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कोरोना की तरह इसे कब गंभीरता से लेंगी सरकारें

प्रीति सिंह

इस समय दुनिया के अधिकांश देश कोरोना महामारी से जंग लड़ रहे हैं। कोरोना से लड़ाई में दुनिया को कारगर हथियार वैक्सीन मिल गई है जिसकी वजह से अब उम्मीद है कि जल्द ही दुनिया कोरोना पर विजय पा लेगी।

लेकिन दुनिया में कोरोना वायरस से खतरनाक कई ऐसी समस्याएं है जिनका कोई टीका नहीं है, जिसकी वजह से हर साल लाखों लोग अपनी जान गवां देते हैं। चूंकि यह समस्याएं विकास की अंधी दौड़ से जुउ़ी हैं इसलिए सरकारें इसे गंभीरता से नहीं ले रहीं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी आंकड़ों पर गौर करें तो दुनिया भर में वायु प्रदूषण हर वर्ष 70 लाख से भी ज्यादा लोगों की जान ले रहा है। वहीं यदि तय मानकों को देखें तो दुनिया की 91 प्रतिशत आबादी दूषित हवा में सांस लेने को मजबूर है, बावजूद इसके इस दिशा में कारगर कदम नहीं उठाया जा रहा है।

दुनिया भर के पर्यावरणविद और वैज्ञानिकों द्वारा चेतावनी के बाद भी हम नहीं सजग हो रहे हैं। दूषित हवा में सांस लेने की वजह से ह्रदय रोग, कैंसर, फेफड़ों से जुड़ी बीमारियों की वजह से लोग अपनी जान गवां रहे हैं।

बीते मंगलवार को वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम ने भी ऐसी ही एक रिपोर्ट प्रकाशित किया है जिसमें कहा गया है कि पर्यावरण से दुनिया को सबसे ज्यादा खतरा है।

अंतराष्ट्रीय जर्नल लांसेट प्लेनेटरी हेल्थ में प्रकाशित शोध में सामने आया है कि डब्ल्यूएचओ द्वारा वायु प्रदूषण के लिए जारी मानकों को हासिल कर लिया जाता है तो इसकी मदद से हर साल यूरोप में 51,213 लोगों की जान बचाई जा सकती है।

यदि वायु प्रदूषण को लेकर डब्लूएचओ द्वारा जारी मानकों को देखें तो उसके अनुसार अत्यंत महीन कणों (पीएम 2.5) की मात्रा प्रतिघन मीटर में 10 माइक्रोग्राम से ज्यादा नहीं होनी चाहिए। वहीं नाइट्रस ऑक्साइड (एनओ2) की मात्रा 40 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से कम होनी चाहिए। यदि वायु में इससे ज्यादा मात्रा में प्रदूषक हैं, तो वो स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं हैं।

वायु प्रदूषण से सबसे ज्यादा बेहाल शहर के लोग है और उसमें भी वह लोग ज्यादा प्रभावित हैं जो दो जूद की रोटी कमाने के लिए शहर आते हैं। शहरों में वायु प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण मोटर वाहन हैं और उसका सबसे ज्यादा नुकसान रिक्शा चालकों, दिहाड़ी मजदूरों और फुटपाथ पर अपनी रोजी-रोटी जुटाने को मजबूर गरीब महिलाओं और पुरुषों को उठाना पड़ता है। शहरों में रहने वाले एक बड़ा वर्ग को इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है।

चूंकि शहरों में आबादी का घनत्व और एनर्जी उपयोग ज्यादा होता है। ऐसे में शहर वायु प्रदूषण से होने वाली बीमारियों का अड्डा बन जाते हैं। डब्ल्यूएचओ का यह शोध भी यूरोप के शहरों पर केंद्रित है, जिसमें 1,000 से ज्यादा शहरों में वायु प्रदूषण और उससे होने वाली मौतों का अध्ययन किया गया है।

रिपोर्ट के अनुसार यूरोप में वायु गुणवत्ता में सुधार किया जाता है तो, असमय होने वाली 51,213 मौतों को रोक सकता है। वहीं इस शोध से जुड़े शोधकर्ताओं का कहना है कि यदि वायु गुणवत्ता के स्तर में उतना सुधार हो जाता है जितना यूरोप के सबसे साफ जगह की वायु गुणवत्ता है तो हर साल करीब 125,000 मौतों को टाला जा सकता है।

 

वायु प्रदूषण से होने वाली मौतों के बारे में जानने के लिए शोधकर्ताओं ने वायु प्रदूषण के मॉडल को मृत्यु दर के आंकड़ों के साथ जोड़कर देखा है। जहां होने वाली मृत्यु के आधार पर उन्हें अंक दिए हैं। फिर उन्हें सबसे बेहतर से सबसे बुरे के रूप में क्रमबद्ध किया है। इससे पता चला है कि वायु प्रदूषण से होने वाली मौतों के मामले में शहरों के बीच काफी असमानता है।

दूषित हवा में सांस ले रही हैं 84 फीसदी आबादी

बार्सिलोना इंस्टीट्यूट फॉर ग्लोबल हेल्थ से जुड़े मार्क नीवेनहुइजसेन का कहना है कि “यह शोध साबित करता है कि यूरोप के कई शहर अभी भी वायु प्रदूषण से निपटने के लिए पर्याप्त काम नहीं कर रहे हैं। ऐसे में जहां वायु गुणवत्ता डब्ल्यूएचओ द्वारा तय मानकों से ज्यादा है वो असमय होने वाली मौतों के मामले में भी आगे हैं। यदि औसत रूप से देखें तो जिन शहरों पर अध्ययन किया गया है, उनकी 84 फीसदी आबादी डब्ल्यूएचओ द्वारा पीएम2.5 के लिए तय मानकों से ज्यादा दूषित हवा में सांस ले रही है। जबकि 9 फीसदी एनओ2 के लिए तय मानकों से ज्यादा में रह रही है।

