Saturday - 6 January 2024 - 9:03 PM

बच्चे बुजुर्गों की लाठी कब बनेंगे!

सुरेद्र दुबे 

एक जमाना था जब अम्मा-बप्पा बच्चों के लिए बहुत बड़ी धरोहर होते थे। भगवान के बाद बच्चे उन्हीं का सम्मान करते थे और उनके हर आदेश को मानना, हर परिस्थिति में उनकी देखभाल करना, उनके जीवन का एक बड़ा लक्ष्य होता था और इसमें महती भूमिका निभाता था संयुक्त परिवार।

संयुक्त परिवार अपने आप में एक मोहल्ला होता था, जिसमें कई पीढिय़ों के लोग आपस में एक साथ रहते थे और एक दूसरे का दुख या खुशी के पल बांटने के लिए तत्पर रहते थे। क्योंकि पूरे एरिया में ऐसे ही संयुक्त परिवार होते थे, तो पास पड़ोस भी अपने घर जैसा ही लगता था। उस जमाने के लोग इतने सभ्य नहीं थे कि वह अपनी बात सोशल मीडिया पर रखते, इसलिए आमने-सामने ही बात कर लेते थे।

रिश्तों की गर्माहट हर समय ताजातरीन बनी रहती थी। गिले-शिकवे भी होते थे और शाम तक खत्म हो जाते थे। सारी बातें फेस-टू-फेस होने के कारण कहीं कोई गलतफहमी नहीं रहती थी। आज बातें फेसबुक पर होती है, जिसमें फेस-टू-फेस आदमी नहीं होता। जो हमारे रिश्तों को जीने के नए अंदाज में बदलता जा रहा है।

बड़े बुजुर्गों की गलती से या कहें लोगों के निजी स्वार्थवश संयुक्त परिवार टूटते गए और इसकी जगह ले ली एकल परिवार ने। जिसे हम न्यूक्लियर फैमली कहते हैं। अंग्रेजी में परिवार की परिभाषा करना जरूरी है। वरना हम गंवार समझे जायेंगे। इसलिए मैंने एकल परिवार का अंग्रेजी तर्जुमा आप लोगों के सामने रख दिया है।

अब जब हम लोग एकल परिवार की ओर बढ़े तो हमारे अम्मा-बप्पा, माताजी-पिताजी हो गए। फिर जब हमने एकल परिवार कल्चर को पूरी तरह आत्मसात कर लिया तो हमारे माताजी-पिताजी, मम्मी-डैडी या मम्मी-पापा हो गए। देखने में लगता है कि शब्द बदल जाने से क्या मां-बाप बदल गए। जी हां। आज भी आप अपने मम्मी-डैडी को अगर अम्मा-बाबूजी या अम्मा-बप्पा कहकर देंखे, तो आपके मुंह से प्यार की जो लार टपकेगी उस मिठास को भुला पाना मुश्किल होगा। नयी पीढ़ी को तो इस मिठास का एहसास ही नहीं है।

खैर न्यूक्लियर फैमिली कालोनियों में, फ्लैट्स में रहने लगी और मां-बाप एकाकी जीवन व्यतीत करने के लिए अभिशप्त हो गए। बेटा-बहू दोनों नौकरी पर निकल जाते हैं, घर में मां-बाप अकेले हैं। यहां तक फिर भी एक सहनीय संयुक्त परिवार है। पर यह भी बहुत समय नहीं चला। मां-बाप को पहले सर्वेंट क्वार्टर में और बाद में किसी किराए के मकान में शिफ्ट कर बच्चों ने मां-बाप पर बहुत बड़ा एहसान किया। लेकिन यह व्यवस्था भी बहुत नहीं चली। रिश्तों की गर्माहट कमतर होती चली गई, क्योंकि रिश्ते लगातार संपर्क में रहने, आपस में संवाद करने, जरूरत पडऩे पर एक-दूसरे को झिड़क देने से लगातार मजबूत होते रहते हैं, पर अब जब  आमना-सामना ही नहीं है तो काहे के रिश्ते और किस काम के मां-बाप। सो बुजुर्गों का जीवन लगातार एकाकी होता जा रहा है।

