Sunday - 7 January 2024 - 5:40 AM

उलटबांसी : अंत में त्रिवेदी भी नहीं बचेगा

अभिषेक श्रीवास्तव

आजकल मुझे अल्लाामा इक़बाल बहुत याद आ रहे हैं। अब माहौल ही कुछ ऐसा है कि मुसलमानी नाम लेते हुए थोड़ा डर लगता है। पता चला उधर से कोई बल्लम उठाकर पूछ दिया- सुधाकर पांडे क्यों नहीं याद आ रहे? अब इससे क्या‍ फ़र्क पड़ता है कि सुधाकर पांडे कौन हैं या थे, लेकिन नाम सही होना चाहिए। खालिस स्वदेशी। पांडे, त्रिपाठी, मिश्रा, तिवारी, शर्मा, शुक्ला , त्रिवेदी…। जैसे अपना चंद्रयान स्वदेशी है। जैसा प्रधानजी ने कल ‘मन की बात’ में बताया था ।

चंद्रयान से याद आया कि पिछली बार मैंने इस बात पर चिंता जतायी थी कि इसका प्रक्षेपण कवियों के लिए आपातकाल लेकर आया है । पता नहीं मुझे इतना सटीक पूर्वाभास कहां से हो जाता है। सोमवार को स्तम्भ छपा और दो दिन बाद ही हिंदी के एक मानिंद कवि ने कविता, कहानी के अंत का फ़रमान जारी कर दिया । ठीक उसी दिन एक कम पचास बौद्धिकों ने फेसबुक पर लिखने के बजाय सोचा कि सीधे प्रधानजी को ही चिट्ठी लिख दी जाए । चिट्ठी जारी होते ही मामला बैकफायर कर गया। गिन कर पूरे बासठ अन्य बौद्धिकों ने एक और चिट्ठी कर पहले वालों की भर्त्सना कर दी।

बात यहीं नहीं रुकी। ये दिल मांगे मोर ! मुजफ्फरपुर में एक वकील साहब हैं । उन्हें हिंदू एग्जिस्टेंस नाम की एक वेबसाइट चलाने वाले ब्रह्मचारीजी ने बताया कि फलाने-फलाने ने प्रधानजी को चिट्ठी लिखी है, आपको कुछ कार्रवाई करनी चाहिए । वकील साहब ने तड़ से उनचासों पर राजद्रोह का मुकदमा ठोक दिया । चैनलों पर ”असहिष्णुनता गैंग रिटर्न्स्” चलने लगा ।मामला वायरल हुआ । एक भाजपा नेता का खून खौला । उसने कह डाला कि बुद्धिजीवियों को गोली मार देनी चाहिए ।

उनचास बनाम बासठ की लड़ाई में फेसबुक पोस्ट लिखने वाला अकेला कवि तो बच गया, लेकिन बुद्धिजीवी चिट्ठी लिखकर सामूहिक राजद्रोह कर बैठा । दोनों का दर्द एक ही था लेकिन कवि अकेला था । चर्चा में नहीं आया । इसे कहते हैं लोकतंत्र की ताकत । लोकतंत्र में संख्या मायने रखती है। राजनीति संख्याओं का खेल है। उनचास कवि साथ आ जाएं तो अवार्ड वापसी गैंग बन जाता है। अकेला कवि नक्कारखाने की तूती भी नहीं बन पाता । अल्लामा इक़बाल यहीं याद आते हैं जो बरसों पहले लिखकर चले गए:

जम्हूरियत इक तर्ज़-ए-हुकूमत है कि जिस में / बंदों को गिना करते हैं तौला नहीं करते

ऐसी गिनती हमें पिछले तीन साल से देखने को मिल रही है । कुछ लोगों ने इंडिया गेट पर असहिष्णुता के खिलाफ नारा लगाया था। उससे ज्यादा लोग एक दिन वहां उनके खिलाफ इकट्ठा हो गए । चुनाव से पहले कुछ सौ लेखकों ने प्रधानजी को सत्ता में न लाने का आह्वान किया था । उसके तुरंत बाद गिन कर उनसे ज्यादा लेखकों ने प्रधानजी को सत्ता में लाने का आह्वान कर दिया। ”जिसकी जितनी संख्या् भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी”- का मामला उलट गया है । अब फार्मूला है- जिसकी जितनी हिस्सेदारी उसकी उतनी संख्या् भारी । आंख बंद कर के ज्यादा संख्या के हिसाब से आप मान सकते हैं कि ये सब वे हैं जिन्हे हिस्सा मिला है। जिनकी संख्या कम है, उन्हें हिस्सा नहीं मिला है। एक हिस्सेदार गायिका ऐसे लोगों को ”हारे हुए हताश लोग” कह रही है।

