Friday - 5 January 2024 - 1:27 PM

हिंदू नेता के हत्यारे अपनी पहचान उजागर करने को क्यों थे बेताब

केपी सिंह

हिंदू समाज पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष कमलेश तिवारी के हत्यारे शेख अशफाक हुसैन और मुइनुददीन खुर्शीद पठान को आखिर गुजरात-राजस्थान की सीमा पर पकड़ ही लिया गया। वारदात को अंजाम देते हुए उन्होंने फिदाइन जैसे जज्बे से काम किया। जिसके चलते वे सभी जगह अपनी पहचान के निशान छोड़ते गये। उन्होंने ऐसा क्यों किया यह एक पहेली है। निश्चित रूप से ऐसा लापरवाही के चलते नही हुआ बल्कि किसी मकसद के तहत ही यह चूक बरती गई इसकी पड़ताल अभी बाकी है। इसी बीच देश को मुसलमानों से मुक्त कराने के संकल्प घोषित करने वाली साध्वी प्राची ने कमलेश तिवारी हत्याकांड को देखते हुए अपनी जान के खतरे का अंदेशा जताया और सुरक्षा की मांग कर डाली।

खत्म हुआ असमंजस

कमलेश तिवारी हत्याकांड को लेकर असमंजस की स्थिति समाप्त हो गई। पहले पुलिस ने इसे आतंकवादी या साम्प्रदायिक घटना न मानते हुए निजी रंजिश का परिणाम साबित करने की कोशिश की थी। लेकिन कुछ ही घंटों में उसे अपना रुख बदलना पड़ा और 2015 में कमलेश तिवारी द्वारा पैगम्बर साहब को लेकर किये गये अशोभनीय बयान से इसकी कडि़यां जोड़ी जाने लगीं जिसमें उनकी हत्या का फतवा जारी किया गया था। इस सिलसिले में गुजरात के तीन मौलानाओं सहित कई लोगों की ताबड़तोड़ गिरफ्तारी कर ली गई। ठोस साक्ष्य मिलते जा रहे थे फिर भी कमलेश तिवारी का परिवार पुलिस की लाइन पर संदेह जता रहा था।

मुख्यमंत्री से मिलकर लौटीं उनकी मां सुमन देवी ने कहा कि वे बिल्कुल भी संतुष्ट नहीं हैं। उन्होंने अपने बेटे की हत्या में प्रदेश की राजधानी के एक भाजपा नेता का हाथ बताते हुए पुलिस पर इससे जुड़े तथ्यों की अनदेखी का आरोप लगाया। हालांकि सुमन देवी ने भी अब पुलिस की थ्योरी पर मुहर लगा दी है और कहा है कि वे हत्या की साजिश के खुलासे के लिए हुए एक्शन से संतुष्ट हैं। पकड़े गये लोगों को सरकार जल्द से जल्द कड़ी सजा दिलाये।

तिवारी ने क्यों दी अनहोनी को दावत

यह जानते हुए भी कि इस्लाम पैगम्बर साहब की तौहीन करने वालों को सजाये मौत का फरमान अपने अनुयायियों को सुनाता है तो भी कमलेश तिवारी ने इस मामले में गुस्ताखी की और अपने साथ अनहोनी को दावत दे डाली। उन्होंने यह धार्मिक आवेश के कारण किया या सिरफिरेपन की वजह से ? हालांकि यह प्रश्न उठाने का मतलब उनकी हत्या का समर्थन करना या हत्या का औचित्य सिद्ध करना नही है। लेकिन इतना तो कहना ही पड़ेगा कि सच्ची धार्मिक आस्था का जुबान के बेलगाम होने से कोई संबंध नही होना चाहिए।

अपने को तपाकर कुंदन बनाने का नाम है धर्म

धर्म संयम या बंदिश का दूसरा नाम है जिसमें वाक् संयम भी शामिल है। धर्म की आग में तपकर मनुष्य जब काम-क्रोध-मद-लोभ-मोह अपने अंदर के इन पंच विकारों को जला देता है तभी 24 कैरेट का श्रद्धालु बन सकता है। धर्म की दुहाई देने वाले साधु-संत-साध्वियों ने आज तामसी भाषा के इस्तेमाल को अपना ट्रेंड बना लिया है यह कतई धार्मिकता नही है।

पैगम्बर साहब की इच्छा के खिलाफ है जिहादियों के मंसूबे

इसी तरह मैं नही समझता कि पैगम्बर साहब की इच्छा उन्हें अपमानित करने वाले नादानों को मार डालने की रही हो। एक कहानी यह है कि एक महिला पैगम्बर साहब के आने पर उनके ऊपर कूड़ा उड़ेल देती थी लेकिन पैंगम्बर साहब कभी गुस्सा नही हुए। एक दिन पैगम्बर साहब जब उस महिला के घर के रास्ते से गुजरे और उन पर किसी ने कूड़ा नही उड़ेला तो उन्हें फिक्र हुई कि कहीं मोहतरमा को कुछ हो तो नही गया है। पता चला कि उनकी तबियत नासाज है जिससे वे अपने कमरे में बंद हैं तो पैगम्बर साहब उनके घर में अंदर पहुंच गये। मोहतरमा ने पैगम्बर साहब की इस कदर सज्जनता देखी तो वे पानी-पानी हो गईं और उन्होंने पैगम्बर साहब के पैर पकड़ लिए।

छुई-मुई नही है इस्लाम

फरिश्ते और फकीर की यही निशानी है। इस्लाम इतना छुई-मुई धर्म नही है कि किसी सिरफिरे की बदजुबानी से उसके लिए कोई खतरा पैदा हो जाये। सही बात तो यह है कि इस्लाम की नेक शिक्षाओं में घोर अवज्ञाकारी का भी दिल जीतने की ताकत है। इसलिए अल्लाह के किसी सच्चे बंदे को इस मामले में उच्छृखंलता के कारणों से खून-खराबा नही करना चाहिए बल्कि पैगम्बर साहब की प्रतिष्ठा के नाम पर खून-खराबे की सोचना तक मना है इसलिए जिन्होंने अकीदा दिखाने के लिए कमलेश तिवारी का कत्ल किया है वे न तो मुसलमानों की हमदर्दी के हकदार हैं और न ही अन्य किसी की।

सिरफिरों के बड़े नेटवर्क के खुलासे से सतर्क हो जाने की जरूरत

इस घटना को अंजाम देने वालों का एक पूरा ताना-बाना सामने आया है जो उत्तर प्रदेश से कई जिलों तक और गुजरात व राजस्थान में फैला पाया गया। इस मामले में दर्जनों लोग ऐसे पकड़े गये जैसे वे पुलिस के शिकंजे में पहुंचकर अपने को उजागर करने के लिए बेताब रहे हों। इसके पीछे एक समुदाय के गुमराह लोगों का मनोबल बढ़ाने की साजिश हो सकती है जो हाल में सरकार द्वारा संवेदनशील मामलों में लिये गये ताबड़-तोड़ फैसलों को पचा नही पा रहे हैं। इसे समझने में चूंक हुई तो विध्वंसक कार्रवाइयों की श्रंखला शुरू होने का अंदेशा है। सदभाव के माहौल को मजबूत करके ही चुनौती को विफल किया जा सकता है जिसमें सरकार के साथ-साथ बु़िद्धजीवियों से भी उचित और सक्रिय भूमिका निभाने की अपेक्षा है।

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)

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