Wednesday - 10 January 2024 - 6:37 AM

करुणानिधि और जयललिता के बगैर भी तमिलनाडु में सत्ता की लड़ाई रोमांचक है

प्रीति सिंह

तमिलनाडु में अगले साल विधानसभा चुनाव होना है। इस लिहाज से पूरा माहौल चुनावी हो गया है। जहां सत्तारूढ़ अन्ना डीएमके अपने कामकाज के भरोसे सत्ता में आने का सपना देख रही है तो वहीं विपक्षी दल डीएमके अध्यक्ष एम.के. स्टालिन के भी लोकसभा चुनाव में मिली भारी-भरकम जीत से हौसले बुलंद हैं।

तमिलनाडु विधानसभा का मौजूदा पांच साल का कार्यकाल अगले साल 24 मई को खत्म हो रहा है। विधानसभा चुनावों के लिये अगले साल के शुरू में घोषणा होने की उम्मीद है।

सत्ताधारी अन्नाद्रमुक ने बीते सोमवार को निर्वाचन आयोग से अनुरोध किया कि वह अगले साल अप्रैल के तीसरे या चौथे हफ्ते में प्रदेश में विधानसभा चुनाव करवाए तो वहीं मुख्य विपक्षी दल द्रमुक और अन्य दलों ने भी राज्य में एक चरण में चुनाव कराने की की मांग की है।

इस बार विधानसभा का चुनाव काफी रोचक होने की उम्मीद है। सुपरस्टार रजनीकांत की राजनीति में एंट्री की घोषणा से राजनीतिक समीकरण बदलने के आसार हैं, लेकिन मुख्य विपक्षी दल डीएमके के नेता मानते हैं कि अब की बारी स्टालिन की है।

भाजपा भी काफी मेहनत कर रही है। भाजपा के रडार पर लंबे समय से तमिलनाडु है। इस राज्य में अपनी राह आसान करने के लिए भाजपा लगातार कोशिश कर रही है पर अब तक उसे सफलता नहीं मिली है। राज्य की दो द्रविड़ पार्टियों से मिल रही चुनौती के बाद से भाजपा को एहसास हो गया है कि अकेले दम पर पांव जमाना आसान नहीं है। इसीलिए उसने आगामी विधानसभा चुनाव के लिए अन्नाद्रमुक के साथ गठबंधन किया।

स्टालिन पिछले कई सालों से मुख्यमंत्री की कुर्सी से दूर हैं। राजनीतिक पंडितों का मानना है कि  इस बार उनका मुख्यमंत्री बनना तय है। डीएमके अध्यक्ष एम.के. स्टालिन ने भी मई, 2021 में होने वाले तमिलनाडु विधानसभा चुनाव में 234 सीटों वाली विधानसभा में कम से कम 200 सीटें जीतने का लक्ष्य निर्धारित किया है।

अपने इस ‘मिशन 200’ को कामयाब करने के लिए स्टालिन ने भ्रष्टाचार, तमिल स्वाभिमान और द्रविड़ सिद्धांतों को मुख्य चुनावी मुद्दे बनाने का फैसला किया है। ऐसा ही कुछ रजनीकांत भी करने वाले हैं। वह भी भ्रष्टाचार के मुद्दे को लेकर गंभीर हैं।

फिलहाल स्टालिन अपने मिशन में कामयाब होते है या नहीं यह तो आने वाला वक्त बतायेगा लेकिन डीएमके की जो रणनीति है उससे उम्मीदों को बल मिलता है।

दरअसल डीएमके के हौसले इसलिए भी बुलंद है, क्योंकि जिस तरह की शानदार जीत डीएमके ने अपनी सहयोगी पार्टियों के साथ मिलकर 2019 के लोकसभा चुनाव में दर्ज की थी, उससे स्टालिन उत्साहित है।

2019 के लोकसभा चुनाव में तमिलनाडु की 39 में से 38 सीटों पर डीएमके और उसकी सहयोगी पार्टियों ने जीत दर्ज की थी। डीएमके के सभी उम्मीदवार विजयी हुए थे। सिर्फ एक सीट पर कांग्रेस के उम्मीदवार की हार हुई थी।

इसके अलावा एक बड़ी वजह और है। डीएमके को लगता है कि मौजूदा सरकार के खिलाफ जनता में रोष है। पार्टी का आरोप है कि तमिलनाडु में भ्रष्टाचार चरम पर है और जनता इससे त्रस्त है। हाल ही में स्टालिन ने राज्यपाल भंवरलाल पुरोहित से मिलकर उन्हें अन्ना डीएमके सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की लिस्ट सौंपी और इन आरोपों की जांच कराने की मांग की।

स्टालिन ने भ्रष्टाचार के अलावा तमिल स्वाभिमान और द्रविड़ सिद्धांतों को भी राजनीतिक हथियार बनाकर सत्ताधारी पार्टी पर हमले करने की रणनीति बनाई है।

2019 में जब लोकसभा चुनाव हो रहा था तब हर किसी की जुबान पर एक ही सवाल था कि तमिलनाडु की राजनीति के दो दिग्गजों जयललिता और करुणानिधि के बिना ये चुनाव कैसे होगा। इन राजनीतिक नायकों के बिना लोकसभा चुनाव हुआ और आने वाले समय में विधानसभा चुनाव होना है।

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मोदी और शाह के इशारे पर काम कर रहे मुख्यमंत्री

