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डंके की चोट पर : वीर बहादुर का सपना पूरा कर रहे हैं योगी

शबाहत हुसैन विजेता

उत्तर प्रदेश में फिल्म सिटी को लेकर एक बार फिर विमर्श तेज़ हो गया है. यमुना एक्सप्रेस वे के पास जगह की तलाश शुरू हो गई है. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ यूपी में फिल्म सिटी को लेकर काफी उत्साहित हैं.

यूपी में नयी उम्र के लोग इस बात को लेकर बहुत खुश हैं कि योगी जी नोयडा को मुम्बई जैसा बनाने वाले हैं और बड़ी उम्र के लोग पिछली सरकारों के दौर में किये गए काम को भुला चुके हैं.

पिछले हफ्ते एक पार्टी के प्रवक्ता टीवी डिबेट में चीख-चीख कर बता रहे थे कि फिल्मों पर काम मुलायम सिंह यादव के टाइम में शुरू हुआ था. अमर सिंह फिल्म विकास परिषद के पहले अध्यक्ष थे. दूसरी पार्टियों के प्रवक्ता इस मुद्दे पर विरोध कर पाने की पोजीशन में नहीं थे. ऐसे में यह कैसे मान लिया जाए कि उत्तर प्रदेश में फिल्मों के लिए अनुकूल माहौल कभी तैयार भी हो पायेगा.

उत्तर प्रदेश में फिल्मों का अनुकूल माहौल बनना चाहिए यह सबसे ज़रूरी बात है. इसे किस पार्टी ने किया यह उतनी बड़ी बात नहीं है. हकीकत यह है कि कोई भी नीति कारगर तरीके से तभी काम कर पाती है जबकि उस दौर की ब्यूरोक्रेसी को भी ऐसे कामों में बराबर का इंटरेस्ट होता है.

नोयडा में फिल्म सिटी होनी चाहिए यह ख़्वाब सबसे पहले वीर बहादुर सिंह ने देखा था. मुख्यमंत्री बनने के बाद उनकी सरकार ने फिल्म सिटी बनाने के लिए काफी पैसा भी खर्च किया लेकिन उनके जाने के बाद काम जहाँ का तहां रुक गया.

यह 1998-99 की बात है जब कल्याण सिंह ने उत्तर प्रदेश को फ़िल्मी दुनिया का केन्द्र बनाने की पहल कि उस दौर में योगेन्द्र नारायण मुख्य सचिव और रोहित नन्दन सूचना सचिव थे. उत्तर प्रदेश में फिल्मों के लिए अनुकूल माहौल बने यह कल्याण सिंह की मर्जी थी और योगेन्द्र नारायण और रोहित नन्दन के लिए यह इंट्रेस्टिंग सब्जेक्ट था.

कल्याण सिंह ने पहल की तो फिल्म विकास परिषद का गठन कर दिया गया. सुप्रसिद्ध साहित्यकार और पत्रकार कमलेश्वर फिल्म विकास परिषद के पहले अध्यक्ष बने. रामानन्द सागर और सुरेन्द्र कपूर जैसे फिल्मकार इसके सदस्य बनाये गए. काम तेज़ी से शुरू हुआ. उत्तर प्रदेश में शूट होने वाली हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्मों को अनुदान का फैसला किया गया. लखनऊ के फिल्म निर्देशक सुनील बत्ता की फिल्म अम्मा को बीस लाख रुपये का पहला अनुदान मिला. वाराणसी के सुशील की फिल्म कन्यादान दूसरी फिल्म थी जिसे यूपी सरकार ने अनुदान दिया.

कमलेश्वर के बाद शत्रुघ्न सिन्हा फिल्म विकास परिषद के अध्यक्ष बने. शत्रुघ्न सिन्हा के कार्यकाल में भी फिल्मों के लिए अनुकूल माहौल बना रहा. उत्तर प्रदेश के विभिन्न शहरों में फ़िल्में शूट होने लगीं. बुन्देलखण्ड की समस्याओं पर सवाल उठाने वाले फ़िल्मकार राजा बुन्देला भी लखनऊ में नज़र आने लगे. उन्हें भी उत्तर प्रदेश में तैयार होते फिल्म के माहौल से बड़ी खुशी थी. लोग यहाँ शूट कर रहे थे क्योंकि सरकार सब्सिडी देने को तैयार थी. इस सब्सिडी से फिल्म बनाने वालों को एक बड़ा सहारा मिल रहा था. उत्तर प्रदेश के कलाकारों को भी यह आराम था कि अपना घर छोड़े बगैर भी वह फ़िल्मी पर्दे पर नज़र आने लगे थे.

जया बच्चन फिल्म विकास परिषद की तीसरी अध्यक्ष बनीं और यहीं से वापसी का रास्ता भी शुरू हो गया. जया बच्चन ने फैसला किया कि शूट होने के बाद फिल्म की धुलाई पर जो पैसा खर्च होता है उसका पचास फीसदी अनुदान दिया जाएगा. इसी फैसले के बाद फिल्म वालों ने अपने पैर मुम्बई की तरफ वापस मोड़ लिए क्योंकि फिल्म की धुलाई का खर्च पूरी फिल्म के निर्माण पर होने वाले खर्च का पांच फीसदी होता है. मतलब सरकार से सब्सिडी के लिए उनकी तमाम शर्तें भी मानी जाएँ और सब्सिडी सिर्फ ढाई फीसदी ही मिलेगी.

