कुमार भवेश चंद्र
उत्तर प्रदेश की सियासत चुपके से एक नए दिशा में निकल पड़ी है। सियासत को यह दिशा मिली है विपक्ष के नए तेवर से। सत्तापक्ष जो अभी तक आगे की राजनीति को अपने ही पाले में देख रहा है, उसे अब निश्चित ही संभल जाने की जरूरत है। और जो संकेत मिल रहे हैं उससे समझ में यही आ रहा है कि सत्तापक्ष यानी बीजेपी विपक्ष की नई ताकत और ऊर्जा को पहचान चुकी है। और अब उसे यह भी समझ में आने लगा है कि उसे अपनी राजनीति और रणनीति में बदलाव करना ही होगा।
दरअसल, उन्नाव में ताजा कांड के बाद विपक्ष ने जिस तरह जमीन पर उतरकर सरकार और शासन प्रशासन की जड़ता का तीखा विरोध किया है, उससे सरकार की चूलें हिल गई हैं। जब हम सियासत में विपक्ष की मजबूत भूमिका की बात करते हैं तो इसका अर्थ यही होता है कि उसे अपनी पूरी ऊर्जा के साथ सरकार की खामियों को जनता के सामने रखना चाहिए। जनता के हक में काम करना सत्तापक्ष की संवैधानिक और नैतिक जिम्मेदारी तो होती है। लेकिन अगर वह अपने इस रास्ते से विचलित होने लगे तो विपक्ष की भूमिका प्रमुख हो जाती है।
सरकार को उसके नैतिक दायित्व का अहसास कराना और जनता के हित में सही फैसले करके के लिए दबाव बनाना आखिर तौर पर विपक्ष की ही भूमिका है।
उन्नाव-2 के बाद हम कह सकते हैं कि विपक्ष ने अपनी भूमिका समझ ली है। यह भी कह सकते हैं कि विपक्ष ने अपनी भूमिका संभाल ली है। योगी सरकार के सत्ता में आने के बाद यह संभवत: पहला ही मौका है जब विपक्ष ने सरकार और आम लोगों को अपनी पूरी ताकत का अहसास कराया है। विपक्ष की इतनी सक्रिय भूमिका और तीखा विरोध न तो गोरखपुर में बीआरडी मेडिकल कालेज कांड के बाद दिखा न सोनभद्र में उभ्भाकांड के बाद। लेकिन उन्नाव-2 आते आते अगर उन्हें समझ में आने लगा कि विपक्ष के तौर पर उन्हें अपनी भूमिका संभाल लेनी चाहिए। विपक्ष के इस रुख में बदलाव का स्वागत तो होना ही चाहिए।
2019 के चुनाव नतीजों ने संभवत: विपक्षी दलों को इस बात का अहसास करा दिया था कि जमीन पर उनकी ताकत बहुत कम हैं। केवल कमियों के आधार पर सरकार को घेरकर चुनाव जीतने की उनकी योजना धाराशायी हो चुकी है। उन्हें इस बात का पूरा इलहाम है कि अगर वे जमीन पर आम लोगों के बीच सक्रिय नहीं रहेंगे तो जनता के दिलो दिमाग से उतर जाएंगे। विपक्ष को यह बात भी अच्छी तरह समझ में आ गई कि टीवी पर अपने प्रवक्ताओं की थोथी दलीलों से सरकार को घेरने की कोशिश से उन्हें कुछ नहीं मिलने वाला। यही वजह है कि 2019 के चुनाव नतीजे आने के बाद से सपा-कांग्रेस ने अपने प्रवक्ताओं को टीवी चैनलों पर भेजना बंद कर दिया है। बसपा तो पहले भी अपने लोगों को चैनलों पर नहीं भेजती थी। इस बीच सभी सियासी दलों ने सोशल मीडिया पर भी खूब सक्रियता बढ़ा दी है। यह बात भी अब लगभग साफ हो गई है कि इस प्लैटफार्म पर उन्हें चर्चा तो मिल सकती है लेकिन वोट और जन समर्थन के लिए उन्हें आखिरकार जमीन पर ही उतरना होगा।
अब साफ है कि वे अब इस मंत्र को समझ चुके हैं। उन्हें पता है कि लोगों के बीच जाएंगे तभी कुछ बात बन पाएगी। उनकी लाज बच पाएगी। उनका अस्तित्व बच पाएगा। केवल चुनाव के दौरान सक्रियता और रैलियों में जयघोष, नारेबाजी से किसी भी सियासी दल का कोई भला होने वाला नहीं। लोकतंत्र के लिए यह एक शुभ संकेत है कि सरकार के साथ विपक्ष को भी जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का अहसास हो रहा है।
