Monday - 8 January 2024 - 6:16 PM

टीएस सिंहदेव की मजबूत दावेदारी से धर्मसंकट में कांग्रेस हाईकमान

कृष्णमोहन झा 

आज से लगभग तीन वर्ष पूर्व संपन्न मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ विधानसभाओं के चुनावों में छत्तीसगढ़ एकमात्र ऐसा राज्य था जहां कांग्रेस की प्रचंड विजय ने डेढ़ दशकों से सत्तारूढ भाजपा को स्तब्ध कर दिया था। भाजपा को डेढ़ दशकों के बाद सत्ता से बाहर दिखाने में राज्य के जिन कद्दावर लोकप्रिय कांग्रेस नेताओ ने अहम भूमिका निभाई थी उनमें वर्तमान मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और वर्तमान स्वास्थ्य मंत्री टी एस सिंहदेव प्रमुख थे ।

कांग्रेस की प्रचंड विजय में उनकी अहम भूमिका ने दोनों कद्दावर नेताओं को मुख्यमंत्री पद का हकदार बना दिया था परन्तु आपसी सहमति के आधार पर पार्टी हाईकमान ने भूपेेश पटेल और टीएस सिंहदेव को ढाई ढाई साल के लिए मुख्यमंत्री पद की बागडोर संभालने का अवसर देने का फैसला किया।

यह एक अलिखित समझौता था जिसे दोनों लोकप्रिय नेताओं ने सहर्ष स्वीकार कर लिया । लगभग चार माह पूर्व जब भूपेश बघेल ने मुख्यमंत्री की कुर्सी पर अपना पूर्व निर्धारित ढाई सालों का कार्यकाल पूरा किया तो यह उम्मीद की जा रही थी कि वे स्वयं ही पदत्याग कर अगले ढाई सालों के लिए टीएस सिंहदेव की मुख्यमंत्री के रूप में ताजपोशी का मार्ग प्रशस्त करेंगे परंतु भूपेश बघेल ने ऐसी‌ कोई पहल करने के बजाय नई दिल्ली में पार्टी हाईकमान के सामने यह साबित करने में अधिक रुचि दिखाई कि पार्टी विधायकों का बहुमत उन्हें ही आगे भी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन देखना चाहता है।

इसके बाद लिए उनके समर्थक विधायकों के दिल्ली पहुंचने का सिलसिला शुरू हो गया जो किसी न किसी रूप में अभी तक जारी है। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का कहना है कि कांग्रेस विधायकों के दिल्ली प्रवास को उनके पक्ष में शक्ति प्रदर्शन के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए।

सभी विधायक अपने व्यक्तिगत कारणों से दिल्ली गए हैं और जैसे गए हैं वैसे वापस आ जाएंगे ।इस बीच दिल्ली में उन विधायकों की आपस में भेंट एक संयोग मात्र है। कांग्रेस हाईकमान से अगर उनकी सौजन्य भेंट होती भी है तो इसके कोई राजनीतिक निहितार्थ नहीं खोजे जाना चाहिए।

उधर स्वास्थ्य मंत्री टी एस सिंहदेव का कहना है कि राज्य के मुख्यमंत्री पद की बागडोर संभालने के लिए पार्टी हाईकमान ने तीन वर्ष पूर्व जो फार्मूला तय किया था उस पर उसने अपना फैसला सुरक्षित रखा है।

जाहिर सी बात है कि अगर टीएस सिंहदेव उस फार्मूले के आधार पर अब मुख्यमंत्री पद पर अपना स्वाभाविक दावा पेश कर रहे हैं तो उन्हें गलत नहीं ठहराया जा सकता। टीएस सिंहदेव की इस बात के लिए प्रशंसा की जानी चाहिए कि उन्होंने अभी तक अपनी ओर से पद की गरिमा और मर्यादा का पूरा सम्मान किया है। उनके इसी गुण ने उन्हें छत्तीसगढ़ के लोकप्रिय राजनेताओं में अग्रणी बनाया है।

