Thursday - 11 January 2024 - 6:59 PM

दिल्ली में “बिल्ली के भाग से छींका” टूटने के इंतजार में है कांग्रेस !

विवेक अवस्थी

कहते हैं न कि किसी की विफलता दूसरों के लिए भाग्यशाली साबित होती है । अब जरा इसे राजनीतिक शब्दों में दिल्ली के चुनावों के संबंध में देखें तो , किसी की आंशिक सफलता भी दूसरों के लिए भाग्यशाली साबित हो सकती है। और शायद इसी वजह से अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी के संदर्भ में  कांग्रेस इंतजार की मुद्रा में दिख रही है ।

फिलहाल, मिनी इंडिया या दिल्ली के चुनाव AAP और BJP के बीच एक कड़ी लड़ाई के रूप में दिख रहे हैं । भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने AAP को राष्ट्र-विरोधी, शाहीन बाग प्रदर्शनकारियों के समर्थक, शारजील इमाम के समर्थक, कन्हैया कुमार, उमर खालिद और इसके अलावा, भी “टुकड़े-टुकड़े गैंग” का समर्थक बताने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की अगुवाई वाली आम आदमी पार्टी के पास अपने खुद के कारण हैं जिसकी वजह से वे अपने मुद्दों से पीछे नहीं हट रहे और इन शाहीन बाग जैसे विषयों को चुनावी मुद्दा बनाने से परहेज किया। इसके बजाय, यह सिर्फ विकास के उन कामों पर प्रचार और भरोसा कर रही है, जो पिछले पांच वर्षों में दिल्ली में उनकी सरकार ने किए हैं ।

लेकिन कांग्रेस, जिसने 2013 तक लगातार पंद्रह साल तक दिल्ली पर शासन किया लेकिन 2015 के चुनावों में दिल्ली में एक बड़े शून्य पर पहुँच गई, फिलहाल सत्ताधारी आम आदमी पार्टी के प्रति अपने अभियान में आग्रामक नहीं दिखाई दे रही है । कई लोगों के लिए यह एक बड़े आश्चर्य का विषय है । लेकिन शायद, इसके पीछे भारतीय राजनीति की सबसे पुरानी पार्टी के अपने तर्क और रणनीति है।

दिल्ली में AAP का उदय

2013 में दिल्ली में नवजात राजनीतिक संगठन आम आदमी पार्टी का उदय हुआ। उस वर्ष हुए चुनावों में एक नवोदित पार्टी ने दिल्ली विधानसभा की 70 सीटों में से 28 सीटें जीतकर सभी को चकित कर दिया था । भाजपा ने 34 सीटें जीतीं लेकिन सरकार नहीं बना सकी क्योंकि वह बहुतमत के लिए जरूरी अन्य दो विधायकों का समर्थन हासिल नहीं कर सकी।

आम आदमी पार्टी ने अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में सरकार बनाई इसमें नौ कांग्रेस विधायकों के बाहरी समर्थन  शामिल था । कांग्रेस के बाहरी समर्थन से, केजरीवाल ने 28 दिसंबर, 2013 को दिल्ली के सातवें मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली।

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लेकिन हनीमून जल्द ही समाप्त हो गया जब 49 दिनों के कार्यकाल के बाद, अरविंद केजरीवाल ने 14 फरवरी, 2014 को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। तब विधानसभा को निलंबित रखा गया था और राष्ट्रपति शासन लगाया गया था। फिर 2015 में नए चुनाव हुए, जिसमें AAP ने 70 में से 67 सीटें जीत लीं।

क्या कांग्रेस दूसरे ‘महाराष्ट्र’ की प्रतीक्षा कर रही है?

2014 के बाद से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की तुलना में कांग्रेस पार्टी काफी हद तक कमजोर हो चुकी है। नरेंद्र मोदी के एक राष्ट्रीय नेता के रूप में उभरने और अपने तीन बार के मुख्यमंत्री शीला  दीक्षित के निधन के बाद इसके पास कोई बड़ा चेहरा भी नहीं है। इसीलिए कांग्रेस, आम आदमी पार्टी के खिलाफ उतनी आक्रामक नहीं है जितनी कि शुरू में हुआ करती थी।

हाल ही में संपन्न महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव इसका एक शानदार उदाहरण है। 105 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद , भाजपा को अपने चुनाव पूर्व सहयोगी शिवसेना के रूप में सत्ता से बाहर होना पड़ा, जिसने 56 सीटें जीतीं थी। राज्य में सत्ता के बंटवारे के मुद्दे पर भाजपा के साथ जाने से शिव सेना ने इनकार कर दिया और दूसरे विकल्प चुने।

शरद पवार के नेतृत्व वाली राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने 54 सीटें जीतीं और कांग्रेस ने 44 सीटें हासिल कीं। यह भाजपा और शिवसेना के बीच के कड़वे झगड़े का नतीजा था कि शिवसेना ने अपने पुराने समय के सहयोगी को छोड़कर एनसीपी और कांग्रेस के साथ राज्य में सरकार बना ली।

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AAP के खिलाफ राष्ट्रवाद आधारित भाजपा के गहन अभियान के बाद, कांग्रेस शायद 11 फरवरी को दिल्ली विधानसभा के परिणामों के नतीजे आने का इंतजार कर रही है और अगर आम आदमी पार्टी की सीटें ज्यादा काम हो जाती हैं तो कांग्रेस निश्चित रूप से आम आदमी पार्टी का समर्थन करने के लिए इंतजार कर रही होगी और इस तरह वह 2020 की नई दिल्ली सरकार का हिस्सा बन सकती है।

(लेखक स्‍वतंत्र पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)

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