खैर अब बात करते हैं कि उत्तर प्रदेश में अलग अलग खेमे और अपनी ही समस्याओं से घिरे विपक्षी दलों में कौन कहां खड़ा है और उसकी कितनी जमीनी ताकत बची है। 2017 विधानसभा के चुनावी नतीजों के लिहाज से समाजवादी पार्टी प्रदेश में विपक्षी दल की प्रमुख भूमिका में है। बीजेपी के बाद सबसे अधिक सीटें जीतकर उसके विधायक नेता प्रतिपक्ष के पद पर आसीन हो गए। लेकिन क्या वह सरकार की नाकामियों को उजागर करने या सरकार की लापरवाही पर अंकुश रखने की अपनी भूमिका को सच्चे तरीके से निभा पा रहे हैं? विधानसभा के भीतर सरकारी नीतियों का विरोध अलग बात है।
विपक्ष की भूमिका जनता के बीच तब प्रखर मानी जाती है जब किसी भी संवेदनशील मुद्दे पर वह जनता के संघर्ष में साथ दिखे। सड़क पर दिखे। लेकिन समाजवादी पार्टी के नेता किसी भी बड़े मुद्दे पर सड़क कर संघर्ष करते हुए नहीं दिखे। देखा जाए तो यह पहला मौका है जब सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने खुद जमीनी संघर्ष को तेज करते हुए उन्नाव कांड-2 के आरोपियों को सख्त सजा और पीड़ित परिवार को न्याय की मांग को लेकर विधानसभा के सामने धरना शुरू किया। हालत ये थी कि उनके कार्यकर्ताओं तक भी इस बात की जानकारी नहीं थी कि उनके नेता इस तरह का प्रदर्शन करने जा रहे हैं।
लेकिन दूसरी ओर कांग्रेस ने इस कांड के बाद जन भावनाओं को पढ़कर सपा से अधिक बड़ा दांव फेंक दिया था। कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने सीधे उन्नाव में बलात्कार पीड़ित के गांव पहुंच कर इस मसले पर अपनी आवाज बुलंद की।
बात थोड़ी थोड़ी बसपा को भी समझ में आ रही थी। और इसीलिए विरोध के लिए ट्विट की आदत बना चुकी बसपा सुप्रीमो मायावती ने भी इस मसले पर राजभवन की चौखट लांघना ही उचित समझा।
अगर देखा जाय तो विपक्ष के जो चेहरे हैं, प्रियंका उनमें सबसे अधिक कम अनुभव वाली हैं। मायावती और अखिलेश यादव के मुकाबले उन्हें सियासत का कम अनुभव है। इसे कहने में कोई गुरेज नहीं। लेकिन इस मसले पर आगे आकर विरोध जताना और तीखा प्रहार कर सरकार को जनदबाव में लेने में उसकी भूमिका दूसरे के मुकाबले कहीं कमजोर नहीं थी। सोनभद्र के उभ्भाकांड के बाद भी प्रियंका ने वहां का दौरा किया था और उसके बाद प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने उस मामले में काफी सक्रियता दिखाई और कई दौरे किए। उन्नाव-2 में प्रियंका के दौरे के बाद ही सरकार ने अपनी फजीहत बचाने के लिए दो दो कैबिनेट मंत्रियों को उन्नाव के बिहार गांव भेजा। यह बात और है कि इन कैबिनेट मंत्रियों की वहां काफी फजीहत हुई और आखिरकार एक वरिष्ठ आईएएस अफसर की दखल के बाद ही पीड़ित परिवार को समझाया बुझाया जा सका।
बहरहाल, यूपी में चुनाव अभी काफी दूर हैं। लेकिन विपक्ष को अपनी भूमिका बनानी है। निश्चित ही उसकी यह भूमिका इस बात से नहीं बनेगी कि मौजूदा विधानसभा में उसके कितने सदस्य हैं। इस बात से भी बात नहीं बनेगी कि किसके पास अनुभवी नेता है। बात इसी से बनेगी कि अहम मसले पर कौन जनता के साथ खड़ा दिख रहा है। और कौन सरकार को सही दिशा में काम करने के लिए प्रेरित और मजबूर कर रहा है। विपक्षी नेता इस बात को जितनी जल्दी समझ लेंगे, यूपी की सियासत और यहां की जनता उनके पाले में खड़े दिखेंगे।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)
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