजनीति जो असहमति के अधिकार का सम्मान और नागरिकता बोध स्थापित करते हुए लोकतान्त्रिक संस्कृति का निर्माण करे।

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(लेखक पूर्व आईपीएस, दलित चिंतक और एक्टिविस्ट हैं, इस लेख में उनके निजी विचार है)

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