डीएमके का आरोप है कि मुख्यमंत्री पलानीसामी और उपमुख्यमंत्री पन्नीरसेल्वम स्वतंत्र निर्णय नहीं ले सकते हैं। ये दोनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के इशारों पर काम कर रहे हैं।

स्टालिन मतदाताओं को यह कहकर अपनी ओर खींचने की कोशिश कर रहे हैं कि अगर अन्ना डीएमके सत्ता में बनी रही, तो प्रदेश में शासन दिल्ली का ही होगा। राज्य से जुड़े सभी राजनीतिक और प्रशासनिक फैसले दिल्ली में लिए जाएंगे। इतना ही नहीं, बीजेपी के प्रभाव में अन्ना डीएमके द्रविड़ मूल्यों को छोड़ चुकी है और वह भी साम्प्रदायिक रंग में रंगने लगी है।

वहीं राजनीतिक पंडितों का कहना है कि अन्ना डीएमके के बीजेपी के साथ गठगोड़ को मुद्दा बनाकर स्टालिन अल्पसंख्यकों, दलितों और अति पिछड़ी जाति के मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने में जुटे हैं।

वहीं डीएमके के रणनीतिकारों का मानना है कि तमिलनाडु में अब भी ज्यादातर लोग ‘मनुवादी विचारधारा’ के खिलाफ हैं। इतना ही नहीं, कई लोग बीजेपी को इसी विचारधारा को आगे बढ़ाने वाली पार्टी के तौर पर देखते हैं।

चूंकि पिछले चार दशकों से तमिलनाडु में द्रविड़ संस्कृति, मूल्यों को मानने वाली पार्टियाां ही सत्ता में रही हैं, इसलिए डीएमके को लगता है कि बीजेपी से गठजोड़ करने के बाद अन्ना डीएमके को लोग अब द्रविड़ पार्टी की तरह नहीं देखेंगे।

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अन्ना डीएमके के पास नहीं है कोई करिश्माई नेता

जानकारों की माने तो सत्तारूढ़ अन्ना डीएमके का पलड़ा कमजोर है। अन्ना डीएमके के पास कोई करिश्माई नेता न होने का सीधा फायदा डीएमके को मिलेगा। ‘अम्मा’ यानी जयललिता के निधन से अन्ना डीएमके में कोई करिश्माई और सर्वमान्य नेता नहीं बचा है।

इसके अलावा एआईएडीएमके ने बीजेपी से हाथ मिलाकर अपनी ही ताकत कमजोर कर ली है। वरिष्ठ पत्रकार सुशील वर्मा कहते हैं कि दरअसल एआईएडीएमके बीजेपी को अपने कंधों पर ढो रही है।

हालांकि भाजपा राज्य में अपना जनाधार बढ़ाने और अपने हिंदुत्व के एजेंडे को धार देने के लिए काफी मेहनत कर रही है। पिछले महीने भाजपा ने पूरे राज्य में वेत्रीवेल यात्रा’ निकाली थी। अब ये भी जान लेते हें कि ‘वेट्री वेल यात्रा’ क्या है। वेत्रीवेल यात्रा उस रथ यात्रा की तरह ही है जिसे बीजेपी देश के अन्य हिस्सों में समय-समय पर निकालती रही है। भाजपा ने तमिलनाडु में भी यह प्रयोग किया है। इस यात्रा के तहत भाजपा ने तमिलनाडु के अलग-अलग जिलों और क्षेत्रों में अपना जनसंपर्क तेज किया।

दो दलों का रहा है वर्चस्व

गौर करने वाली बात है कि द्रविड़ आंदोलन के प्रणेता ‘पेरियार’ रामसामी की पार्टी द्रविड़ कडग़म से अलग होकर अन्नादुरै ने कुछ नेताओं के साथ मिलकर द्रविड़ मुनेत्र कडग़म (डीएमके) बनाई थी। करुणानिधि और एम.जी.रामचंद्रन (एमजीआर) भी इस पार्टी से जुड़ गये थे। लेकिन अन्नादुरै के निधन के बाद करुणानिधि और एमजीआर में वर्चस्व की लड़ाई शुरू हुई। एमजीआर ने अपनी अलग पार्टी ऑल इंडिया अन्ना डीएमके बना ली। तब से लेकर अब तक तमिलनाडु में या तो डीएमके की सरकार रही है या अन्ना डीएमके की।

आसान नहीं है राह

तमिलनाडु की सत्ता की राह अबकी बार किसी के लिए आसान नहीं है। सत्तारूढ़ एआईएडीएमके अपने कामकाज के भरोसे सत्ता में आने का ख्वाब देख रही है तो वहीं डीएमके सरकार की नाकामियां गिनाकर। भाजपा भी काफी आशान्वित है। वह भगवान मुरूगन और एआईएडीएमके के भरोसे है तो कांग्रेस डीएमके के भरोसे।

लेकिन राजनीति के जानकार मानते हैं किसी की भी राह आसान नहीं है, स्टालिन की भी नहीं। उन पर परिवारवाद और भाई-भतीजावाद को बढ़ावा देने का आरोप है। अन्ना डीएमके के नेता डीएमके पर एक परिवार की पार्टी होने का आरोप लगाकर राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश कर रहे हैं। बहरहाल, करुणानिधि और जयललिता के बगैर भी तमिलनाडु में राजनीति दिलचस्प और सत्ता की लड़ाई रोमांचक है।

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