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इस शोध से जुड़े शोधकर्ता साशा खोमेन्को के मुताबिक ऐसे में स्थानीय स्तर पर उत्सर्जन में कमी करने के प्रयास करना जरुरी है, जिससे इन मौतों को टाला जा सके। इसके लिए निजी वाहनों के स्थान पर सामाजिक वाहनों को बढ़ावा देना जरुरी है। साथ ही उद्योंगों, हवाई अड्डों और बंदरगाहों से होने वाले उत्सर्जन को भी तुरंत कम करने की जरुरत है। उन्होंने मध्य यूरोप में घरों के अंदर लकड़ी और कोयले पर रोक को महत्वपूर्ण बताया है। साथ ही वायु प्रदूषण की रोकथाम के लिए शहरों में पेड़-पौधों और हरियाली को बढ़ाने का सुझाव भी दिया है।

भारत में भी 16 लाख से अधिक लोगों ने गवार्ई थी जान

भारत में भी वायु प्रदूषण एक बहुत गंभीर समस्या बन गई है। भारत में 2019 में 16 लाख से ज्यादा लोग वायु प्रदूषण के कारण अकाल मौत के शिकार हुए थे। इतनी बड़ी समस्या के बावजूद सरकारें इससे निजात पाने का प्रयास करती नहीं दिख रही। दरअसल सरकार स्थायी समाधान न ढूंढकर वैकल्पिक समाधान ढूढऩे में लगी है। इसलिए इस समस्या से निजात नहीं मिल रहा।

बीते साल दिसंबर माह में एक अध्ययन में खुलासा हुआ था कि वायु प्रदूषण की वजह से हुई असमय मौतों और बीमारियों के कारण 2019 में भारत में 2.6 लाख करोड़ रुपये का आर्थिक नुकसान हुआ जो सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 1.4 फीसदी है।  

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इस अध्ययन में यह भी कहा गया था कि पिछले साल देश में 17 लाख मौतों (कुल मौतों का 18 फीसदी) की वजह वायु प्रदूषण थी।
वैज्ञानिक शोध से पता चला है कि भारत में वायु प्रदूषण की वजह से होने वाली मौतों में से 75 प्रतिशत से ज्यादा मौतें ग्रामीण क्षेत्र में होती हैं, जबकि इस तरफ किसी का ध्यान ही नहीं जाता।

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आंकड़ों के मुताबिक पूरी दुनिया में सिर्फ 10 प्रतिशत लोग ग्लोबल वार्मिंग से जुड़ी ग्रीन हाउस गैसों की अधिकतर मात्रा के उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैं, लेकिन उसका नुकसान पूरी दुनिया,खासतौर से गरीब देशों व गरीब लोगों को उठाना पड़ रहा है। यह ऐसे ही है कि करें कोई लेकिन भरे कोई और।

ग्लोबल वार्मिंग व जलवायु परिवर्तन के कारण दुनिया भर में प्राकृतिक आपदाओं की संख्या और तीव्रता में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। प्राकृतिक आपदा की वजह से पूरी दुनिया में लाखों-करोड़ों लोगों को विस्थापित होना पड़ रहा है।

उदाहरण के तौर पर वर्ष 2017 में उत्तर व पूर्वी भारत, बांग्लादेश और नेपाल में बाढ़ की वजह से एक हजार से अधिक लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा और करीब चार करोड़ लोगों को अस्थाई विस्थापन का दर्द झेलना पड़ा।

इसी प्रकार इस वर्ष के मॉनसून के दौरान भी इन्हीं इलाकों में भीषण बाढ़ के कारण एक हजार तीन सौ से ज्यादा लोगों की मौत हुई और करीब ढाई करोड़ से ज्यादा लोगों को हफ्तों तक अपने घरों से विस्थापित होना पड़ा।

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भारत और दूसरे विकासशील देशों में लोगों की गरीबी, घनी आबादी के मुकाबले साधनों की कमी और जनसंख्या के एक बड़े हिस्से
की खेती, पशुपालन व दूसरे प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भरता की वजह से जलवायु परिवर्तन का असर सबसे ज्यादा होता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसे विकसित और विकासशील देशों के बीच के अन्याय के रूप में देखा जाता है, ऐसा इसलिए क्योंकि जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार ग्रीन हाउस गैसों की कुल मात्रा का करीब 70 प्रतिशत हिस्सा विकसित देशों को ऊर्जा आधारित विकास के लंबे इतिहास से संबंधित है।

शोध के मुताबिक जलवायु परिवर्तन के लिए सबसे कम जिम्मेदार दुनिया भर में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग हैं, क्योंकि उनकी जीवन शैली की सादगी की वजह से जलवायु परिवर्तन करने वाली ग्रीन हाउस गैस में उनका योगदान नगण्य है। फिर भी जलवायु परिवर्तन के सबसे गंभीर परिणाम आर्थिक और सामाजिक रूप से कमजोर वर्गों को ही झेलने पड़ते हैं।

जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार देशों और लोगों के पास प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए साधन ज्यादा होते हैं पर जो देश और खासतौर से वो तबका जो इसके लिए सबसे कम जिम्मेदार हैं, वही साधनों की कमी की वजह से इन आपदाओं की सबसे अधिक कीमत चुकाते हैं। ऐसा सिर्फ दिल्ली ही नहीं बल्कि दुनिया में हर उस जगह है जहां प्रदूषण की समस्या है।

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