Thursday - 11 January 2024 - 9:37 AM

रोजगार सृजन की चुनौती से कैसे निपटेगी मोदी सरकार

प्रीति सिंह

केंद्र में सत्तारूढ़ बीजेपी सरकार रोजगार के मुद्दे पर फेल है, ऐसा आरोप लगातार लगता आ रहा है। यह आरोप निराधार नहीं है। देश में जहां हर साल बेरोजगारों की फौज में हर साल इजाफा हो रहा है वहीं नौकरियों की संख्या घटती जा रही है। इससे संबंधित तमाम आकंड़े हर साल विभिन्न संस्थाओं द्वारा प्रकाशित होते हैं। सबसे बड़ी विडंबना यह है देश में बेरोजगारी से निपटने का अब तक कोई ठोस खाका ही नहीं बना है।

केंद्र की सत्ता में आने के बाद से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने भाषणों कभी दो करोड़ तो कभी एक करोड़ रोजगार देने का ऐलान करते रहे हैं, पर यह धरातल पर कहीं दिखाई नहीं दे रहा है। यह सिर्फ चुनावी जुमला साबित हो रहा है। केंद्र सरकार भले ही अपने तमाम स्कीमों के जरिए रोजगार के अवसर बढ़ाने का दावा कर रही हो, लेकिन ऐसा दिख नहीं रहा है।

बेरोजगारी का आलम का अंदाजा इन आंकड़ों से लगाया जा सकता है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े के मुताबिक वर्ष 2018 में रोजाना औसतन पैंतीस बेरोजगारों और छत्तीस स्वरोजगारों ने आत्महत्या की। इन दोनों श्रेणियों के आंकड़ों को जोड़ दिया जाए तो एक वर्ष में करीब छब्बीस हजार लोगों ने आत्महत्या की है। यह आंकड़ा देश में एक वर्ष में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या से कहीं ज्यादा है।

वर्ष 2018 में 13149 स्वरोजगार करने वालों और 12936 बेरोजगारों ने आत्महत्या की, जबकि इसी वर्ष 10349 किसानों ने खुदकुशी की। इतना ही नहीं साल 2017 के मुकाबले 2018 में स्वरोजगार करने वालों और बेरोजगारों की आत्महत्या दर में साढ़े तीन फीसद की वृद्धि हुई है।

देश में आत्महत्या के आधे से ज्यादा मामले यानी 50.9 फीसद पांच राज्यों में दर्ज किए गए हैं। इनमें महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और मध्य प्रदेश शीर्ष पर हैं। सबसे अधिक आत्महत्या की दर छात्रों, निजी कर्मचारियों और सरकारी उपक्रमों के कर्मचारियों में देखने को मिली।

केंद्र सरकार अपने अनेक स्कीमों के जरिए रोजगार के अवसर बढ़ाने के दावे करती आ रही है लेकिन दावों की पोल खुद सरकार ने ही खोल दिया है। केंद्र सरकार की ओर से ही संसद में पेश किए गए डेटा के अनुसार इस साल सरकारी स्कीमों से रोजगार सृजन का आंकड़ा बीते वित्त वर्ष के मुकाबले कम रह सकता है। रोजगार सृजन को लेकर केंद्र सरकार की फ्लैगशिप स्कीमों प्रधानमंत्री रोजगार सृजन कार्यक्रम (पीएमईजीपी) और राष्ट्रीय शहरी आजीविका मिशन के अपेक्षित परिणाम नहीं नजर आ रहे है।

संसद में केंद्रीय श्रम एवं रोजगार मंत्री संतोष गंगवार की ओर से पेश किए गए डेटा के अनुसार वर्ष 2018-19 में सरकारी स्कीमों से 5.9 लाख रोजगार के अवसर पैदा हुए, जबकि मौजूदा वित्तीय वर्ष में यह आंकड़ा 31 दिसंबर तक 2.6 लाख तक ही पहुंचा था। इससे साफ है कि बचे 3 महीनों यानी मार्च तक इसका पिछले साल के स्तर तक पहुंचना संभव नहीं है। वहीं 2017-18 की बात करें तो केंद्र सरकार की स्कीमों से सिर्फ 3.9 लाख लोगों को ही रोजगार मिला था।

2014 के बाद से स्थित हुई खराब

वर्ष 2014 के बाद ये रोजगार में भारी गिरावट आई है। मंदी की वजह से देश में लाखों नौकरिया चली गई। वहीं सरकार की नोटबंदी और जीएसटी ने हजारों छोटे और मझले उद्योगों पर ताला जडऩे का काम किया जिसकी वजह से हजारों लोग बेरोजगार हुए। इस दौरान सरकार युवाओं को प्रशिक्षित करने के लिए स्कीम लेकर तो आई लेकिन नौकरी कहां मिलेगी इसको लेकर कोई काम नहीं किया गया।

दरअसल प्रधानमंत्री रोजगार सृजन योजना सीधे तौर पर किसी भी तरह की नौकरी देने की योजना नहीं है। यह क्रेडिट लिंक्ड सब्सिडी प्रोग्राम है, जिसका संचालन लघु एवं मध्यम उद्योग मंत्रालय की ओर से चलाया जा रहा है। खादी ग्रामोद्योग आयोग की मदद से चलने वाली इस स्कीम से मिलने वाले रोजगारों की संख्या मौजूदा वित्त वर्ष में 2014 के बाद से सबसे कम है।

यदि हम केन्द्र सरकार की एक और योजना राष्ट्रीय शहरी आजीविका मिशन की बात करें तो इस योजना के तहत वित्तीय वर्ष 2018-19 में सिर्फ 1.8 लाख लोगों को रोजगार मिला था, लेकिन अब इस साल जनवरी तक के आंकड़ों के अनुसार सिर्फ 44,000 लोगों को ही फायदा मिल सका है।

वित्तीय वर्ष 2017-18 में प्रधानमंत्री रोजगार सृजन योजना के तहत 1,15,416 लोगों को रोजगार के मौके मिले थे, जबकि वित्तीय वर्ष 2016-17 में यह आंकड़ा 1,51,901 का था। इस स्कीम के लाभार्थियों की संख्या में सबसे बड़ी गिरावट असम और जम्मू-कश्मीर में आई है। इसके अलावा राष्ट्रीय शहरी आजीविका मिशन की बात करें तो गुजरात और मध्य प्रदेश में इसकी परफॉर्मेंस सबसे कमजोर है।

अब सवाल उठता है कि क्या इन आंकड़ों पर सरकार गौर करेगी? क्या बेराजगारी दूर के लिए कोई कोई खाका तैयार करेगी? जाहिर है यह आंकड़े चिंता पैदा करने वाले हैं। बेराजगारों की फौज नौकरी के लिए दर-दर की ठोकर खा रही है। बेराजगार आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं। सवाल है कि क्या इन आत्महत्याओं के लिए बढ़ती बेरोजगारी और सरकार की नीतियां जिम्मेदार नहीं हैं?

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