Wednesday - 31 July 2024 - 9:46 PM

#CoronaDiaries : इस आदिम डर का क्या करें?

अभिषेक श्रीवास्तव

इंसान के मनोभावों में भय सबसे आदिम प्रवृत्ति है। इसी भय ने हमें गढ़ा है। सदियों के विकासक्रम में इकलौता भय ही है, जो अब तक बना हुआ है। मन के गहरे तहखानों में, दीवारों से चिपटा। काई की तरह, हरा, ताज़ा, लेकिन आदिम। जब मनुष्य अपने विकासक्रम में छोटा हुआ करता था, उसे तमाम भय थे। जानवरों का भय प्राथमिक था। कोई भी आकर खा सकता था। सब बड़े-बड़े जंगली पशु होते थे। जो जितना बड़ा, छोटे को उतना भय। हर बड़ा अपने से छोटे को खाता था। यह जंगल का समाज था।

शुरुआत में तो इसका इलाज यह निकाला गया कि जिससे ख़तरा हो उसके सामने ही न पड़ो। मचान पर पड़े रहो। पेड़ से लटके रहो। अपने घर के भीतर दुबके रहो। आखिर कोई कितना खुद को रोके लेकिन?

फिर मनुष्य ने भाषा विकसित की। हो हो, हुर्र हुर्र, गो गो जैसी आवाज़ें निकाली जाने लगीं जानलेवा पशु को भगाने के लिए। खतरा लगता, तो हम गो गो करने लग जाते। इसकी भी सीमा थी। पांच किलोमीटर दूर बैठे अपने भाई तक आवाज़ कैसे पहुंचाते? उसे सतर्क कैसे करते? फिर बजाने की कला आयी। खतरे का संकेत देने और भाइयों को सतर्क करने के लिए हमने ईंट बजायी, लकड़ी पीटी, दो पत्थरों को आपस में टकराया।

तेज़ आवाज़ निकली, तो शिकार पर निकला प्रीडेटर मांद में छुप गया। फिर धीरे-धीरे उसे आवाज़ की आदत पड़ गयी। हम थाली पीटते, वह एकबारगी ठिठकता, फिर आखेट पर निकल जाता। समस्या वैसी ही रही।

एक दिन भय के मारे पत्थर से पत्थर को टकराते हुए अचानक चिंगारी निकल आयी। संयोग से वह चकमक पत्थर था। मनुष्य ने जाना कि पत्थर रगड़ने से आग निकलती है। ये सही था। अब पेड़ से नीचे उतर के, अपने घरों से बाहर आ के, अलाव जला के टाइट रहा जा सकता था। आग से जंगली पशु तो क्या, भूत तक भाग जाते हैं। रूहें भी पास आने से डरती हैं। मानव विकास की यात्रा में हम यहां तक पहुंच गए, कि जब डर लगे बत्ती सुलगा लो।

यह भी पढ़ें : CoronaDiaries : अपने अपने संकट, अपनी अपनी चाल

भाषा, ध्वनि, प्रकाश के संयोजन ने समाज को आगे बढ़ाने का काम किया। आग में गलाकर नुकीले हथियार बनाए गए। मनुष्य अब खुद शिकार करने लगा। पशुओं को मारकर खाने लगा। समाज गुणात्मक रूप से बदल गया। आदम का राज तो स्थापित हो गया, लेकिन कुदरत जंगली जानवरों से कहीं ज्यादा बड़ी चीज़ है। उसने सूक्ष्म रूप में हमले शुरू कर दिए। डर, जो दिमाग के भीतरी तहखानों में विलुप्ति के कगार पर जा चुका था, फिर से चमक उठा।

इस आदिम डर का क्या करें? विकसित समाज के मन में एक ही सवाल कौंध रहा था। राजा नृतत्वशास्त्री था। वह मनुष्य की आदिम प्रवृत्तियों को पहचानता था। दरअसल, इंसान की आदिम प्रवृत्तियों को संकट की घड़ी में खोपड़ी के भीतर से मय भेजा बाहर खींच निकाल लाना और सामने रख देना उसकी ट्रेनिंग का अनिवार्य हिस्सा था। उसका वजूद मस्तिष्क के तहखानों में चिपटी काई और फफूंद पर टिका हुआ था।

चिंतित और संकटग्रस्त समाज को देखकर उसने कहा- “पीछे लौटो, आदम की औलाद बनो”। राजाज्ञा पर सब ने पहले कहा गो गो गो। काम नहीं बना। फिर समवेत् स्वर में बरतनों, डब्बों, लोहे-लक्कड़ और थाली से आवाज़ निकाली, गरीबों ने ताली पीटी। अबकी फिर काम नहीं बना।

राजा ज्ञानी था, उसने कहा- “प्रकाश हो”!

यह भी पढ़ें : Corona Diaries : वायरस दिमाग में घुस चुका है

अब प्रजा बत्ती बनाएगी, माचिस सुलगाएगी। उससे आग का जो पुनराविष्कार होगा, उसमें अस्त्र-संपन्न लोग अपने भाले तराशेंगे, ढोल की खाल गरमाएंगे। फिर एक दिन आदम की औलाद आग, ध्वनि और भाषा की नेमतें लिए सामूहिक आखेट पर निकलेगी। इस तरह यह समाज एक बार फिर गुणात्मक रूप से परिवर्तित हो जाएगा। पिछली बार प्रकृति के स्थूल तत्वों पर विजय प्राप्त की गयी थी। अबकी सूक्ष्म से सूक्ष्मतर तत्वों को निपटा दिया जाएगा।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति Jubilee Post उत्तरदायी नहीं है।)

Radio_Prabhat
English

Powered by themekiller.com anime4online.com animextoon.com apk4phone.com tengag.com moviekillers.com