जुबिली न्यूज डेस्क
बिहार में चुनाव आयोग ने विधानसभा चुनाव की तिथि की घोषणा कर दी। मतदान की तिथि की घोषणा ने राजनीति दलों को संभलने का मौका दे दिया। यह उसी तरह है जैसे अखाड़ा सजा नहीं है और रेफरी ने सीटी बजा दी कि दो-दो हाथ करने के लिए आ जाओ।
बिहार में तय समय से चुनाव होगा ऐसा आयोग ने इशारों-इशारों में पहले ही बता दिया था, लेकिन एक कोने से यह हवा भी उड़ रही थी कि चुनाव टल भी सकते हैं, इसलिए बिहार के चुनावी अखाड़े में पहलवान अभी अपना पाला दुरुस्त करने में ही उलझे हुए थे।
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फिलहाल बिहार में दस नवंबर को नई सरकार की सूरत सामने आ जाएगी। अब वह स्पष्ट होगी या धुंधली, यह समय ही बताएगा, लेकिन चुनाव आयोग द्वारा अचानक तारीखों की घोषणा से बहुतों को संभलने का मौका भी नहीं मिल सका है।
बिहार एनडीए और महागठबंधन में सीटों को लेकर अभी तक दलों के जुडऩे-टूटने का सिलसिला जारी है। टीमें बन पातीं, इससे पहले ही चुनाव की तिथि की घोषणा हो गई। अब इस घोषणा के बाद तेजी से समीकरण बदलने की उम्मीद है।
शुक्रवार की दोपहर चुनाव आयोग की प्रेस कांफ्रेंस की आई सूचना से माहौल बदल गया। विपक्षी दल सुबह किसान बिल के विरोध में अपने आंदोलन को धार देने में जुटे थे, उसी समय सूचना आई की आयोग चुनाव की तिथि की घोषणा करने जा रहा है। फिर क्या राजनीतिक दल सर्तक हो गए।
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मुख्य चुनाव आयुक्त ने बिहार में तीन चरणों में चुनाव की घोषणा की। चूंकि यह चुनाव कोरोना काल में हो रहा है, इसलिए तमाम नियम-कायदे व दिशा-निर्देश भी तय कर दिए गए हैं। इस बार चुनाव में घर-घर जाने व सभाओं को लेकर पुरानी प्रेक्टिस काम नहीं आने वाली। वर्चुअल रैली ही सहारा है।
बदला चुनावी समीकरण
बहरहाल चुनाव की घोषणा होते ही सभी राजनीतिक दलों ने इसका स्वागत किया है कि वे लड़ाई को तैयार हैं। सत्तारूढ़ एनडीए तो हमेशा से चाहती थी कि तय समय से चुनाव हो पर विपक्षी दल इसके लिए तैयार नहीं थे। विपक्षी दलों ने कोरोना का हवाला देते हुए चुनाव टालने की अपील भी की थी, पर आयोग ने संज्ञान में नहीं लिया।
फिलहाल आज से तीन महीने पहले यह समझा जा रहा था कि बिहार में लड़ाई आमने-सामने की होगी, मगर अब हालात बदल गए हैं। एक तरफ एनडीए तो दूसरी तरफ महागठबंधन में अधिकांश दल लामबंद थे।
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सत्तारूढ़ एनडीए में सिर्फ लोजपा ने ही थोड़ा बहुत विरोध किया था लेकिन बीजेपी या जेडीयू ने इसे गंभीरता से नहीं लिया। वहीं महागठबंधन में रार अब तक मचा हुआ है। चुनाव की तिथि की घोषणा हो गई और मुख्यमंत्री के चेहरे को लेकर अब तक दलों में सहमति नहीं बन पाई है।
पहले ऐसा समझा जा रहा था कि सत्तारूढ़ नीतीश को बनाए रखने और हटाने के मुद्दे पर ही चुनाव होगा। वैसी ही बिसात भी बिछी दिख रही थी, पर राजनीतिक महत्वाकांक्षा इस समीकरण पर भारी पडऩे लगी। बड़े दलों के आगे सीटों पर बात न बनने से किले दरकने लगे।
महागठबंधन में तेजस्वी यादव का विरोध करके पहले हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा अलग होकर नीतीश के साथ जा बैठा और उसके बाद अब राष्ट्रीय लोकतांत्रिक समता पार्टी (रालोसपा) के उपेंद्र कुशवाहा तेजस्वी को नीतीश की टक्कर का न मानते हुए गुरुवार को अलग राह निकल लिए।
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तीसरे मोर्चे की उभर रही है तस्वीर
अब तक आमने-सामने डटे एनडीए और महागठबंधन में पड़ती दरारों से तीसरे मोर्चे की तस्वीर उभरती दिखने लगी है। इन बड़े दो गठबंधनों में आपसी खींचतान के बीच छोटे दल अपनी संभावनाएं तलाशने में जुट गए हैं।
जनअधिकार पार्टी (जाप) के पप्पू यादव छोटी पार्टयिों को एकजुट करने में जुटे हैं। पप्पू पहले ही चिराग पासवान को मुख्यमंत्री का दावेदार बताकर उनकी महत्वाकांक्षा को हवा दे चुके हैं, जो अब गुल खिलाती नजर आ रही है। यही एनडीए में दरार का कारण बन रही है।
इसके अलावा महागठबंधन से दूरी बनाने और एनडीए में संभावनाओं के द्वार बंद होते देख रालोसपा का ठौर भी इनके साथ ही दिखने लगा है। वहीं असदुद्दीन ओवैसी की एआइएमआइएम पहले ही समाजवादी जनता दल (डेमोक्रेटिक) देवेंद्र यादव की पार्टी से गठबंधन कर चुकी है। यह खेमा भी आगे इनके साथ जुड़ जाए तो ताज्जुब नहीं होगा।,
दरअसल छोटी पार्टियों का एकमात्र मकसद सदन में अपनी छोटी ऐसी हिस्सेदारी का है, जिसके बिना सरकार का गठन मुश्किल हो। इन्हीं कवायदों के बीच चुनाव की डेट आ जाने से अस्त-व्यस्त पहलवानों को सावधान की मुद्रा में ला दिया है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि सप्ताह भर के सीमित समय में कौन से समीकरण बनते हैं और किसके बिगड़ते हैं?