Tuesday - 29 October 2024 - 12:51 AM

‘जंगलराज’ बन गया है एनडीए के चुनावी उम्मीद की डोर

कुमार भवेश चंद्र

बिहार में मंगलवार को दूसरे दौर के मतदान के साथ प्रदेश के वोटर अपने लिए नई सरकार चुनने की दिशा में एक और मजबूत बढ़ा देंगे। चुनावी बयार तेज है। बेरोजगारी दूर करने के तेजस्वी के 10 लाख वादे को लेकर बिहार में विचार मंथन तेज है।

सोशल मीडिया के साथ मीडिया का एक बहुत बड़ा तबका जो तस्वीर पेश कर रहा है उसके मुताबिक बेरोजगारी के मुद्दे पर बिहार के नौजवानों की जाति धर्म से ऊपर उठकर गोलबंदी लगभग तय मानी जा रही है।

तेजस्वी समर्थकों का तर्क है कि लालू के सामाजिक न्याय के बाद तेजस्वी ने आर्थिक न्याय के मुद्दे को गर्म कर दिया है। पढ़ाई, कमाई, दवाई और सिंचाई के साथ बिहार एकजुट होने लगा है।

जंगलराज’ केवल चुनावी स्टंट या हकीकत

लेकिन यह इस चुनावी तस्वीर का एक पहलू है। इसके इतर बिहार में वोटर एक दूसरे पहलू की ओर भी इशारा करने लगे हैं। चुनावी सभाओं में नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार लगातार बिहार में जंगलराज की वापसी का खौंफ दिखा रहे हैं। नरेंद्र मोदी तो तेजस्वी को ‘जंगलराज का युवराज’ भी बता चुके हैं।

इसे एनडीए का महज चुनावी स्टंट इसलिए नहीं माना जा सकता क्योंकि आरजेडी सरकार के कार्यकाल को लेकर पटना हाई कोर्ट ने किसी समय ‘जंगलराज’ कहकर टिप्पणी की थी। बिहार ने आपराधिक अराजकता का वह दौर देखा है।

 

अपहरण गृह उद्योग की तरह पांव पसार चुका था। बिहार में व्यापारी वर्ग और भारी कमाई करने वाले चिकित्सक वर्ग इसका सर्वाधिक शिकार हुआ था। 90 का दशक और सदी के शुरुआती कुछ सालों में व्यापारी वर्ग और डाक्टरों का पलायन किसी से छुपा नहीं है।

पटना के संस्कृतिकर्मी-लेखक-पत्रकार ध्रुव कुमार कहते हैं कि यह सच है कि नई पीढ़ी के वोटर उस जंगलराज के बारे में कुछ अधिक नहीं जानते। लेकिन यह एक सच्चाई है कि आपराधिक माहौल के कारण बिहार में बेटियों का पढ़ाई लिखाई प्रभावित हुई है। शहर से लेकर गांवों तक में लोगों की सुरक्षा एक बड़ा सवाल थी। शाम में जल्दी घर लौटने की हिदायत केवल बेटियों के लिए नहीं बेटों के लिए भी रहती थी।

एनडीए को इस मुद्दे पर सबसे अधिक भरोसा

यह बात भी सही है कि तेजस्वी के चुनावी चक्रव्यूह में फंसे नीतीश कुमार के लिए ‘जंगलराज’ एक उम्मीद की तरह है। अपने विरोधी के लिए जीत को मुश्किल बनाने के लिए उनके पास यही अचूक वाण की तरह है। इसीलिए वे अपनी रैलियों में जितनी बातें अपने काम को लेकर करते हैं उससे अधिक जंगलराज की चर्चा करते हैं।

वे इस विक्टिम कार्ड के जरिए तेजस्वी को आगे बढ़ने से कितना रोक पाएंगे यह भविष्य के गर्भ में है। लेकिन यह सवाल उठाकर उन्होंने तेजस्वी की धार को कमजोर करने के लिए पूरा जोर लगा दिया है। हालांकि उनसे ये सवाल जरूर पूछा जा रहा है कि तेजस्वी और उनकी पार्टी इतनी ही बुरी थी तो 2015 के चुनावों में उनके साथ समझौता क्यों किया था?

अपराध पर अंकुश लगाने में नीतीश भी हुए नाकाम

बिहार को 90 के दशक वाले ‘जंगलराज’ जैसे माहौल से भले ही मुक्ति मिल गई है लेकिन अपराध पर कारगर अंकुश लगाने में नीतीश भी पूरी तरह कामयाब नहीं हुए हैं। नीतीश के कार्यकाल में अपराध के आंकड़ों की तुलना लालू राज के अपराध के आंकड़ों से की जाने लगी है।

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नीतीश के कार्यकाल में भ्रष्टाचार पर भी उस तरह का अंकुश नहीं रह सका है। सृजन और चावल घोटाला जैसे उदाहरण नीतीश के लिए चुनावी मुश्किलें बढ़ा रहे हैं।

नीतीश के प्रति सियासी भरोसा भी टूटा

बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में नीतीश की छवि एक भरोसेमंद नेता की रही है। लोग उन्हें ऐसे रेलमंत्री के तौर पर भी याद करते हैं जिसने रेल दुर्घटना के बाद नैतिकता के आधार पर अपने पद से इस्तीफा दे दिया था। लेकिन वे लोग आज नीतीश को उस छवि से बाहर आते हुए देख रहे हैं। वे नीतीश को अपने चुनावी विरोधियों के लिए अनैतिक बात करते हुए देख रहे हैं।

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दरअसल नीतीश ने अपने तीसरे कार्यकाल में या कहें कि 2015 में आरजेडी के साथ समझौता कर चुनाव जीतने और फिर तेजस्वी पर आरोप लगाते हुए बीजेपी के साथ गलबहियां करने के बाद से अपना सियासी भरोसा खो दिया। देखा जाए तो वह आज के दौर में बीजेपी में भी बहुत भरोसेमंद साथी के रूप में नहीं देखे जा रहे हैं।

इसलिए उनकी लड़ाई एक तरफ तेजस्वी से है तो दूसरी अदृश्य लड़ाई वे बीजेपी से भी लड़ रहे हैं। चिराग पासवान के रूप में एक मायावी दुश्मन भी उनके सामने है, जिसकी दुरभि संधि उनके ही अपने गठबंधन के साथ है।

तीसरे कार्यकाल के पाप ले रहे नीतीश की परीक्षा

बिहार के वरिष्ठ पत्रकार और यू ट्यूब चैनल एचएस बिहार के प्रधान संपादक प्रवीण बागी कहते हैं, “नीतीश अपना बोया ही काट रहे हैं। इस बात से इनकार नहीं किया उनका पहला कार्यकाल सुनहरा रहा है। उन्होंने अपने काम की बदौलत, बिहार को कई संकटों से उबारने और सामाजिक न्याय की दिशा में कुछ उल्लेखनीय पहल करके अपनी राष्ट्रीय छवि बनाई।

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लेकिन उनका तीसरा कार्यकाल उनकी छवि के सुनहरी लकीरों को मिटाने वाला साबित हुआ। यही वजह है कि आज तेजस्वी उनके मुकाबले में दिख रहे हैं। हालांकि जमीनी सच्चाई यही है कि तेजस्वी नीतीश के मुकाबले बिहार का विकल्प बनने की योग्यता नहीं रखते।”

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