वे हमेशा ही विवादों से दूर रहना पसन्द करते हैं इसीलिए वे कभी ऐसे बयान भी नहीं देते जिनसे विवादों के जन्म लेने की जरा सी भी आशंका हो। उल्लेखनीय है कि कुछ माह पूर्व राज्य के एक कांग्रेस विधायक ने जब यह आरोप लगाया था कि टीएस सिंहदेव के इशारे पर उन पर जानलेवा हमले की साज़िश रची गई तब इस आरोप से व्यथित होकर उन्होंने विधानसभा में यह घोषणा कर दी थी कि वे तब तक इस पवित्र सदन में नहीं लौटेंगे जब तक कि मुख्यमंत्री स्वयं इस बारे में सदन में आकर बयान नहीं देते।

स्वास्थ्य मंत्री की इस घोषणा से पूरी पार्टी में खलबली मच गई थी और पूर्व मुख्यमंत्री डा रमन सिंह ने कहा था कि जब सरकार के एक मंत्री को अपनी सरकार पर भरोसा नहीं है तो यह सरकार जनता का भरोसा कैसे कायम रख सकती है।

कांग्रेस हाईकमान के सामने अब यह धर्मसंकट है कि वह मीडिया में सुर्खियों का विषय बन चुके छत्तीसगढ़ सरकार पर आए इस संकट को कैसे दूर करे। पंजाब का मसला अभी तक पूरी तरह से सुलझ नहीं पाया था कि अब छत्तीसगढ़ का शोर‌ दिल्ली तक आ पहुंचा है जिसने कांग्रेस हाईकमान को चिंता में डाल दिया है।

फिलहाल कांग्रेस हाईकमान ने छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को अगले साल होने वाले उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनावों के लिए पार्टी का पर्यवेक्षक बना दिया है परंतु अभी तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि छत्तीसगढ़ के मसले को सुलझाने के लिए उसके पास कौन सा फार्मूला विचाराधीन है।

कांग्रेस के छत्तीसगढ़ प्रभारी पी एल पूनिया भले ही छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री बदले जाने की संभावनाओं से इंकार करें परंतु छत्तीसगढ़ का मसला तो उसे देर सबेर सुलझाना ही पड़ेगा और अगर वो। छत्तीसगढ़ में यथास्थिति कायम रखने का फैसला करती है तो भविष्य में कांग्रेस ‌‌‌‌‌की मुश्किलें बढ़ने की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता।

देश के जिन गिने चुने राज्यों में कांग्रेस पार्टी के पास सत्ता की बागडोर है उनमें शायद ही कोई राज्य ऐसा बचा होगा जहां पार्टी आपसी खींचतान का शिकार होने से बच पाई हो।

पंजाब, राजस्थान, मध्यप्रदेश ‌, छत्तीसगढ़ आदि राज्यों में कांग्रेस सरकारों ‌‌‌‌‌‌‌के गठन के कुछ महीनों के बाद ही खींच तान शुरू हो गई थी और इस खींच तान के कारण मध्यप्रदेश में तो सवा साल के अंदर ही वह सत्ता से हाथ धो बैठी इसके बाद उम्मीद तो यह की जा रही थी कि मध्यप्रदेश के घटना क्रम से सबक लेकर पार्टी दूसरे राज्यों में अपनी सरकारों में एकजुटता कायम करने में कोई कसर बाकी नहीं रखेगी परंतु पंजाब में पिछले दिनों कैप्टन अमरिंदर सिंह को मुख्यमंत्री की कुर्सी से हटाने का जो आत्मघाती फैसला पार्टी ने किया उससे यह साबित हो गया है कि पार्टी ने मध्यप्रदेश के घटना क्रम से कोई सबक नहीं लिया।

राजस्थानी,पंजाब और छत्तीसगढ़ ‌की कांग्रेस सरकारों के अंदर मची इस खींच तान ने पार्टी को ऐसी विकट स्थिति का सामना करने के लिए विवश कर दिया है कि उसे खुद ही समझ नहीं आ रहा है कि इस स्थिति से कैसे बाहर निकला जाए।

