Wednesday - 10 January 2024 - 7:50 AM

डंके की चोट पर : नदियों में लाशें नहीं हमारी गैरत बही है

शबाहत हुसैन विजेता

लाशें तैरती हैं, लाशें बहती हैं, लाशें उतराती हैं. एक ही बात को तीन तरह से कहा गया. बहस शुरू हो गई कि लाश है तो तैरेगी कैसे? वो तो उतरायेगी. टेक्निकली यह बात सही है कि लाश तैर नहीं सकती. इस बात पर कई दशक से बहस चल रही है. मगर इस बात पर कभी बहस नहीं हुई कि लाश नदियों में आती कहाँ से है?

जिस तरह से लाश तैर नहीं सकती ठीक उसी तरह से वह खुद से नदी तक चलकर आ भी नहीं सकती. एक दो लाशें हों तो मामला सुसाइड का भी हो सकता है और मर्डर का भी लेकिन जब सैकड़ों की तादाद में लाशें पानी में उतरायें क्या तब भी यह सवाल नहीं उठना चाहिए कि लाशें नदियों में आती कहाँ से हैं.

उत्तर प्रदेश से लेकर बिहार तक लाशें ही लाशें. बक्सर में लाशें दिखीं तो कहा गया कि यूपी से बहकर आयी हैं. यूपी वाले क्या बताएं कि उत्तराखंड से आयी हैं और उत्तराखंड वाले कह दें कि पहाड़ों से ही लाशें बहती हुई आ रही हैं.

ज़ाहिर है कि जहाँ से नदी शुरू होती है वहां से लाशें बालू की तरह से बहती हुई नहीं आ सकतीं. उसे कहीं बीच में लाकर डाला गया है क्योंकि इतनी बड़ी तादाद में तो सुसाइड भी नहीं हो सकते. अगर यह वाकई सुसाइड हैं तब तो शासन-प्रशासन दोनों की सेवायें समाप्त हो जानी चाहिए और अगर लाशें डाली गई हैं तो ज़िम्मेदारी तय की जानी चाहिए.

प्रयागराज के चौड़े पाट को पुल पर खड़े होकर निहारिये. जहाँ कल तक दूर तक सिर्फ बालू ही बालू नज़र आती थी आज वह जगह कब्रिस्तान में बदल गई है.

याद करिये कोरोना की महामारी आयी थी तब शिया वक्फ बोर्ड के तत्कालीन चेयरमैन वसीम रिजवी के उस बयान पर खूब हंगामा मचा था जिसमें वसीम ने कहा था कि कब्रिस्तानों में लाशों को जलाने वाली मशीनें लगाई जायेंगी ताकि कोरोना से मरने वालों को उसमें जला दिया जाए और संक्रमण फैलने का खतरा न फैले. मज़हब के ठेकेदारों को लगा कि वसीम तो उनका इहलोक और परलोक दोनों बिगाड़ देगा. मुसलमान को तो दफन ही करना चाहिए.

कोरोना की दूसरी लहर में हालात कहाँ ले आये. कोरोना से मरने वालों को जलने के लिए श्मशान के बाहर घंटों इंतज़ार करना पड़ गया. एक मशीन जो ज़्यादातर खाली रहती थी वह लगातार काम करने लगी मगर सड़कों पर लाशें लेकर तीस-तीस एम्बुलेंस इंतज़ार करती नज़र आने लगीं.

सरकार ने लाशों को जलाने के लिए पांच मशीनें लगा दीं मगर कोई फायदा होता नहीं दिखा तो नियम तोड़ दिए गए. कोरोना से मरने वालों की भी चिताएं सजाई जाने लगीं. चिताएं बेहिसाब हो गईं तो लकड़ियाँ कम पड़ गईं.

लाशें ज्यादा हो गईं तो श्मशाम को छुपाने के लिए टीन की दीवार उठा दी गई. जलती लाशें छुपाने का सिलसिला लखनऊ से लेकर गोरखपुर तक देखने को मिला. जिस दौर में लाशें छुपाने का सिलसिला चल रहा था उस दौर में अचानक से नदियाँ लाशों से भर गईं. इतनी बेहिसाब लाशें कि उनकी शिनाख्त करवा पाना भी मुमकिन नहीं रह गया. मौत की वजह तलाशने की भी किसी के पास फुर्सत नहीं रह गई. मरने वाला किस मज़हब का है यह भी पता करने कोई नहीं गया.

लाशों को लकड़ियों से जलाया गया. पत्तियों से जलाया गया. टायरों से जलाया गया. मिट्टी के तेल से जलाया गया. हाथरस के बाद कई शहरों की पुलिस और गाँव के लोगों ने डोम की भूमिका निभाई. फिर भी लाशें खत्म नहीं हुईं. जितनी लाशें जलाई जातीं उससे ज्यादा बहती दिखाई देतीं. पश्चिम बंगाल की पुलिस को नदियों के पास पेट्रोलिंग करनी पड़ी कि कहीं लाशें बहती हुई वहां न पहुँच जाएं.

