Saturday - 6 January 2024 - 3:57 PM

वसंत पंचमीः क्या आप जानते हैं ये सुंदर कथा

जुबिली न्यूज़ डेस्क

लखनऊ। वृन्दावन के सप्त देवालयों में राधा श्याम सुन्दर मंदिर ही एक मात्र ऐसा मंदिर है जिसके श्री विग्रह को राधारानी ने अपने हृदय कमल से वसंत पंचमी को प्रकट किया था और बाद में उसे परमभक्त श्यामानन्द प्रभु को दिया था।

इसे संयोग ही कहा जाया कि यह पावन दिन वसंत होने के कारण इस दिन मंदिर का पर्यावरण न केवल वासंती बन जाता है बल्कि मुख्य श्री विग्रह के श्रंगार से लेकर प्रसाद तक वासंती रंग का ही होता है। बता दें कि इसकी पृष्ठभूमि में श्यामाश्याम की रासलीला की एक घटना है।

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मंदिर के महंत महाराज कृष्ण गोपाला नान्ददेव गोस्वामी प्रभुपाद ने बताया कि श्रीकृष्ण को अधिकतम आनन्द देने के लिए एक रात राधारानी ने निधिवन में तीव्र गति से जब नृत्य किया तो वे नृत्यलीला में इतनी निमग्र हुई कि उनके बाएं चरण से उनका इन्द्रनीलमणियों से जडित ‘मंजुघोष’ नामक नूपुर टूटकर रासस्थली में गिर पड़ा लेकिन नृत्यलीला में निमग्र होने के कारण उस समय किसी को इसका पता नहीं चल सका। इस दिन मंदिर के पाटोत्सव में कृष्ण भक्ति की गंगा प्रवाहित होती रहती है।

उन्होंने बताया कि राधारानी के नूपुर गिरने के अगले दिन श्रील श्यामानन्द प्रभु (जो स्वयं श्री महाविष्णु के अवतार एवं श्रीराधा की कनकमंजरी कहे जाते थे) जब सोहनी (झाड़ू) और खुरपा लेकर निधवन पहुंचे तो सफाई शुरू करने के पहले ही उन्होंने दाडिम पेड़ के नीचे श्मंजुघोष्य नामक नूपुर पड़ा पाया।

उन्होंने उस नूपुर को उठाकर अपने उत्तरेय में रख लिया और सफाई में लग गए। कुछ समय बाद ही राधारानी अपनी सखियों ललिता, विशाखा और वृन्दा के साथ उस स्थल पर आईं जहां पर नूपुर गिरा था तो राधारानी तो अन्य सखियों के साथ ओट में खड़ी हो गईं मगर ललिता सखी श्रील श्यामानन्द प्रभु के पास जाकर उनसे नूपुर के बारे में पूछतांछ करने लगीं।

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राधारानी के आदेश से ललिता ने श्रील श्यामानन्द प्रभु को राधारानी का षड़ैश्वर्यपूर्ण मंत्र देकर उन्हें राधाकुंड में स्नान कराया जिससे वे मंजरी स्वरूप को प्राप्त हो गए। सखियां उन्हें दिव्य वृन्दावन में राधारानी के पास ले गईं। राधारानी के दर्शन कर श्रील श्यामानन्द प्रभु धन्य हो गए और उन्होंने राधा जी को उनका नुपुर लौटा दिया तो राधारानी ने उसे उनके मस्तक से जैसे ही स्पर्श कराया उनके ललाट पर राधारानी के चरण का तिलक बन गया। ललिता सखी ने उन्हें नया नाम ‘श्यामानन्द’ दिया जबकि विशाखा सखी ने उनको ‘कनकमंजरी’ कहकर संबोधित किया।

एक दिन राजा रानी, पुरोहित व अन्य के साथ उस विगृह को साथ लेकर श्रील श्यामानन्द प्रभु की कुटी में वृन्दावन पहुंचे और स्वप्र का विवरण सुनाया तो वे बहुत प्रसन्न हुए और इसे श्रील जीव गोस्वामी को बताया तथा उनकी आज्ञा पर बसंत पंचमी सन 1580 ईसवी को श्रील श्यामानन्द प्रभु की कुंज में राधारानी के हृदय कमल से प्रकट हुए श्यामसुन्दर का स्वयं प्राकट्य श्री राधा विग्रह के साथ धूमधाम से विवाह हुआ।

विवाह के बाद राजा ने वहां पर एक मंदिर निर्माण कराकर नित्य सेवा के लिए मथुरा के छटीकरा नामक ग्राम के साथ सम्पत्ति प्रदान की। इस दिन मंदिर प्रांगण आध्यात्मिक पर्यावरण से परिपूर्ण हो जाता है तथा अनूठे युगल विग्रह के दर्शन से मोक्ष की प्राप्ति होती है।

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