Sunday - 7 January 2024 - 9:28 AM

उन्माद की राजनीति का भविष्य

के पी सिंह

लोकतंत्र में लोक यानी आम आदमी के हितों की पूरी सुरक्षा की जाती है, यह धारणा तो यूटोपिया की तरह है लेकिन यह एक प्रबंधन है जिससे किसी राष्ट्र राज्य की स्थिरता सुनिश्चित हो जाती है।

शासन के खिलाफ भड़ास निकालने के अवसर की व्यवस्था
लोकतंत्र का मूलभूत तत्व शासन से असंतुष्ट तबके को अपनी भड़ास निकालने की गुंजाइश है। जब शासन की नीतियां ज्यादा गलत हो जाती हैं तो इसमें व्यापक जन सामान्य भी शामिल हो जाता है और तब व्यवस्था के परिमार्जन का दबाव बनता है। लोकतंत्र में शासन बहुत निरंकुश नही हो सकता। लोगों के प्रति उसे किसी हद तक जबावदेही महसूस करनी पड़ती है जिससे आम आदमी की भलाई की भी संभावना इस तंत्र में कमोवेश बनी रहती है।

आलोचना नाकाबिले बर्दाश्त होना खतरनाक

जब शासन की आलोचना के प्रति राजभक्त वर्ग सहज न रह जाये तो लोकतंत्र के लिए यह अशुभकर स्थिति है। लोगों में उन्माद पैदा करने की राजनीति से ऐसी विडंबनापूर्ण स्थितियां निर्मित होती हैं।

भारत में सत्रहवीं लोकसभा का चुनाव कलकत्ता के ईडन गार्डन में मोहम्मडन स्पोर्टिंग क्लब और मोहन बागान के बीच फुटवाल मैच की तर्ज पर हो रहा है। आम लोगों के बीच भी बहस में संबंध कटु होते जा रहे हैं।

संस्कृति और शील को आइना दिखा रहीं गालियां

सोशल मीडिया पर गालियां और पराक्रम की घोषणाएं भारतीय संस्कृति और शील को आइना दिखा रहीं हैं। चुनाव युद्ध के अखाड़े में बदल चुका है। दोनों पक्ष सरकार बनने पर दूसरे पक्ष के नेताओं को जेल भेजने से लेकर फांसी पर चढ़वाने तक का दम भर रहे हैं।

यह तल्खी केवल चुनाव तक सीमित नही है। मामला इतना बढ़ चुका है कि चुनाव बाद भी प्रतिशोध की आग धधकती रहेगी। इन स्थितियों ने लोकतंत्र को एक खतरनाक मुहाने पर ले जाकर खड़ा कर दिया है।

सदी के पहले चुनाव से अब तक कितने बिगड़ चुके हैं हालात

यह स्थितियां इस सदी के पहले चुनाव से कितनी भिन्न हैं। 2004 में जब अटल जी को जनता ने सत्ता के सिंहासन से नीचे उतार दिया था तो भी वे यथावत सहज बने रहे। सत्ता परिवर्तन से उनकी गरिमा और प्रतिष्ठा पर भी कोई आंच नही आई। सभी पक्षों के शिखर नेता सर्वमान्य हैसियत में दिखते थे जो कि लोकतांत्रिक संस्कृति के अनुरूप था। लेकिन आज क्या वैसा माहौल है।

स्वतंत्र मीडिया के लिए सबसे मुश्किल का समय

मीडिया के लिए भी इन हालातों में काम करना मुश्किल हो गया है। हर पत्रकार का एक राजनीतिक दृष्टिकोण होता है, उसके मूल्यांकन का अपना तरीका रहता है। वह अपने इसी हिसाब-किताब से आंकलन प्रस्तुत करता है। अभी तक यह माना जाता रहा था कि पत्रकारों का अलग काम है जो वे अपने तरीके से करेगें। कुछ बहुत ही बदनाम पत्रकारों को छोड़कर किसी के विरोध में लिखने से पत्रकार की नीयत और नैतिकता का पोस्टमार्टम करने का रिवाज नही था।

अमेरिका की चर्चित पत्रिका टाइम ने मनमोहन सिंह के बारे में जब वे प्रधानमंत्री थे, आलोचनात्मक कवर स्टोरी छापी थी। टाइम के नये अंक की कवर स्टोरी वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बारे में है जिसमें उन्हें फूट डालने वालों का मुखिया कहा गया है। लेकिन इसी अंक में एक और स्टोरी भी है जो मोदी द रिफार्मर शीर्षक से दी गई है। इस स्टोरी में मोदी को भारत ने आर्थिक सुधारों की सबसे बड़ी उम्मीद बताया गया है।