प्रयागराज में संगम तट कब्रिस्तान में बदल चुका है. हज़ारों लाशों को कौन जलाता. इसलिए खुले में पड़ी लाशों को दफनाने का फैसला किया गया. यह फैसला लेना पड़ा ताकि लाशों को चील कौए और कुत्ते न खाने लगें. अब समस्या थी कि इतनी कब्रें कौन खोदे.

एक-एक फिट के गड्ढे खोदकर उनमें लाशों को दफनाने का सिलसिला शुरू किया गया. अनगिनत अनाम लोगों की कब्रें बनाई गईं मगर वह कब्र जैसी तो थीं मगर कब्र नहीं हैं. कब्र में छह फिट गहराई तक खोदा जाता है. यहाँ एक फिट का गड्ढा खोदा गया. कब्र में कफ़न पहनाने के बाद बहुत इज्जत के साथ उसमें लाश उतारी जाती है. पहले पटरे लगाए जाते हैं ताकि मुर्दे पर मिट्टी न गिरे. कब्र बनाकर उस पर नेमप्लेट लगाई जाती है ताकि यह पहचान रहे कि यहाँ कौन सो रहा है.

…मगर संगम तट पर न छह फिट की खुदाई की गई. न मुर्दों को कफ़न दिया गया. न लाश के ऊपर पटरे बिछाए गए. न मरने वाले की पहचान की गई. जो जहाँ पड़ा था वहीं उसकी कब्र बना दी गई.

संगम तट पर एक ऐसा कब्रिस्तान है जिसमें लाशें तो दफन हैं मगर यह पता नहीं कि कौन दफन है. किस मज़हब का है. किस उम्र का है. उसकी मौत कैसे हुई है. मौत के बाद उसे किसने लाकर वहां फेंका है. यह ऐसा कब्रिस्तान हैं जहाँ कुत्ते अपना पेट भरने की जुगत में लगे हैं.

निशांत चौरसिया ने अपनी फेसबुक वाल पर लिखा कि संगम तट पर बनाए गए कब्रिस्तान को देखकर डर लगता है कि वहां जो माँ-बहनें दफन हैं कहीं उन्हें कब्र से निकालकर उनका रेप न हो जाए. कुछ साल पहले यही धमकी तो दी गई थी कि कब्रों से निकालकर रेप करेंगे.

यह तो डर तो सिर्फ एक आदमी का डर है मगर सोचिये. जिन लाशों को कुत्ते नोचकर खा रहे हैं उनमें हमारा-आपका जान-पहचान का भी तो हो सकता है. इनमें वह लोग भी होंगे जो अस्पताल में अपना बिल नहीं दे पा रहे होंगे. मर जाने के बाद उनका कोई रिश्तेदार उन्हें लेने नहीं आया होगा. इनमें बहुत से वो लोग होंगे जिन्हें श्मशान तो पहुंचाया गया होगा लेकिन जलाने वाले की जेब ने इतनी महंगी लकड़ी खरीद पाने की हिम्मत नहीं जुटा पाई होगी.

इनमें वो लोग भी होंगे जिन्हें जलाने की कोशिश तो हुई होगी लेकिन इतनी लम्बी लाइन में नम्बर आने तक रिश्तेदारों को संक्रमित हो जाने का खतरा लगा होगा और वो लाशें छोड़कर चले गए होंगे.

इनमें वो लाशें भी होंगी जो कई दिन अस्पतालों के फ्रीज़र में फ्रीज़ रही होंगी लेकिन इलाज में ही घर द्वार बेच देने वालों के पास अस्पताल का बाकी बिल भरने का पैसा नहीं होगा.

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नदियों में बहती लाशों के वो भी ज़िम्मेदार हैं जिन्होंने आक्सीजन का 12 सौ का सिलेंडर पैंतीस हज़ार में बेचा है. जिन्होंने चालीस हज़ार आक्सीजन कंसनट्रेटर के दो-दो लाख लिए हैं. जिन्होंने 16 सौ का रेमडेसिविर इंजेक्शन 20-20 हज़ार का बेचा है. इन लाशों के लिए वह नर्सिंग होम भी ज़िम्मेदार हैं जिन्होंने साँसें चलने तक घर वालों को लूटा फिर दूसरे अस्पतालों को ट्रांसफर कर दिया.

जिन अस्पतालों ने मरीजों से एक रात के साठ हज़ार रुपये सिर्फ बेड के लिए वसूले हैं. न नौकरी बची है. न खाने को कुछ बचा है. जमा पूँजी अस्पतालों ने लूट ली. अब आदमी कहाँ से लाये अंतिम संस्कार का पैसा? फिर लाशें तो बहेंगी ही. नदियाँ जिस तरह से लाशों से फुल हुई हैं उससे लगता है जैसे यह लाशें उतरा नहीं रहीं वाकई में तैर रही हैं और मुंह चिढ़ा रही हैं हमारी गैरत को.

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