Wednesday - 10 January 2024 - 9:18 AM

सवाल क्या का ही नहीं, कैसे का भी है?

डॉ. श्रीश पाठक

अंग्रेज वो लोग हैं जो यूरोप में देश जर्मनी का उभरना और उनकी ज्यादतियों को महज इसलिए बर्दाश्त करते रहे ताकि फ्रांस की शक्ति को लगातार संतुलित किया जा सके, उन्हें भारत देश की अति महत्वपूर्ण भूराजनीतिक स्थिति का अंदाजा था, वे जानते थे कि तीन तरह से सागरीय सीमा जहाँ भारत को विश्व के अधिकांश प्रमुख व्यापारिक जल मार्गों की उपलब्धता देता है।

वहीं, इसकी स्थल सीमाएँ पश्चिम एशिया, मध्य एशिया एवं दक्षिण पूर्व एशिया को भी देश से बेहतरीन ढंग से जोड़ती हैं। यह भौगोलिक-सामरिक स्थिति देश भारत को जल्द ही विश्व का एक प्रमुख शक्ति बना सकती थी और इससे वैश्विक शक्ति संतुलन में ब्रिटेन को इससे दो-चार होना पड़ सकता था।

अपने लगभग ढाई सौ साल के दारुण औपनिवेशिक अनुभव में ब्रिटिश भारत और रियासतों को मिलाकर एक आधुनिक भारत राष्ट्र की तस्वीर मुकम्मल हो रही थी कि आजादी देने के साथ अंग्रेजों ने भारतीय स्वाधीनता ऐक्ट के साथ लगभग 562 रियासतों को भी यह अधिकार दिया कि वे चाहें तो स्वतंत्र रहें या भारत अथवा पाकिस्तान में विलय कर लें। आजादी के साथ ही धर्म के आधार पर देश का बंटवारा हुआ।

सभी जानते हैं कि जम्मू एवं कश्मीर के राजा हरि सिंह मुस्लिमबहुल राज्य के राजा थे और उन्होंने स्वतंत्र रहने की ठानी थी। पाकिस्तान प्रायोजित कबीलाई हमले के बाद उन्होंने इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेसन पर हस्ताक्षर किया और फिर पटेल साहब ने इंडियन आर्मी भेजी।

 

इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेसन पर हस्ताक्षर होने से इसमें कोई संशय नहीं रह गया कि जम्मू एवं कश्मीर भारत संघ का अंग है, पर मुद्दा विवादित ही रहा। इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेसन वह परिपत्र है जिसमें वह शर्तें लिखी होती हैं जिनके आधार पर कोई क्षेत्र, भारत संघ में अपने विलय के लिए सहमति प्रदान करता है, इन शर्तों पर दोनों पक्ष सहमत होते हैं। बाद में इसी सहमति पत्र के शर्तों को संविधानिक रूप देते हुए इन्हें भारतीय संविधान में धारा 370 के रूप में समायोजित किया गया।

यह एक तरह का आश्वासन उपागम था जो भारत संघ की तरफ से जम्मू एवं कश्मीर के बाशिंदों से किया गया था। धारा 370 को ड्राफ़्ट करने का अनुरोध पहले तो डॉ. अम्बेडकर से किया गया, जिन्होंने मना कर दिया। फिर राजा हरिसिंह के दीवान रहे गोपालस्वामी अयंगर ने यह जिम्मेदारी ली। परस्पर विश्वास व राष्ट्रगत नैतिकता को व्यक्त करने के लिए यह धारा जरूरी मानी गई। रक्षा, विदेशी मामले व दूरसंचार के कुल मिलाकर 31 विषयों तक ही भारतीय संसद यहाँ कानून बना सकती थी।

1954 में राष्ट्रपति अनुदेश के माध्यम से 35 A की व्यवस्था की गयी जो जम्मू एवं कश्मीर विधानसभा को लेकर प्रावधान करता है कि वह राज्य में स्थायी निवासियों को पारभाषित कर सके। एक ऐसे माहौल में जबकि पाकिस्तान सभी विश्व मंचों से भारत में कश्मीर के विलय को धोखा कह रहा था, इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेसन को मानने को तैयार नहीं था, तत्कालीन वैश्विक राजनीतिक व्यवस्था में ब्रिटेन का विरासत सम्हालने वाला अमेरीका, पाकिस्तान के पक्ष में झुका हुआ था ऐसे में 35 A की व्यवस्था भी परस्पर जम्मू एवं कश्मीर के निवासियों को और अधिक पारस्परिक विश्वास प्रदान करने के लिए की गई थी।

इसी राष्ट्रपति अनुदेश में लगातार संशोधन करते हुए यों तो धारा 370 अपने मूल रूप से खासा बदल चुकी थी और यह धारा बस नाम मात्र को ही रह गई थी पर अभी भी देश के बाकी राज्यों के मुकाबले यह कुछ ऐसे द्रष्टव्य अन्तर उपस्थित करता था जो कि इसे कइयों की आँख की किरकिरी बनाता था । धारा 370 को हटाने के लिए जम्मू एवं कश्मीर की संवैधानिक सभा की अनुमति अनिवार्य थी लेकिन 1956 में जम्मू एवं कश्मीर का एक अलग संविधान बनाकर यह सभा समाप्त हो गई।