टाइम के आर्टिकल को दिल पर लेने की क्या जरूरत

इसके बावजूद राजभक्तों ने पत्रकार आतिश तासीर की कवर स्टोरी को दिल पर ले लिया है। जबकि इतना भड़कने की कोई जरूरत नही है। आतिश तासीर पेशेवर दृष्टि से असंदिग्ध तौर पर बेहतरीन पत्रकार हैं। फिर भी अन्य पत्रकारों की तरह वे कोई जज नही हैं जो उनके आर्टिकल से फैसले जैसे असर का खतरा महसूस किया जाये। लोगों के सामने उनका आर्टिकल प्रधानमंत्री के मूल्यांकन का एक अलग धरातल प्रस्तुत करता है।

उनके आर्टिकल का यह महत्व जरूर है। लोकतंत्र में आवश्यक है कि नेता और पार्टियों के हर पहलू से पड़ताल का अवसर लोगों का उपलब्ध हो तांकि विवेकपूर्ण जनमत संगठित हो सके। पर कुछ लोगों ने यह मान लिया है कि जिसकी तलाश थी देश को वह मिल गया है तो अब चुनाव को केवल रश्म अदायगी के तौर पर देखा जाना चाहिए और हर आदमी को केवल एक नेता के लिए वोट करके घर बैठ जाना चाहिए।

क्यों नही दिखती अटल और मनमोहन जैसी खेल भावना

आज सत्ता में बैठे हुए लोग लगता है जैसे बहुत डरे हुए हैं। अगर सत्ता न रही तो उनके साथ क्या हो जायेगा यह आशंका उनको भयभीत किये हुए है। इसलिए अटल जी या मनमोहन सिंह की तरह एक प्रतिशत सत्ता से बेदखल होने का रिस्क लेना उन्हें गंवारा नही हो रहा। आत्म विश्वास की यही कमी वजह है जिसने उन्हें व्यक्तिगत घृणा को अपने चुनावी भाषण का केंद्र बिंदु बनाने की ओर धकेला है और जिससे उन्माद की राजनीति पैदा हुई है।

आंकलन की क्षमता के विकास से परे जाती नौजवान पीढ़ी

यह उन्माद सबसे ज्यादा नौजवान पीढ़ी पर तारी है। जिनकी उम्र आंकलन करने की क्षमता का विकास करने की है उन्होंने पढ़ना और परख (आब्जर्व) करना बिसार दिया है। होना तो यह चाहिए कि वे जिस राजनीतिक मत और शख्सियत को उचित समझतें हों उसके आलोचकों को भी पढ़े और उनकी आलोचना की काट ढूढ़ने के लिए चिंतन करके उन्हें लाजबाव करें। लेकिन ऐसी मशक्कत उनके बस की बात नही है। इसलिए जानकारियों के अभाव में वे अपने पक्ष को जायज ठहराने के लिए सिर्फ गालियां दे पाते हैं। जिनके खानदान भर में किसी ने एक मच्छर भी नही मारा वह निहायत कायर जमात सोशल मीडिया पर ऐसे ऐलान करती है जैसे तालिबान के अवतार हों।

रचनात्मक अभियानों को राजनीति में लगा विराम

इस घटाटोप में चुनाव के समय सामने आने वाले रचनात्मक अभियानों की गुंजाइश समाप्त हो गई है। जनता पार्टी का संपूर्ण क्रांति युग हो या संयुक्त मार्चा-वाम मोर्चा का न्यूनतम साझा कार्यक्रम इसकी झलक देते थे। जिसमें राजनीतिक सुधार, चुनाव सुधार, मौलिक क्षेत्रों तक समाज के अंतिम आदमी की पहुंच सुनिश्चित करना, मेहनतकश वर्ग की जीविका और सम्मान की सुरक्षा के संकल्प शामिल होते थे। अपनी सरकार को भी इन मुददों पर चैन से न बैठने देने के लिए युवा बिग्रेड सजग रहती थी।

राजनीति और समाज में आज परंपरागत कुरीतियों के साथ-साथ नई कुरीतियां सामने आ रही है। क्या उनके लिए कोई विमर्श और कार्यक्रम सामने लाये जा रहे हैं।

जनादेश कैसा भी हो देश रहेगा सलामत

जनादेश चाहे मौजूदा सरकार को बनाये रखने के पक्ष में आये या दूसरी सरकार का राजतिलक करने का। देश में कोई भूचाल आने वाला नही है यह भरोसा रखा जाना चाहिए कि व्यवस्था निर्माण एक सतत प्रक्रिया है और फिलहाल देश का सिस्टम इतना मजबूत हो चुका है कि इसमें कोई ऐसी रुकावट आने वाली नही है जिससे देश में बड़ा उलट-पुलट होने की चिंता से दुबला हुआ जाये।

(लेखक स्‍वतंत्र पत्रकार हैं, लेख उनका निजी विचार है)

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