Sunday - 7 January 2024 - 12:58 AM

डंके की चोट पर : हर स्याह-सफ़ेद का नतीजा इसी दुनिया में मिल जाता है सरकार

शबाहत हुसैन विजेता

सरकार, कई बार समझाया आपको मगर आप एक कान से सुनते रहे और दूसरे से निकालते रहे. पिछले पांच साल में आपको कई बार बताया था कि एक्जाम की तैयारी लगातार करनी पड़ती है. जो बच्चा पढ़ाई के दिनों में क्लास अटेंड नहीं करता है. पढ़ाई के वक्त में घूमता है, फ़िल्में देखता है. मेलों में जाता है और नाच-गानों में लगा रहता है वह अच्छे नम्बरों से एक्जाम पास नहीं कर पाता है. एक्जाम सर पर आ जाता है तो वह नक़ल की पर्चियां बनाने लगता है, मगर वह यह नहीं जानता है कि नक़ल के लिए भी अकल की ज़रूरत पड़ती है. वह जेब से पर्ची निकालता है और पकड़ा जाता है. ज़रा से गलती में उसका साल खराब हो जाता है.

जनता ने आपको सरकार बनाया था. जनता ने आपको ताकत दी थी. जनता ने आपके हाथों में अपनी किस्मत रख दी थी मगर आप तो खुद को मालिक समझने लगे थे. आपको लगता था कि पांच साल कभी पूरे ही नहीं होंगे. आपको लगता था कि जनता को जितना कुचलकर रखा जायेगा यह उतनी ही औकात में रहेगी.

पांच साल तक हिन्दू-मुसलमान, पाकिस्तान-अफगानिस्तान, जिन्ना, मदरसा और हिजाब की बातें करते रहे. जनता ने आवाज़ उठाई तो उसे कुचलने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा दी. जनता पर मुकदमा दायर करने का मन किया तो खुद ही पुलिस बन गए, जनता को सज़ा देने का मन किया तो खुद ही जज बन गए. जनता को मार डालने का मन किया तो खुद ही जल्लाद बन गए.

अब एक्जाम का दौर आ गया है. परीक्षाएं चल रही हैं. पांच साल तक काम के नाम पर जो उछलकूद की है उसकी वजह से अपना भाषण सुनवाने के लिए पड़ोसी राज्यों से भीड़ लाने को मजबूर होना पड़ रहा है. चुनावी रैलियों में सन्नाटा देखकर मंच पर ही सब्र का बाँध टूटा जा रहा है और प्रत्याशियों को उल्टी-सीधी सुनानी पड़ रही हैं.

पांच साल काम किया होता तो एक्जाम में डर नहीं लग रहा होता. अपने कामकाज का ब्यौरा लेकर जनता की अदालत में खड़े हो जाते तो विपक्षी हाथ मलते रह जाते. सरकार अच्छी होती है तो वह बगैर मेहनत के फिर से आ जाती है. इसके बहुत से उदाहरण हैं. पश्चिम बंगाल में ज्योति बसु की सरकार याद है. वह 1977 में मुख्यमंत्री बने थे. 23 साल तक मुख्यमंत्री रहने के बाद उन्होंने अपनी बढ़ती उम्र की वजह से खुद ही पद छोड़ दिया था और बुद्धदेव भट्टाचार्य को मुख्यमंत्री बनवा दिया था. वह भी 2011 तक मुख्यमंत्री बने रहे.

आज़ादी के बाद जवाहर लाल नेहरू देश के पहले प्रधानमन्त्री बने थे. वह 17 साल तक प्रधानमन्त्री बने रहे. प्रधानमन्त्री रहते हुए ही उनका निधन हो गया. इन्दिरा गांधी की सरकार इमरजेंसी की वजह से गिरी थी लेकिन ढाई साल के बाद ही उनकी वापसी हो गई थी. उन्हें भी उनके जीते जी कोई हटा नहीं पाया.

विश्वनाथ प्रताप सिंह बोफोर्स दलाली का झूठा आरोप लगाकर प्रधानमन्त्री की कुर्सी तक पहुंचे थे लेकिन वह अपना लगाया आरोप साबित नहीं कर पाए तो न सिर्फ उन्हें कुर्सी छोड़नी पड़ी बल्कि इतने कम वक्त में ही लोग उन्हें भूलने लगे हैं. राजनीति में ईमानदारी का पर्याय माने जाने वाले विश्वनाथ प्रताप सिंह के बारे में यह कहा जाता था कि कोई भी पद उनके लिए मायने नहीं रखता लेकिन प्रधानमन्त्री की कुर्सी पर चिपके रहने के लिए उन्होंने मंडल कमीशन लागू कर बड़ी संख्या में नौजवानों की बलि ले ली थी. सोचिये सरकार आज कहाँ है विश्वनाथ प्रताप सिंह.

