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कॉरोना का उत्तर पक्ष : दुनिया का स्त्री बनना

रिपु सूदन सिंह

कोविद-19 के वायरस ने दुनिया के पुरुषवादी विस्तार पर एक रोक सा लगा दिया है। दुनिया नारीत्व और स्त्रीत्व की ओर बढ़ रही है। समूची दुनिया घर में आकर सिमट गई है। घर (होम ) एक ऐसी जगह है जहां इंसानी दुनिया अपना आकार लेती है। आज सभी को पनाह भी मिली है तो कहां? आज सारे होटल, हॉस्टल वीरान सा पड़ कर अस्पताल में तब्दील हो गए हैं।किसी को कोई ठौर नहीं, न ठिकाना, न मौज, न मस्ती, न घूमना, न फिरना, न सैर न सपाटा।

दुनिया की आधी आबादी आधी से थोड़ा ज्यादा पुरुषों की आबादी को जन्म देती है। नारी से ही उत्पन्न पुरुष जैसे ही अपने पैरों पर खड़ा होता उसका शेष जीवन उस नारी के वास्ते या उसके खिलाफ काम करने में लग जाता है। वह उसी नारी से ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा, वर्चस्व, उसके स्वामित्व और उसके मालिकाना हक में लगा देता है। वह एक नकारात्मक काम में अपने आपको उलझा देता है। वह अपने स्वामित्व के लिए अनेक प्रपंच करता है; कभी दाढ़ी बढ़ता, कभी बाल, कभी भगवा, कभी सफेद, कभी हरा , कभी काला लिबास पहनता। ढेर सारे पाखंड करता। वह इन्हीं लफ़डो में फसा रहता। दूसरी ओर सारे ताने बाने, जुल्म शिकसे, टॉर्चर इंसल्ट सहती नारी निर्बाध जीवन जीती रहती। बावजूद पुरुष के लड़को को लड़कियों से ज्यादा प्यार और हिफाजत करती। यही कारण है वह पुरुषों से ज्यादा जीती, उसमे एक अलग किस्म की अद्भुत की प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो जाती। वह हर उम्र में पुरुषों को सहारा देती। बीमारी और तंगी में भी चूल्हे की आग को जिंदा रखती।

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दूसरी ओर पुरुष में एक चंचलता है, अधीरता है, अस्थिरता है, बेचैनी है, विस्तार की प्रवृति है, संग्रह की होड़ है, एस्टेट्स और एंपायर बनाने की प्रवृति है। दूसरी ओर अपवाद छोड़कर एक आम नारी में चैन है, शांति है, मौन है, समर्पण है, त्याग है और वात्सल्य है। वह ठीक इस पृथ्वी की तरह ही है। कुछ बचाती भी है तो उसको देने के लिए। वह giver है, पुरुष taker है। वह सब कुछ देकर भी परिपूर्ण रहती, पुरुष सब कुछ लेकर भी भूखा और प्यासा।

गौर से देखें तो काम, क्रोध, लोभ, मद,अहंकार, प्रतिस्पर्धा, गुस्सा, घृणा नारी को पुरुषों से ही मिलता है। यह उसकी नैसर्गिक प्रवृति (natural tendency) नहीं है। वह खुद पुरुष बनने की होड़ में लग जाती है। पुरुष वर्चस्ववाद (men chauvanism) खुद एक सोशल कंस्ट्रक्शन (सामाजिक संकल्पना) है जिससे उस लंबी प्राकृतिक युग से निकली मनुष्यो की अबोध दुनिया परेशान और बेचैन हो जाती है। चारो ओर लड़ाई, झगड़े और युद्ध शुरू हो जाते। औरतें उन लड़ाइयों में लूट का माल बन जाती। २१ सदी तक में मध्य एशिया में फैथ और खलीफा की दुनिया की बात की जाती। शिकार होती औरतें।

