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पहले डरती थी एक पतंगे से, मां हूं अब सांप मार सकती हूं

प्रमुख संवाददाता

लखनऊ. फिराक  बीसवीं सदी के महान शायर थे. खासकर वह अपनी रूमानी शायरी में दिल की नजर से इस दुनिया और दुनियादारी को सामने रखते हैं. गजलगोई में उनका कोई सानी नहीं.

यह बात मशहूर शायर हसन कमाल ने कही. वह शायर रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी पर केन्द्रित हिंदी उर्दू साहित्य अवार्ड कमेटी के 28वें साहित्यिक सम्मेलन के पांचवें दिन अंतर्राष्ट्रीय कवि सम्मेलन व मुशायरे को बतौर मुख्य अतिथि सम्बोधित कर रहे थे.

कार्यक्रम की शुरुआत में कमेटी के महामंत्री अतहर नबी ने सभी कवियो-शायरों का स्वागत करते हुए आयोजन के पिछले दिनों की संक्षिप्त रपट पेश की. अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में फिराक की शायरी पर डॉ. अनीस अंसारी ने अपनी रचना सुनाने के साथ कहा कि उनकी रुबाइयां हमारी तहजीब को अभिव्यक्त करती हिन्दुस्तानी संस्कृति की आइना हैं. मीर की परम्परा के शायर फिराक की शायरी में अलग रंग-अलग सुगंध का अहसास होता है.

लखनऊ के शायर हसन काजमी के संचालन में चले इस मुशायरे में मुम्बई के हसन कमाल ने सुनाया :-

उन्हें ये जोम कि फरियाद का चलन न रहा,
हमें यकीन कि मुंह में जुबान बाकी है.

खुद अपनी बारी आने पर हसन काजमी बोले :-

क्या जमाना है कभी यूं भी सजा देता है,
मेरा दुश्मन मुझे जीने की दुआ देता है.

कराची की मतीन सैफ ने मां की ताकत का अहसास अपनी इन लाइनों में कराया :-

दिल तो क्या जान हार सकती हूं,

हर खुशी तुझपे वार सकती हूं.

पहले डरती थी एक पतंगे से

मां हूं अब सांप मार सकती हूं.

कराची के ही कैसर वजदी ने पढ़ा :-

मैं के गुफ्तगू से गैर को अपनाता हूं,
इधर यहां बैठो तुम्हें जादू सिखाता हूं.

लखनऊ की डॉ. नसीम निकहत का कहना था :-

मिलना है ता आ जीत ले मैदान में हमको,
हम अपने कबीले से बगावत नहीं करते.

लखनऊ के संजय मिश्र शौक ने कहा :-

जिसे सब इश्क कहते हैं मेरे सीने में रहता है,
कि सदियों से यह पत्थर इसी कवि में रहता है.

पड़ोसी शहर के शायर जौहर कानपुरी ने सुनाया :-

इरादे ही जवां जिनके वही बाजी पलटे हैं,
मुखालिफ के लिए हर आदमी आंधी नहीं होता.

अकील फारुकी ने पढ़ा :-

आ गई मेरे लबों पर नागेहा बस दिल की बात,
जब किसी ने छेड़ी मुझसे तेरी महफिल की बात.

गम के तूफान में गुजरी है हमारी जिन्दगी
हमसे क्या करते हो यारों ऐश के साहिल की बात.

शायरा शबीना अदीब अपने इश्किया कलाम में कहा :-

खामोश लब हैं झुकी हैं पलकें, दिलों में उल्फत नई नई है,
अभी तकल्लुफ है गुफ्तगू में, अभी मुहब्बत नई नई है.

उस्मान मीनाई का ने कहा :-

वह अपनी गुफ्तगू कम कर रही है,
मुझे मौका फराहम कर रही है.

दीवाना मर गया शायद तुम्हारा,
हवाए दश्त मातम कर रही हैं.

कतर के शहर दोहा के शायर अतीक अन्जर ने सुनाया :-

मेरी पहुंच से इक दिन बाहर हो जाएंगे,
छोटे पौद पेड़ तनावर हो जाएंगे.

मुश्किल सहते-सहते पत्थर हो जाएंगे,
तब अपने हालात भी बेहतर हो जाएंगे.

दोहा के ही अहमद अशफाक ने पढ़ा :-

जब हमारे सामने हिजरत का मंजर आ गया,
यूं हुआ महसूस दिल सीने से बाहर आ गया.

नाम तेरा आ गया था दरमियान गुफ्तगू,
मेरी आंखों के जजीरे में समुन्दर आ गया.

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इनके अलावा पंकज आदि अन्य कवियों- शायरों ने भी देश –विदेश से आनलाइन जुड़े सुनने वालों को अपने कलामों से नवाजा.

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