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पाकिस्तान : विपक्षी दलों के निशाने पर सेना

जुबिली न्यूज डेस्क

पाकिस्तान में सरकार से ज्यादा सेना की चलती है यह किसी से छिपा नहीं है। सत्ता में सेना की दखलअंदाजी आज से नहीं बल्कि कई दशक से हैं।

लेकिन वर्तमान में विपक्षी दलों ने सेना के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। विपक्षी दल सेना से दो दो हाथ करने के मूड में दिख रही है।

पिछले दिनों सत्ताधारी दल को छोड़कर सभी अहम विपक्षी पार्टियों ने एक गठबंधन बनाया है और अगले महीने से पूरे पाकिस्तान में बड़े विरोध-प्रदर्शनों और रैलियों की तैयारी हो रही है।

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विपक्षी दल कहते हैं कि सेना राजनीति में बहुत ज्यादा दखल देती है और सैन्य जनरल कहते हैं कि राजनेता अपने वादे नहीं निभाते। अब ऐसे हालात में क्या संभव है कि पाकिस्तान के नेता और जनरल मिल बैठकर इस झगड़े को निपटाएं।

पिछले दिनों इस्लामाबाद में हुई विपक्षी दलों की बैठक को पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने भी लंदन से संबोधित किया था। शरीफ ने पाकिस्तान की मौजूदा समस्याओं के लिए इमरान खान को नहीं बल्कि “उन्हें सत्ता में बिठाने वालों” को जिम्मेदार ठहराया था।

दरअसल नवाज शरीफ का इशारा पाकिस्तान की सेना की तरफ था। उन्होंने कहा, “आज देश जिन हालात का सामना कर रहा है, उसकी बुनियादी वजह वे लोग हैं जिन्होंने जनता की राय के खिलाफ अयोग्य हुकमरानों को देश पर थोपा है..”

इमरान खान के सत्ता में आने के बाद से विपक्षी दलों के नेता अक्सर ये आरोप लगाते रहते हैं कि वह सेना की मदद से सत्ता में आए हैं। विपक्षी दलों के नेताओं ने सेना पर 2018 के आम चुनावों में धांधली का भी आरोप लगाया है।

यह पहला मौका नहीं है जब राजनेताओं ने सैन्य जनरलों पर लोकतंत्र को कमजोर करने का आरोप लगाया है, लेकिन विपक्ष की हालिया बैठक में सेना विरोधी आवाजें बहुत मुखर सुनाई दीं।

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पिछले दिनों बैठक में मौजूद सभी पार्टियां इस बात पर सहमत थीं कि सेना अपनी संवैधानिक भूमिका से बाहर जा रही है। नवाज शरीफ की राय में, “सेना आज देश से ऊपर हो गई है।”

पाक में राजनेता और सेना के बीच टकराव की स्थिति ऐसे समय में बन रही है जब देश की अर्थव्यवस्था बदहाल है और मानवाधिकारों की स्थिति चिंतातनक है।

सांसदों और सैन्य अधिकारियों के बीच बेहतर तालमेल देश को संभालने में मदद कर सकता है, पर सवाल यही है कि क्या पाकिस्तान को एक नई सामाजिक व्यवस्था की जरूरत है जिसमें पाकिस्तान की सेना और चुनी हुई सरकार एक साथ काम कर सकें।

क्या चाहती है सिविल सोसायटी

पाकिस्तान में मानवाधिकार समूह सेना पर गैरकानूनी रूप से सामाजिक कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं को हिरासत में लेने और मीडिया की सेंसरशिप का आरोप लगाते हैं। वहीं पाक की सिविल सोसायटी चाहती है कि 1973 के संविधान में सेना की जिस भूमिका का जिक्र है, वह उसी के दायरे में रहे।

वे चाहते हैं कि नागरिक प्रशासन से जुड़े सभी मामले चुनी हुई सरकार के अधीन होने चाहिए जिनमें घरेलू नीतियों से लेकर अर्थव्यवस्था और विदेश नीति, सब कुछ शामिल है।

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डीडब्ल्यू के अनुसार पाकिस्तानी मानवाधिकार आयोग के महासचिव हैरिस खालिक कहते हैं, “पाकिस्तान में नागरिक और राजनीति समाज, दोनों की जिम्मेदारी है कि वे संविधान, लोकतंत्र, संघवाद और संसद की सर्वोच्चता की रक्षा करें और उन सभी कदमों का विरोध करें जो देश की अखंडता और सुरक्षा को नुकसान पुहंचाते हैं।”

संवैधानिक रूप से यह बात सही है, लेकिन जमीन पर हालात बिल्कुल अलग हैं। 1947 में बंटवारे के बाद पाकिस्तान बनने के बाद से सुरक्षा से जुड़े मुद्दे पाकिस्तान की सियासत में अहम भूमिका निभाते रहे हैं।

डीडब्लयू के अनुसार रिटायर्ड जनरल और रक्षा विश्लेषक गुलाम मुस्तफा भी सेना और विपक्षी पार्टियों के बीच संवाद की पैरवी करते हैं। लेकिन साथ में वह यह भी कहते हैं कि पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ इसके लिए तैयार नहीं हैं।

वह कहते हैं कि “नवाज शरीफ तानाशाही तरीके से काम करते हैं। वह राष्ट्रीय सुरक्षा संस्थानों की तरफ से दी जाने वाली सलाह पर ध्यान नहीं देना चाहते।”

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वहीं इस्लामाबाद में रहने वाले राजनीतिक विश्लेषक कमर चीमा कहते हैं कि सेना और राजनीति दलों को करीब लाने का काम प्रधानमंत्री इमरान खान का है। उनका कहना है, “खान संसद के नेता हैं। उन्हें लोकतांत्रिक समूहों के लिए जगह तैयार करनी होगी, विपक्ष के साथ बात करनी होगी। वह तो उनसे बात ही नहीं करना चाहते हैं।” चीमा की राय में, “असल में प्रधानमंत्री ने गैर निर्वाचित अफसरों को ज्यादा अहमियत दे दी है। यह लोकतांत्रिक तरीका नहीं है।”

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