Saturday - 20 January 2024 - 4:24 PM

डंके की चोट पर : गरीब की याददाश्त बहुत तेज़ होती है सरकार

शबाहत हुसैन विजेता

हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए.

आज यह दीवार पर्दों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए.

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए.

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए.

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए.

दुष्यंत का यह दर्द इन दिनों मुल्क की सड़कों पर कराहता हुआ नज़र आ रहा है. शायर के कलाम पर जब कोई आर्टिस्ट स्केच बना देता है तो वह कलाम और भी ताकतवर हो जाता है. जब कोई उसे अपनी आवाज़ से सजा देता है तो वह लोगों की धड़कन बन जाता है.

दुष्यंत ने पचास साल पहले इसे जिस भी सोच के साथ लिखा हो लेकिन आज वक्त के साज़ पर तारकोल की गर्म सड़कों पर गुज़रती आवाम अपने ठंडे आंसुओं के ज़रिये जिस तरह इसे गा रही है, उसे देखकर महसूस होता है जैसे कि शायर जब कागज़ और कलम के साथ बैठा था तब वह पचास साल बाद के हालात को बिलकुल वैसे ही देख रहा था जैसे कि अब होता दिखाई दे रहा है :- “हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर हर गाँव में, हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए”.

मजदूर कितना मजबूर लफ्ज़ है यह. जो सबके लिए घर बनाता है उसका कोई घर नहीं होता. जो सबके लिए सड़क बनाता है उसके लिए कोई सड़क नहीं होती.

काम खत्म तो निकलो घर से, जिस घर की दीवारें संवारीं, जिन दीवारों पर मज़बूत छत ढाली, उनसे खुद का कोई रिश्ता नहीं होता. वह सड़क बनाता है, सबके लिए लेकिन खुद उस पर जब चाहे तब गुज़र नहीं सकता. जब वह गुज़रना चाहेगा तब उसे पुलिस की लाठियों का सामना भी करना पड़ सकता है.

मुल्क महामारी के साथ जीना सीख रहा है तो हर दरवाज़ा बंद कर दिया गया है. दरवाज़ा बंद है मतलब मजदूर को दस्तक की इजाजत नहीं है. दरवाज़े के भीतर वह घुसेगा नहीं तो अपनी मेहनत बेचेगा कहाँ. मेहनत बिकेगी नहीं तो रोटी खरीदने का इंतजाम भी तो नहीं हो पाएगा.

इसी रोटी की खातिर ही तो अपना घर छोड़कर आया था. इसी रोटी की खातिर ही तो पराये शहर को अपनाया था. जब रोटी नहीं है, घर नहीं है, सड़क नहीं है तो अपना घर पुकारता सुनाई देता है. इस पुकार को वह अनसुना नहीं कर पाता. घर जाना है तो बस नहीं है, ट्रेन नहीं है.

वह दिल मज़बूत करता है, सड़क पर आता है. पैदल ही शुरू कर देता है सफ़र. लोग बताते हैं कि बहुत दूर है. नहीं जा पाओगे. वह स्कूल नहीं गया है. उसके पास कोई डिग्री नहीं है लेकिन इतनी गणित तो जानता है कि उसका हर कदम उसके घर को उससे डेढ़ फिट करीब ले आता है.

जेब खाली है. पेट में कुछ नहीं है. फिर भी वह बढ़ता जाता है क्योंकि इस उम्मीद में बहुत ताकत होती है कि अपने आँगन में पहुँच जाएगा तो जी जाएगा.

मजदूर का हर कदम घर को करीब लाता है लेकिन उसकी चप्पल को कमज़ोर भी करता जाता है. चप्पल घिसती जाती है, टूट जाती है. पैर की खाल गर्म सड़क पर वैसे ही सिक जाती है जैसे तवे पर रोटी. फिर खाल भी पैर को छोड़ने लगती है. गर्म सड़क पर उसके पाँव की लाल-लाल छाप उभरने लगती है. मगर वह बढ़ता जाता है. रुकता नहीं है, क्योंकि कोई रोकने वाला ही नहीं है. कोई आसरा देने वाला ही नहीं है.

