Sunday - 14 January 2024 - 11:10 PM

पिता के सियासी पांव को काट रहा बेटे का जूता

मल्लिका दूबे

कहते हैं कि बाप का जूता जब बेटे के पांव में समाने लगे तो वह बेटा बाप के लिए दोस्त सरीखा हो जाता है। लेकिन जब बेटे का जूता बाप का पांव काटने लगे तो? कुछ यही स्थिति बिहार से सटे यूपी के संसदीय क्षेत्र देवरिया में इन दिनों देखने को मिल रही है।

देवरिया यूं तो ब्रााह्मण बाहुल्य वाला संसदीय क्षेत्र है और यहां से भाजपा प्रत्याशी, पार्टी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष रमापति राम त्रिपाठी की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है। पर, उनके सांसद बेटे शरद त्रिपाठी द्वारा अपने संसदीय क्षेत्र संतकबीरनगर में अपनी ही पार्टी के क्षत्रिय विधायक राकेश सिंह बघेल के सिर पर बरसाए गए जूते की गूंज देवरिया में उन्हें परेशान कर रही है।

बहुचर्चित जूताकांड के बाद पार्टी ने शरद का संतकबीरनगर से टिकट तो काट दिया लेकिन ब्रााह्मणों की नाराजगी दूर करने के लिए उनके पिता रमापति राम त्रिपाठी को देवरिया में एडजस्ट कर दिया। रमापति राम को टिकट मिलने से विधायक राकेश सिंह बघेल के स्वजातीय नाराज हैं। उनकी नाराजगी देवरिया में भाजपा की राह में कांटे बिछाती दिख रही है।

हालांकि भाजपा इस बात से थोड़ी राहत महसूस कर रही है कि यहां गठबंधन प्रत्याशी के वोट बैंक में कांग्रेस की सेंधमारी नजर आ रही है।

क्षत्रिय वोटरों की नाराजगी कर रही परेशान

देवरिया संसदीय क्षेत्र में क्षत्रिय बिरादरी की नाराजगी बीजेपी प्रत्याशी को परेशान कर रही है। क्षत्रिय बिरादरी परंपरागत रूप से भाजपा का मतदाता माना जाता है, खासकर ऐसी स्थिति में जब अन्य दलों से कोई क्षत्रिय प्रत्याशी मैदान में न हो।

देवरिया में किसी भी प्रमुख दल से कोई क्षत्रिय प्रत्याशी चुनाव मैदान में नहीं है। पर, संतकबीरनगर में सांसद के जूताकांड से क्षत्रिय बिरादरी के लोग यहां भाजपा प्रत्याशी और संतकबीरनगर सांसद के पिता रमापति राम त्रिपाठी को लेकर सहज नहीं हैं।

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चर्चा तो यह भी है कि यहां क्षत्रिय समाज बैठकें कर अपनी रणनीति बना चुका है। या तो इस बिरादरी के नाराज वोटर वोटिंग से दूर रहेंगे या फिर नोटा का बटन का विकल्प चुन सकते हैं। हालांकि पार्टी नेतृत्व की तरफ से क्षत्रिय समाज को मनाने की लगातार कोशिश हो रही है।

बागी रामाशीष भी कर रहे भाजपा को परेशान

भाजपा के सामने एक और दिक्कत उसके नेता रहे रामाशीष राय की बगावत है। रामाशीष बागी होकर निर्दल चुनाव लड़ रहे हैं। यह माना जा रहा है कि उन्हें इस चुनाव में जो भी वोट मिलेंगे, उतने वोटों का नुकसान भाजपा को ही उठाना पड़ेगा।

ब्रााह्मण बाहुल्य होने का मिल सकता है फायदा

क्षत्रिय बिरादरी की नाराजगी के बावजूद यहां भाजपा को ब्रााह्मण बाहुल्य क्षेत्र होने का फायदा मिल सकता है। हालांकि शुरुआती दिनों में बाहरी के नाम पर इस समाज के मतदाताओं में भी कमोवेश थोड़ी नाराजगी थी। लेकिन पार्टी ने यहां वर्तमान सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री कलराज मिश्र को जमीनी स्तर पर लगाकर डैमेज कंट्रोल किया है। 75 वर्ष वाली उम्र बाधा के चलते कलराज इस बार चुनाव नहीं लड़ रहे हैं।

भाजपा को गठबंधन से मिल रही तगड़ी चुनौती

देवरिया संसदीय क्षेत्र में भाजपा को गठबंधन से बसपा प्रत्याशी विनोद जायसवाल से तगड़ी चुनौती मिल रही है। दोनों पार्टियों के वोट बैंक के अलावा विनोद को स्वजातीय मतों पर भी भरोसा है।

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विनोद जायसवाल इस संसदीय सीट से वर्ष 2009 में बसपा के टिकट पर चुनाव जीत चुके गोरख प्रसाद जायसवाल के दामाद हैं। बसपा का यहां 2009 में पहली बार खाता खुला था तो समाजवादी पार्टी के मोहन सिंह तीन बार सांसद रह चुके हैं।