अब हारे हुए लोगों को गोली मारने की बात की जा रही है़ । बात निकली तो सवाल उठा कि ऐसे बुद्धिजीवियों की पहचान कैसे की जाएगी । मेरे मित्र ने कहा कि देश भर में बुद्धिजीवी परीक्षण केंद्र खोले जाएं । वहां बी-पॉजिटिव और बी-नेगेटिव का प्रमाण पत्र जारी किया जाए । बी-पॉजिटिव मने खेल खत्तम । बी-नेगेटिव मने हिस्सा । ऐसे एक बुद्धिजीवी टेस्टिंग किट पर सरकार काम कर रही है । वैसे सरकार के पास पहले से एक नुस्खा‍ मौजूद है जिसे याद दिलाना मौजूं होगा।

प्रधानजी जब नए-नए लुटियन आए थे तो उन्होंने  एक विदेशी पत्रिका को इंटरव्यू दिया था। उन्होंने बड़े काम की बात कही थी कि इस देश का मुसलमान देश के लिए जान भी दे सकता है, इतना बड़ा देशभक्त है । इस बयान के बाद एक मुसलमान से पूछा गया बोल बेटा देश के लिए जान देगा या नहीं । उसने कहा नहीं, कतई नहीं । ऐसा कहते ही वह देशद्रोही हो गया और उसका सिर कलम कर दिया गया । नेक्स्ट …!

 

अगला आया । पहले वाले का हश्र देखकर वह डरा हुआ था । उससे पूछा गया बोल बेटा देश के लिए जान देगा या नहीं । उसने पूरे कॉन्फिडेंस में कहा- जी, बिलकुल दूंगा । इस जवाब ने उसका जिबह आसान कर दिया । देश के लिए उसकी जान ले ली गई ।

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पांच साल बाद जब प्रधानजी जीत कर लौटे तब तक दोनों के डीएनए टेस्ट की रिपोर्ट आ चुकी थी । पता चला पहला वाला, जिसने देश के लिए जान देने से इनकार किया था, वह पेशे से बुद्धिजीवी था । दूसरा वाला कवि था । बुद्धिजीवी का हश्र देखकर कवि ने चतुराई बरती थी लेकिन वह नहीं जानता था कि सवाल इतना सीधा नहीं था । ”आप अपनी बीवी को महीने में कितनी बार पीटते हैं” टाइप मामला था । दुधारी तलवार थी । कवि देश के लिए जान देने को तैयार था इसलिए बिना चिट्ठी लिखे ही मारा गया ।

ऊपर पहुंचने पर उसने सोचा कि शिकायत करेगा कि उसके साथ धोखा हुआ है । पता चला चित्रगुप्त के पास पहले से ही उसके नाम का सहमति पत्र पहुंचा हुआ था ।

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कहानी का अंत कुछ यूं होता कि स्वमर्ग-नर्क की कॉमन एंट्री पर बुद्धिजीवी की निगाह कवि पर पड़ी ।उसने हाथ बढ़ाया- माइसेल्फ‍ भट्टाचार्या । कवि ने जवाब दिया- जी, मैं त्रिवेदी । बंगाली बाभन ने हैरत से पूछा- क्या तुमने भी हमारी तरह ही चिट्ठी लिखी थी? क्याी तुमने भी कहा था कि देश के लिए जान नहीं दूंगा ? कवि बाभन ने सोचा उसकी सुनवाई तो होनी नहीं है, इज्ज़त ही बच जाए कम से कम । उसने वहां भी झूठ बोल दिया और बोलते ही डेढ़ लीटर ग्लानि से भर गया। इस ग्लानि के विसर्जन के लिए वहां फेसबुक उपलब्ध् नहीं था वरना कविता के लिए स्वर्ग कोई बुरी जगह नहीं थी ।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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