मजदूर चलते-चलते थक जाता है मगर भीतर की थकान को डांट देता है क्योंकि वह जानता है कि वह अपने घर जा रहा है, कोई इन्कलाब लाने नहीं जा रहा है. वह जानता है कि जिन अट्टालिकाओं के बीच से वह गुज़र रहा है वह उसी ने बनाई हैं. घर पहुँच गया और साँसें बची रह गईं तो आगे भी बनाएगा. नहीं बच सका तो उसका छोड़ा हुआ अधूरा काम उसके बच्चे पूरा करेंगे.

बच्चे मजदूर के बराबर अकल नहीं रखते हैं इसीलिये तो थक जाते हैं तो रोना शुरू कर देते हैं. माँ उसे पहियों वाले ब्रीफकेस पर लिटा देती है और ब्रीफकेस खींचने लगती है, बच्चा खुश हो जाता है. बगैर चले ही उसका सफ़र जारी है. शायद कहानी का यही वो सीन था जिसके लिए दुष्यंत ने लिखा था कि “वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता, मैं बेकरार हूँ आवाज़ में असर के लिए”.

 

 

 

मगर अफ़सोस इस आवाज़ में भी असर पैदा नहीं हो पाया. आगरा के डीएम साहब ने कहा कि मैं भी छोटा था तो ब्रीफकेस पर ऐसे ही लेट जाता था और माँ उसे खींचती थी. मन होता है कि पूछूं कि क्या तुम्हारे दौर में भी पूरा मुल्क सड़क पर से ऐसे ही गुजर गया था. तुम्हारे दौर में भी तारकोल की सड़क पर खून के पाँव छप गए थे. तुम्हारे दौर में भी रेल की पटरियों पर पड़ी रोटियों पर खून के छींटे थे.

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मुल्क के सबसे बड़े सूबे का वज़ीर मजदूरों को चोर-डकैत बताता है. एक नौजवान लीडर सड़क पर बैठकर मजदूरों का मिजाज़ पूछ लेता है और उन्हें घर भेजने का इंतजाम कर देता है तो मुल्क का वह वजीर जो 20 लाख करोड़ के खर्च का तरीका बताता है वह नौजवान लीडर ने जो किया उसे नौटंकी बता देता है.

मुल्क अजीब सी बेहिसी से गुज़र रहा है. लाखों करोड़ बांटने का एलान हो रहा है मगर मजदूर की ट्रेन का इंतजाम नहीं हो रहा. मजदूर को सड़क पर पैदल न चलने की राय दी जा रही है मगर वह तारीख नहीं बताई जा रही जब उन्हें ले जाने वाली गाड़ी सड़क पर उतरेगी. लिखा पढ़ी में जिन मजदूरों को इज्जत देने की बात की जा रही है उन्हें लाठियों से पीटा जा रहा है.

सड़कों को अपने क़दमों से नापता मजदूर जानता है कि उसने घर बनाए जो उसके नहीं हैं. उसने सड़कें बनाईं जो उसकी नहीं हैं. मगर अब जब वह खुद मुसीबतों के पहाड़ पर सवार हो गया है तब यह भी समझने लगा है कि जिसे वोट देकर कुर्सी पर बिठाया था वह सरकार भी मेरी नहीं है.

सरकार के लिए समझने का यही सबसे मुनासिब वक्त है. मजदूर को यह भरोसा होने लगा है कि सरकार बहुत बड़ी चीज़ होती है. सरकार उन अट्टालिकाओं से भी ऊंची है जो उसने खुद खड़ी की हैं.

ब्रीफकेस पर सोता हुआ बच्चा अपने घर पहुंचकर जाग जाएगा. अपना पेट भरकर वह आराम से सो जाएगा. अगले दिन सोकर उठेगा तो उस परेशानी को भूल जाएगा जो उसे खींचते हुए उसकी माँ ने उठाई थी मगर जो मजदूर सड़कों पर अपने खून से पाँव के निशान बनाता हुआ घर पहुंचेगा वह कभी भूल नहीं पायेगा. गरीब की याददाश्त बहुत तेज़ होती है सरकार.

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