सुप्रीम कोर्ट का हाल तक यही पक्ष रहा है कि धारा 370 एक स्थायी व्यवस्था है। यदि संविधान सभा के विकल्प के रूप में विधान सभा को मान भी लें तो इस समय जम्मू एवं कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लागू है और राज्यपाल, राज्य का प्रतिनिधित्व करता अवश्य है लेकिन होता वह केंद्र सरकार का ही प्रतिनिधि है। यह समझना होगा कि धारा 370 का महत्व विधिक से अधिक राजनीतिक एवं ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में है।

विश्वास एवं पारस्परिकता की यही वह कड़ी है जिससे जम्मू एवं कश्मीर के विलय को हम भारत के लोग न्यायोचित रूप से स्थापित करते हैं। होना तो यह चाहिए था कि आजादी के बाद ऐसी सरकारें आतीं जो जम्मू एवं कश्मीर राज्य में विश्वास एवं पारस्परिकता को अपने निर्णयों से इस स्तर पर ले जातीं कि जम्मू एवं कश्मीर से स्वतः ही यह आवाज आती कि उन्हें अब इस धारा 370 की आवश्यकता नहीं है। लेकिन यहाँ यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि भारत-पाकिस्तान के बीच होते प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष युद्धों एवं फिर आतंकवाद के वैश्विक होते जाने की परिघटना में जम्मू एवं कश्मीर के साथ यकीनन इस विश्वास एवं पारस्परिकता में गुणात्मक वृद्धि करना कत्तई आसान नहीं था।

इससे बेहतर और कुछ नहीं हो सकता कि भारत के सभी राज्य समान रूप से भारत से जुड़ें और राष्ट्र की अस्मिता अक्षुण्ण रहे। लेकिन इसका आधार पारदर्शिता, पारस्परिकता एवं लोकतांत्रिक मूल्य होने चाहिए। अगर इसका आधार राष्ट्रपति शासन, राष्ट्रपति अनुदेश और भारी सुरक्षा बलों की तैनाती होगा तो यकीनन यह भारतीय लोकतंत्र के लिए दूरगामी स्तर पर स्थायी कैसे होगा? कहाँ तो जम्मू एवं कश्मीर के लोगों को विशेष राज्य का दर्जा दिया हुआ था और कहाँ तो उनके नेताओं को नजरबंद कर दिया गया, उनकी विधान सभा को विश्वास में ही नहीं लिया गया क्योंकि राष्ट्रपति शासन में वह मौजूद ही नहीं थी!

ऐसा नहीं है कि यह प्रश्न अब केवल भारत के भीतर से ही उठेंगे, वैश्विक राजनीति में भी इन प्रश्नों पर चर्चा होगी। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के सदस्यों को भारत के अधिकारियों ने इस सन्दर्भ में जानकारी भी दी है। भारत ने जैसे भी लिया अब उसने आज एक ऐसा पक्ष ले लिया है कि वहाँ से पीछे हटना मुमकिन नहीं है, अब यही भारत का आधिकारिक पक्ष है। अब इसी आधिकारिक पक्ष के साथ वैश्विक राजनीति में पाकिस्तान के साथ भी निबटना होगा।

इस वक़्त पाकिस्तान के पक्ष में अफगानिस्तान पहलू की वज़ह से थोड़ा अमेरीका भी है और रूस एवं चीन तो हैं ही पाकिस्तान के पक्ष में। चीन और रूस तो वीटो लिए बैठे हैं सुरक्षा परिषद में। यह इतना आसान तो मामला नहीं ही होने जा रहा है। खबर है कि पाकिस्तान ने अपने दोनों सदनों की संयुक्त बैठक भी बुलायी है।

बड़ी आपत्ति यह नहीं है कि धारा 370, 35 A क्यों हटाए गए, इन्हें तो भारतीय आधुनिक इतिहास के सभी प्रमुख राजनीतिक व्यक्तित्व हटाने में ही विश्वास करते थे लेकिन लोकतांत्रिक रीति से और ऐसे कि इसमें जम्मू एवं कश्मीर के निवासियों की मंशा झलके। आपत्ति यही है कि यह नहीं हुआ। यह जैसे हुआ ऐसे हमारे महान राष्ट्र भारत ने 1947 में जम्मू एवं कश्मीर के निवासियों से वादा नहीं किया था।

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अभी कितने ही हड़बड़ाये कश्मीरी व्यापारी और विद्यार्थी हैं जो देश के कोने कोने में हैं और उनका संपर्क सहसा अपने परिवार जनों से फोन, इन्टरनेट आदि किसी भी माध्यम से कट गया है और वे यह भी नहीं जानते कि अभी उनके परिवार जन किन हालातों में हैं और उनके परिवार जन इनके बारे में नहीं जानते कि ये कैसे हैं।

कुछ मेरे विद्यार्थी भी हैं कश्मीरी जो बदहवास हैं, उन्हें नहीं पता कि किस पल क्या होगा, उन्हें संपर्क न होने की स्थिति में आर्थिक दिक्कतें भी हो सकती हैं; यह जो स्थिति है, यूँ धारा 370 को नहीं हटाना था, इसे यूँ हटाना था जब इनके चेहरों पर भी उतनी ही रौनक होती और उतनी ही मुस्कराहट होती जैसे आज बाकी देशवासियों के चेहरे पर सम्भवतः है।

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