Wednesday - 10 January 2024 - 4:13 AM

षडयंत्र के तहत बंगाल में छेड़ी गई खूनी जंग

डा. रवीन्द्र अरजरिया

देश के राजनैतिक परिदृश्य पर चर्चाओं का बाजार गर्म है। अन्तिम चरण के मतदान का वातावरण और परिणामों की प्रतीक्षा के साथ बंगाल के घटनाक्रम ने खासी सुर्खियां बटोरीं हैं। कहीं संविधान की धाराओं की दुहाई तो कहीं मानवाधिकारों का राग, कहीं बाहुबलियों का तांडव तो कहीं प्रायोजित षडयंत्र, कहीं अमर्यादित शब्दों का प्रयोग तो कहीं भविष्य का भय दिखाने का प्रयास।

जीत के लिए बंगाल में सारे दावपेंच आजमाये गये। क्षेत्रीय भावनाओं को उकेरने से लेकर राष्ट्रीय एकता के यशगान तक ने चुनावी मंचों पर अपनी उपस्थिति दर्ज करायी।

विचार चल ही रहे थे कि फोन की घंटी ने व्यवधान उत्पन्न कर दिया। फोन रिसीव करने पर दूसरी ओर से आयकर विभाग के वरिष्ठ अधिकारी के पद से सेवानिवृत्त हुए नवरंग प्रताप सिंह का अभिवादन भरा स्वर गूंजा। उम्र और अनुभव में हमसे कहीं ज्यादा सम्पन्न व्यक्ति की सहजता ने एक बार फिर हमें उनके प्रति नतमस्तक कर दिया।

उन्होंने ज्योतिषीय जिग्यासा की शान्ति हेतु गवर्मेन्ट पीजी कालेज के प्राचार्य पद से सेवा निवृत हुए देश के जानेमाने गणिताचार्य रामेश्वर प्रसाद साहू जी पास चलने की इच्छा व्यक्त की। प्रोफेसर साहू गणित पर जितना अधिकार रखते हैं उतना ही अधिकार उनका साधना के क्षेत्र में भी है। हमने तत्काल स्वीकृति दे दी।

निर्धारित समय पर हम और नवरंग प्रताप सिंह ‘प्रातीड आश्रम’ नामक प्रोफेसर साहू की साधना स्थली पर पहुंच गये। वर्तमान में यही उनका स्थाई निवास भी है। प्रोफेसर साहब ने आत्मीयता की चरम सीमा पर पहुंचते हुए हम दोनों का खडे होकर स्वागत किया। विद्वान की विनम्रता किसी आभूषण से कम नहीं होती। कुशमक्षेम पूछने-बताने के बाद चर्चा की दिशा लोकसभा चुनाव के महाकुंभ की ओर मुड़ गई। हमने बंगाल के चुनावी घटनाक्रम पर उनका दृष्टिकोण जानना चाहा।

अतीत की गहराई में उतरते हुए उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अपने अध्ययन काल को रेखांकित करते हुए कहा कि बात सन् 1957 की है जब हमने बीएससी में दाखिला लिया था तब वहां का माहौल बंगाल बनाम हिन्दुस्तान था। बंगालियों के लिए अलग से छात्रावास था जिसमें सुविधायें उत्तम श्रेणी की होतीं थीं। उन्हें अनेक तरह की सहूलियतें दी जातीं थीं।

बंगाल के छात्र अपने को बंगाली और हम सबको हिन्दुस्तानी कहा करते थे। बात केवल कहने तक ही सीमित होती तो भी ठीक था। उनका व्यवहार भी हम सबके साथ सौहार्यपूर्ण कभी नहीं रहा। उस समय भी वे अपनी भाषा, अपनी संस्कृति और अपनी एकता को विशिष्टता के दायरे में रखते थे। अंग्रेजों ने कलकत्ता से ही देश में प्रवेश किया था। गोरों का चहेता शहर भी कलकत्ता ही था।

वहीं से पूरे देश को नियंत्रण किया जाता था। यहीं मानसिकता स्वाधीनता के बाद वहा के अवसरवादी नेताओं में भी आ गई जो विरासत के रूप में हस्तांतरित होती हई वर्तमान की चौखट पर दस्तक दे रही है।

हमने चुनावी हिंसा की ओर उनका ध्यानाकर्षित किया। प्रमुख राजनैतिक दलों की नीतियों-रीतियों की विवेचना करते हुए उन्होंने कहा कि धनबल और बाहुबल के अलावा बंगाल में षडयंत्रबल भी देखने को मिला। जहां भाजपा ने बंगाल की दुखती रग पर चोट की वहीं टीएमसी ने अपने वर्चस्व के तेवर दिखाये।

केन्द्र के सरकारी तंत्र का पार्टी के हित में उपयोग करने का आरोप ममता ने लगाया तो अमित ने भी बंगाल की राज्य सरकार पर मनमानियां करने से लेकर खुली गुण्डागिरी करने तक की बात प्रचारित करना शुरू कर दी। षडयंत्र के तहत बंगाल में छेडी गई खूनी जंग ताकि एक दल अपना अस्तित्व बना सके तो दूसरा अपना वर्चस्व कायम रख सके।

दूसरी ओर आखिरी चरण के मतदान के पहले ही एनडीए के विरोधी खेमे ने एकजुटता हेतु प्रयास शुरू कर दिये हैं। चन्द्रबाबू नायडू तो राहुल गांधी, शरद यादव, मायावती, अखिलेश यादव, ममता बनर्जी सहित विभिन्न दलों के नेताओं से सम्पर्क तक करने लगे हैं। देश के भविष्य का स्वरूप तो 23 मई को ही सामने आयेगा।

चर्चा चल ही रही थी कि प्रोफेसर साहब के पौत्र ने ड्राइंग रूम में प्रवेश किया और चाय सहित अन्य स्वल्पाहार की सामग्री सेन्टर टेबिल पर सजाना शुरू कर दी। विचार प्रवाह में अवरोध उत्पन्न हुआ किन्तु तब तक हमें स्वाधीनता के बाद के दसक की बंगाली मानसिकता का दिग्दर्शन हो चुका था।

चाय के उपरान्त नवरंग प्रताप सिंह ने अपनी ज्योतिषीय जिग्यासाओं का समाधान प्रोफेसर साहब से पाने का प्रयास किया। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नये मुद्दे के साथ फिर मुलाकात होगी।

जयहिंद।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख में उनके निजी विचार हैं )

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