अंततः वायरस को दुनिया के इस पुरुषपन के इस दमघोटू विस्तार और पागलपन को रोकने के लिए बाहर आना पड़ा। यह वायरस लिंगभेद से आजाद है। इसने तो जहां पुरुषवादी अहंकार पर विराम लगा दिया है, वहीं पर नारीवादी आंदोलनों और विचारों की प्रासंगिकता पर ही सवाल खड़े कर दिए है। पुरुष को जन्म देने वाली नारी पुरुषों से कमजोर दीन – हीन कैसे हो सकती? क्या कोई भी हमलावर या उपनेशवादी बिना स्थानीय जनता के सहयोग से उनको गुलाम बना सकता? क्या कोई भी पुरुष नारी के सहयोग के उसको गुलाम बना सकता, बिना उसकी मर्जी के उस पर अपना दावा ठोक सकता? इस वायरस ने तो दुनिया के तमाम आंदोलनों के सामने रोजी रोटी का सवाल खड़ा कर दिया। दान – अनुदान – जकातों पर फल फूल कर चलने वाले सारे आंदोलन की बैसाखी भी छीन जाएगी।

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यह वायरस समूची दुनिया को स्त्री मय बनाना चाहता, पर वह स्त्री को भी पुरुष मय बनने से रोकना चाह रहा। वह स्त्री की श्रेष्ठता को, उसके वर्चस्व और स्वामित्व के स्वाभाविक – नैसर्गिक (natural) क्षमता से उसे रूबरू करना चाह रहा है। उत्तर – कोरोना (post-corona) दुनिया स्त्रीत्व की दुनिया होगी। नारी सिर्फ मां होगी, वह पुरुष की स्वामिनी होगी, न की पुरुष उसका स्वामी। या फिर यह वायरस समूची दुनिया को अर्द्ध नारीश्वर बना कर ही जाएगा। अब कोई भी किसी औरत को शस्त्र और शास्त्र के आधार पर, किसी क्रॉस – होली बुक या आसमानी किताब और तलवार का बहाना बना कर उसे दासी, सिन का कैरियर या फिर लौंडिया बना कर नहीं रख सकता।

औरत जान गई है कि अब उसके लिए कोई पुरुष या पुरुषवादी ईश्वर – गॉड – खुदा या उनकी किताबें औरतों के लिए कानून नहीं बनाएगी। वह जान गई है कोई आसमान में बैठ कर किताब नहीं बनाता। उस आसमान को तो खबर नहीं कि इस जमीन पर पुरुष नाम का एक रेंगने वाला प्राणी है जो उस आसमान के नाम पर उस औरत को, जो उसकी खुद की भोली भाली मां है, बहन है, पत्नी है, दोस्त है, उसी को ही कंट्रोल करने, उसको अधिकारों से वंचित करने का काम कर रहा है। पुरुष अपने सारे गलत, ख़तरनाक इरादों को आसमान के नाम पर लागू किए जा रहा है।

आसमान भी लाचार सा हो गया है। आसमान तो तब और भी परेशान हो जाता जब औरतें ही सड़कों पर उतर कर कहती ये सब आसमानी या देवदूतों का फरमान है। वे अपने ही खिलाफ मोर्चा खोले हैं। आज और अब तो नारी उस स्त्रीत्व (womanhood) को जान गई है। वह खुद अपनी नैसर्गिक प्रवृत्तियों को पहचान कर अपने और पुरुषों समेत बाकी दुनिया के लिए कानून बनाएगी। अब ना कोई आकाशवाणी होगी, न कोई आसमानी फरमान आएगा। दुनिया की माएं अपनी और अपने कुल की नियंता और संचालक होगी। यह वायरस कुछ न कुछ तो जरूर करके जाएगा या फिर हमारी प्रतिरोधक क्षमता बन के हम में ही विलीन हो जाएगा।

(लेखक अंबेडकर केंद्रीय विश्वविदयालय, लखनऊ में राजनीति विज्ञान के आचार्य हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)

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