ऐसे में यदि सपा वोट बैंक ठीक से बसपा प्रत्याशी के पक्ष में शिफ्ट हुआ तो ब्रााह्मण बाहुल्य होने के बावजूद यहां भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष रमापति राम की राह मुश्किल हो सकती है।

कांग्रेस के अल्पसंख्यक प्रत्याशी ने गठबंधन को उलझाया

सपा-बसपा के ज्वाइंट वोट बैंक के बावजूद यहां गठबंधन का प्रत्याशी बीजेपी को सीधी टक्कर देते हुए भी समीकरणों में उलझा हुआ है। कांग्रेस ने यहां अल्पसंख्यक समाज से नियाज अहमद को प्रत्याशी बनाया है।

नियाज पिछले चुनाव में बसपा के टिकट पर यहां दूसरे स्थान पर थे। नियाज के चुनाव मैदान में होने से गठबंधन के खाते से मुस्लिम मतों का बिखराव हो सकता है। मुस्लिम मतों के बिखराव का सीधा फायदा बीजेपी को मिलना अवश्यंभावी है।

तीन दशक से है सांसदी में बदलाव की परंपरा

देवरिया के चुनाव परिणामों पर गौर करें तो तीन दशक से यहां कोई भी लगातार दो बार सांसद नहीं चुना गया। हर चुनाव में यहां के मतदाता बदलाव की तरफ दिखते हैं। वर्ष 1989 में जनता दल के टिकट पर राजमंगल पांडेय जीते तो 1991 में इसी पार्टी से मोहन सिंह।

1996 में भाजपा से पूर्व थल सेना उपाध्यक्ष ले. जनरल श्रीप्प्रकाश मणि त्रिपाठी, 1998 में सपा से मोहन सिंह, 1999 में एक बार फिर भाजपा से श्रीप्रकाश मणि त्रिपाठी, 2004 में सपा से मोहन सिंह, 2009 में बसपा से गोरख प्रसाद जायसवाल और 2014 में भाजपा से कलराज मिश्र इस बार सांसदी में बदलाव की परंपरा तो चुनाव परिणाम आने के पहले से ही तय है। कारण, पिछली बार के विजेता कलराज मिश्र चुनाव मैदान में ही नहीं हैं। जो भी चुना जाएगा, वह पहली बार सांसद बनेगा।

स्थानीय मुद्दे गुम, जातीय समीकरणों का ही बोलबाला

देवरिया में स्थानीय मुद्दे चुनाव से गायब हैं। ऐसा नहीं है कि यहां स्थानीय स्तर पर गंभीर मुद्दों की कमी है। मसलन, सबसे बड़ा स्थानीय मुद्दा चीनी मिलों की बंदी है। यहां सरकारी क्षेत्र की चार चीनी मिलें भटनी, बैतालपुर, देवरिया और गौरी बाजार बंद होकर निजी हाथों बिक चुकी हैं।

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चीनी मिलों की बंदी से गन्ना बुआई का क्षेत्र बीस प्रतिशत घट चुका है। स्थानीय मुद्दों से इतर इस बार के चुनाव में सभी पार्टियों का जोर जातीय समीकरणों पर है। जातीय समीकरणों और एक-दूसरे के वोट बैंक में सेंधमारी ही यहां परिणाम को प्रभावित करते नजर आ रहे हैं।

दिग्गजों की प्रतिष्ठा दांव पर

देवरिया के रण में कई दिग्गजों की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है। भाजपा के कद्दावर नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री कलराज मिश्र भले ही यहां चुनाव नहीं लड़ रहे हैं लेकिन पार्टी में इस सीट के लिए अपना उत्तराधिकारी देने के लिए उनकी लोकप्रियता भी कसौटी पर होगी।

इसके अलावा इस सीट पर प्रत्याशी, पूर्व प्रदेश अध्यक्ष रमापति राम त्रिपाठी भी अपनी सियासी साख बचाने के लिए कड़े इम्तिहान से गुजर रहे हैं। त्रिपाठी अभी तक सीधे जनता से हुए चुनाव में कभी जीत नहीं पाए हैं। यहां एक और पूर्व भाजपा प्रदेश अध्यक्ष और वर्तमान में योगी कैबिनेट में मंत्री सूर्य प्रताप शाही की प्रतिष्ठा भी दांव पर होगी, कारण कि यह उनका गृहक्षेत्र है।

उधर कांग्रेस के नेता विधानमंडल दल अजय कुमार लल्लू भी प्रतिष्ठा की जंग में घिरे हुए हैं। गोरखपुर-बस्ती मंडल से कांग्रेस के एकमात्र विधायक लल्लू इसी संसदीय क्षेत्र के तमकुहीराज विधानसभा क्षेत्र से विधायक हैं। कांग्रेस प्रत्याशी की पोजीशन नेतृत्व के सामने लल्लू की मजबूती को भी दिखाएगी।

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