जया बच्चन के इस फैसले के बाद के हालात देखें तो वर्ष 2005 से लेकर 2015 तक एक भी फिल्म को सब्सिडी नहीं मिली. अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने फिर से पुरानी फाइलों की धूल झड़वाई. उन्होंने इंटरेस्ट लिया तो नवनीत सहगल भी उत्साह में आगे बढ़े. काम को फिर से रफ़्तार मिली. अखिलेश यादव के टाइम में सेल्युलाइड ही नहीं डिजीटल फ़िल्में शूट करने वालों को भी सब्सिडी मिली.

लखनऊ में सौ फीसदी पहली फिल्म अम्मा को शूट करने वाले सुनील बत्ता बताते हैं कि फिल्मों को अनुकूल माहौल देने की कोशिशें तो बार-बार हुई हैं. आकाशवाणी लखनऊ के पास पचास साल पहले एक स्टूडियो था. जहाँ पर कई फ़िल्में बनीं. इसको आगे बढ़ाने के लिए सुनील दत्त ने काफी कोशिशें कीं. लेकिन फिल्मों के लिए सबसे ठोस काम मुख्य सचिव योगेन्द्र नारायण और सूचना सचिव रोहित नन्दन ने किया.

योगेन्द्र नारायण ने कल्याण सिंह सरकार से फिल्म निर्माताओं के लिए सिंगल विंडो सिस्टम बनवाया ताकि फिल्म शूट करने आये लोगों को इधर-उधर भटकना न पड़े. उन्होंने फिल्मों के टिकट पर पचास पैसे दाम बढ़वाया और यही पैसा फिल्मों के अनुदान की शक्ल में बांटने का फैसला किया. इस तरह से पचास-पचास पैसे खर्च करते हुए दर्शकों को पता भी नहीं चला और सरकार की जेब से एक पैसा भी नहीं गया. दर्शकों से मिलने वाले इन पचास-पचास पैसों से यूपी सरकार को हर महीने एक करोड़ रूपये अतिरिक्त आय होती है.

उत्तर प्रदेश में शूट होने वाली हिन्दी के अलावा भोजपुरी, अवधी, बृज और बुन्देली भाषा की फिल्मों को अनुदान दिया गया. क्षेत्रीय भाषाओँ की फिल्मों को अधिकतम एक करोड़ और हिन्दी फिल्म को दो करोड़ तक अनुदान दिया गया. बाद में कलाकार भी उत्तर प्रदेश के हों तो पच्चीस लाख अतिरिक्त सब्सिडी की बात भी तय हुई. कई शर्तें पूरी हो जाएँ तो पौने तीन करोड़ रूपये तक की सब्सिडी देने की बात तय हुई. अब तक सबसे ज्यादा सब्सिडी सवा दो करोड़ रुपये मुज़फ्फर अली ने ली है.

योगी आदित्यनाथ की कोशिशों का सुनील बत्ता स्वागत करते हैं मगर वह सवाल भी उठाते हैं कि सड़क किनारे फिल्म सिटी बनेगी तो समुद्र कहाँ से आएगा. पहाड़ और झरने कैसे मिलेंगे. मुम्बई कामयाब इसलिए है क्योंकि वहां समुद्र है. थोड़ी दूर पर लोनावाला है. वहां दस महीने मौसम एक जैसा रहता है. यूपी में जलवायु अनुकूल नहीं है. गर्मियों में यहाँ लू चलती है. बरसात में बाढ़ आती है और जाड़े में कोहरा पड़ता है. जब उत्तराखंड नहीं बना था तब देहरादून में फिल्म सिटी बनाई जा सकती थी.

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योगी आदित्यनाथ ने यमुना एक्सप्रेस वे के किनारे फिल्म सिटी की बात कहकर फ़िल्मी दुनिया में बचे बवाल में राहत का एक कंकड़ फेंक दिया है. फिल्म सिटी पर कितना काम होगा यह ब्यूरोक्रेसी के इंटरेस्ट पर तय करेगा. फिल्मों की तरफ सरकार के कदम बढ़ेंगे तो वह कदम योगेन्द्र नारायण, रोहित नन्दन और नवनीत सहगल जैसे इंटरेस्ट लेने वाले अधिकारी भी तलाशेंगे. सुनील बत्ता और सुशील जैसे निर्माता-निर्देशक भी ज़रूरी होंगे जो फिल्म बनाने को आगे बढ़ें. मुज़फ्फर अली जैसे निर्देशकों की तरफ भी नज़रें घूमेंगी जो फिर से उमराव जान जैसा कारनामा अंजाम दे सकते हैं. सियासी लोग फैसला ले सकते हैं, पैसों का इंतजाम कर सकते हैं लेकिन अमली जामा तो ब्यूरोक्रेसी और फिल्म निर्माताओं की कोशिशों से ही पहनाया जा सकता है.

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