एक तरफ तो पंजाब में मुख्यमंत्री बदल देने के बाद भी पार्टी की‌‌ मुश्किलें कम होने का नाम नहीं ले रही हैं और दूसरी ओर अब छत्तीसगढ़ में भी सरकार के अंदर से ही मुख्यमंत्री बदलने की मांग उठने लगी है।

अगर पंजाब का इतिहास छत्तीसगढ़ में भी दोहराया जाता है तो फिर राजस्थान में भी सत्तारूढ़ कांग्रेस के अंदर उथल-पुथल की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता।

आश्चर्य जनक बात तो यह है कि कांग्रेस नेतृत्व को यह अहसास ही नहीं है कि कांग्रेस शासित राज्यों में पार्टी के अंदर मची इस खींच तान से न केवल पार्टी की छवि धूमिल हो रही है बल्कि उसके प्रति जनता का भरोसा भी दिनों दिन कम कम होता जा रहा है।

भाजपा पर हमेशा निशाना साधते वाली कांग्रेस पार्टी को यह ध्यान रखना चाहिए कि विगत कुछ माहों के अंदर ही भाजपा को भी देश के तीन राज्यों में अपनी सरकारों के मुख्यमंत्री बदलने पड़े परंतु उसने बड़ी चतुराई के साथ इस तरह सारी प्रक्रिया को अंजाम दे दिया कि वहां पार्टी की एकजुटता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा जबकि कांग्रेस शासित राज्यों में उठा बवंडर थमने का नाम ही नहीं ले रहा है।

इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि कांग्रेस में केंद्रीय नेतृत्व का पार्टी नेताओं पर कोई नियंत्रण नहीं है और यह स्थिति तब तक बनी रहेगी जबतक कि पार्टी अपना कोई पूर्णकालिक अध्यक्ष नहीं चुन लेती।

अचरज की बात यह है कि पार्टी के पास कोई पूर्णकालिक अध्यक्ष ने होते हुए भी दूरगामी महत्व के फैसले किए जा रहे हैं । ऐसे में वरिष्ठ कांग्रेस नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल का यह सवाल बिल्कुल जायज है कि जब पार्टी के पास कोई पूर्ण कालिक अध्यक्ष नहीं है तो इतने बड़े बड़े फैसले आखिर कौन कर रहा है।

कपिल सिब्बल की इस टिप्पणी के बाद कुछ कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने उनके घर के बाहर प्रदर्शन किया। दरअसल कपिल सिब्बल की इस टिप्पणी को कांग्रेस में गांधी परिवार के वर्चस्व को चुनौती के रूप में देखा गया इसलिए गांधी परिवार के प्रति वफादार कांग्रेस जनों को उनकी यह टिप्पणी नागवार गुजरी।

कांग्रेस पार्टी इस समय जिस भीषण अंतर्कलह से गुजर रही है उससे उन पार्टी नेताओ का चिंतित होना स्वाभाविक है जो हमेशा ही पार्टी के सिद्धांतों और मूल्यों के प्रति समर्पित रहे हैं।

इसलिए अगर पूर्व केंद्रीय मंत्री गुलाम नबी आजाद और सलमान खुर्शीद जैसे नेता यह मांग कर रहे हैं कि पार्टी को वर्तमान संकट से उबारने के लिए तत्काल कार्यसमिति की बैठक बुलाई जाना चाहिए तो उन्हें गलत कैसे ठहराया जा सकता है ।

वास्तव में कांग्रेस का हित चाहने वाले इन वरिष्ठ नेताओ की इस मांग को पार्टी में गांधी परिवार के वर्चस्व को चुनौती के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए।

कांग्रेस पार्टी का हित इसी में कि वह जल्द से जल्द अपना पूर्णकालिक अध्यक्ष चुन लें अन्यथा जनता के मन में यह धारणा पुख्ता होती जाएगी कि जिस पार्टी को आपसी खींचतान से फुरसत नहीं है वह केंद्र की लोकप्रिय सरकार की मुखिया भाजपा का मुकाबला करने की शक्ति कैसे जुटा पाएगी।

Radio_Prabhat
English

Powered by themekiller.com anime4online.com animextoon.com apk4phone.com tengag.com moviekillers.com