Monday - 22 January 2024 - 9:30 PM

कलाई मे कंगन झिलमिला जाने दोधुली चांदनी को खिलखिला…!

कलाई मे कंगन झिलमिला जाने दो
धुली चांदनी को खिलखिला जाने दो
गीत रोता रहा मरमरी सांझ में
दम सिसकता रहा गात की गांठ मे
उडगनों से भरा अभ्र इठला गया
रूप पलता गया पतझरी मांग मे
पथ रोको नही मोड़ आजाने दो
बस ठहरो जरा दीप मुसकाने दो।
बरसते है बादल घिरती हैं घटायें,
सदा एक सी न रही हैं सदायें,
ये माना सदा पर हमारे लिये,
न बरसे हैं बादल न घिरी हैं घटायें
छलकते अगर आंसू छलक जाने दो
दो चार गीतों को गम खाने दो।
विधुर हो चला है अब मलयजी पवन
हो चली है मटमैली उषा की किरन,
सपन हो गये बस रहन घाट पर
मिल सके न क्षण भर को धरती गगन
अधर सूखे हैं पीर पक जाने दो
पलकें खुलीं मीत थक जाने दो।

अशोक श्रीवास्तव
अशोक श्रीवास्तव
Radio_Prabhat
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