आप भले ही एक्जाम दे रहे हैं मगर हकीकत में सरकार का ताज अभी भी आपके ही सर पर है मगर सोचिये कि क्या वजह है कि आपकी रैलियों में लगाईं गई कुर्सियां भी नहीं भर पा रही हैं. सोचिये कि आपको सहारनपुर रैली के लिए हरियाणा से 300 बसें भरकर क्यों मंगवानी पड़ीं. एक तो आपने अपनी रैली में भीड़ दिखाने के लिए पड़ोसी राज्य के लोगों को बुलवाया तो दूसरी तरफ आपने उन बसों का डीज़ल और टोल का 31 लाख रुपया भी नहीं दिया. नतीजा सामने है. अपनी जेब से पैसा लगाकर भीड़ लाने वाले बस संचालकों ने आपकी इज्जत का जनाज़ा निकाल दिया.

एक जगह की भीड़ दूसरी जगह पहली बार नहीं बुलाई गई. ऐसा पिछले कई साल से होता रहा है. बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती यह प्रयोग खूब करती थीं. उनकी लखनऊ रैली में इतनी भीड़ उमड़ी थी कि रैली के बाद भीड़ का रैला सड़कों से गुज़रा तो लोगों ने एक दूसरे को रौंद दिया था. लखनऊ के चारबाग स्टेशन पर बने पुल पर बड़ी संख्या में लोगों की जान चली गई थी.

सरकार बनाने के बाद जनहित के काम में जुट जाने वाली सरकारों को वोटों के ध्रुवीकरण के बारे में नहीं सोचना पड़ता है. ऐसी सरकारें किसी वजह से गिर भी जाती हैं तो उनकी वापसी हो जाती है लेकिन जो सरकारें अपनी ही जनता के बीच विभाजन करती हैं. जो नफरत की फसल उगाती हैं. जो धर्म का राजनीति में घालमेल करती हैं. जो सरकारें खुद ही क़ानून व्यवस्था की धज्जियां उड़ाती हैं. जो सरकारें अपने दल के गुंडों को प्रश्रय देती हैं. जो सरकारें न्यायपालिका की अहमियत पर धब्बा लगाने का काम करती हैं. जो सरकारें विपक्ष का हौंसला तोड़ने के लिए किसी भी हद तक चली जाती हैं. उनका वही हाल होता है जो आपको आइना देखने में नज़र आएगा.

इससे ज्यादा शर्म की बात क्या होगी कि प्रधानमन्त्री की रैली में भीड़ जुटाने के लिए पड़ोसी राज्यों की तरफ नज़र दौड़ानी पड़े. पड़ोसी राज्यों से भीड़ लाने के बाद भी रैली में जो हालत बनी उतनी भीड़ तो चौधरी चरण सिंह के पीछे ऐसे ही दौड़ी चली जाती थी.

हर स्याह-सफ़ेद का नतीजा इसी दुनिया में नज़र आ जाता है सरकार. याद कीजिये. कोरोना महामारी शुरू होने के बाद बड़ी संख्या में पैदल लौटते मजदूरों को घर पहुंचाने के लिए कांग्रेस पार्टी ने एक हज़ार बसें नोयडा में खड़ी कर दी थीं लेकिन आप मुफ्त में मिली उस सुविधा को अपनी बेइज्जती समझ रहे थे. आप उन बसों के कागज़ जांचने लगे थे. आपने उन बसों का इस्तेमाल नहीं किया था. न खुद सरकारी बसों से मजदूरों को भेजा और न ही उन बसों का इस्तेमाल किया. चुनाव आया तो आपको हरियाणा से 300 बसों में भरकर भीड़ बुलानी पड़ी और उन बसों का किराया दे पाने की हैसियत में भी आप नहीं हैं.

बकरी और भैंस चोरी के मुक़दमे में उत्तर प्रदेश का कैबिनेट मंत्री जेल काट रहा है और थार के पहियों के नीचे इंसानों को कुचलकर मार डालने वाला केन्द्रीय मंत्री का बेटा ज़मानत हासिल कर ले रहा है. सरकारें तो बहुत आयीं, बहुत आयेंगी मगर क़ानून को अपने हिसाब से इस्तेमाल करने वाली सरकार का रिकार्ड आपके ही नाम रहेगा.

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