कुछ बुजुर्ग जिनके पास पेंशन की धरोहर है वह  घरों में अपनी पेंशन के बल पर किसी तरह टिके हुए हैं, पर जिनके पास कोई आर्थिक संसाधन नहीं है उनके लिए बुढ़ापा एक सजा से कम नहीं है। बच्चे पूछते नहीं और हमारे यहां वृद्धा आश्रम भी एक तरह घोटाले के केन्द्र हैं। बड़े-बड़े परिवारों के बुुजुर्ग अपने बच्चों की लाज बचाए मंदिरों की खाक छानते घूमते हैं और भंडारे से अपनी भूख मिटाकर भगवत भजन में लगे रहने का उपक्रम करते हैं।

अक्सर हम लोग विदेशों की बात करते हैं कि वहां भी बच्चे अपने मां-बाप से अलग रहते हैं, पर ऐसे लोग भूल जाते हैं कि इन देशों में सोशल सिक्योरिटी का ताना-बाना बड़ा मजबूत है। ये ठीक है कि वे अपने बच्चों के प्यार से महरूम हैं पर बाकी खाना-पीना, रहना, चिकित्सा और परलोग सिधार जाने पर अंतिम संस्कार सबकुछ व्यवस्थित है।

हमारे यहां तो स्थिति बिल्कुल अलग है। अगर बच्चों ने मां-बाप को छोड़ दिया और मां-बाप के पास कोई आर्थिक थाती ना हुई तो फिर उनके सामने शेष जीवन बिलख-बिलखकर जीने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता है।

मैंने बेसहारा बुजुर्गों पर इतनी लंबी चर्चा इसलिए की क्योंकि मेरा ध्यान आज एक खबर पर गया,  जिसमें लिखा था कि आईआईटी खडग़पुर के छात्रों ने एक ऐप बनाया है जो बुजुर्गों की देखभाल करेगा। यह ऐप किसी बुजुर्ग के गिर जाने की सूरत में उनकी देखभाल करने वालों को तत्काल इसकी सूचना देगा। इसके अलावा इस ऐप की कई खूबिया बतायी गई हैं। जैसे यह ऐप बुजुर्ग व्यक्ति की मनोदशा का भी पता लगाएगा। जब कोई बुजुर्ग व्यक्ति यह एप चलाएगा तो फोन उसकी तस्वीर खींचेगा और मूड इंडेक्स की गणना करेगा। इससे उनके परिजनों को पता चलेगा कि उनका पूरे दिन मूड कैसा रहा।

अब आप ही बताइये आमने-सामने बैठकर तो मूड का पता ही नहीं चलता है तो फिर ऐप कौन सा मूड बतायेगा। अगर टेक्नोलॉजी ही आदमी के मूड का पता लगा लेती तो फिर फेसबुक में क्या बुराई है। उसी पर पोस्ट डालकर बच्चे मां-बाप का मूड पता कर लेते। 

अब मैं आता हूं असल मुद्दे पर। क्या अब इस देश में बुजुर्गों के इतने दुर्दिन आ गए हैं कि उन्हें बुढ़ापे में अपने बच्चों का लाड़-प्यार व दुलार पाने के लिए एक ऐप का सहारा लेना पड़ेगा। उन्हें ऐप से बताना पड़ेगा कि उनका मूड कैसा है, ताकि उनके गोलू-मोलू आकर उन्हें देख जाए। मुझे लगता है यह और दुखद होगा।

हालांकि मैं उन बच्चों की तारीफ करना चाहूंगा जिन्होंने कम से कम बुजुर्गों के बारे में सोचा तो। वरना नई पीढ़ी को अपने जीवित पुरखों के बारे में पूछने की फुर्सत कहां है। स्वर्ग सिधार चुके पुरखों को तो श्राद्ध के पखवारे में जल तर्पण कर याद भी कर लिया जाता है, पर जीवित पुरखे तो इसके लिए भी तरस जाते हैं। बेहतर हो समाज इन असहनीय स्थितियों पर गंभीरता से विचार करें और वो पुराने दिन वापस लौटाने की चेष्टा करें जिसमें बच्चे बुजुर्गों की लाठी होते थे और उन्हें किसी ऐप की दरकार नहीं होती थी।

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)

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