Sunday - 7 January 2024 - 9:08 AM

डंके की चोट पर : उस टाईपराइटर ने बदल दी अमर सिंह की किस्मत

शबाहत हुसैन विजेता

सिंगापुर के अस्पताल में अमर सिंह ने अपनी आख़री सांस ली. उनकी आँख मुंदते ही लोगों के ज़ेहनों में कैद तमाम फ़िल्में चलने लगीं. अमर सिंह के होने और न होने के मायनों पर बात होने लगी. वह राज्यसभा सांसद थे. उद्योगपति थे. फ़िल्मी दुनिया में उनके बड़े गहरे रिश्ते थे. भारतीय राजनीति में उनकी ज़रूरत और योगदान की बात की जाए तो अमर सिंह एक शानदार मैनेजर थे. वह खुद यह बात डंके की चोट पर कहते थे कि मैं दलाल हूँ. वह अक्सर एक बात बोलते थे कि You love me, You hate me But you cant ignore me.

हकीकत यही है कि अमर सिंह को राजनीति में कभी भी इग्नोर नहीं किया जा सकता. अमर सिंह शानदार वक्ता थे. साफगोई से अपनी बात कहते थे. आरोपों को फ़ौरन स्वीकार कर लेते थे. दोस्ती और दुश्मनी दोनों आमने-सामने करने के पक्षधर थे. दोस्ती करने वालों कि आउट ऑफ़ वे जाकर मदद करते थे और दुश्मनी करने वालों के खिलाफ जमकर बोलते थे. किसी की परवाह करना उनकी फितरत का हिस्सा नहीं था.

समाजवादी पार्टी में आने के बाद किसान नेता मुलायम सिंह यादव को उन्होंने चमक-दमक से जोड़ दिया. जिन मुलायम सिंह यादव को चौधरी चरण सिंह का उत्तराधिकारी कहा जाता था उनके चारों तरफ फ़िल्मी हस्तियों को खड़ा कर दिया. सहारा इण्डिया परिवार और मुलायम सिंह यादव के बीच की कड़ी अमर सिंह ही थे. मुलायम सिंह यादव और अमिताभ बच्चन के बीच की कड़ी भी अमर सिंह थे. सुब्रत राय और फ़िल्मी दुनिया के बीच की कड़ी भी अमर सिंह ही थे.

अमर सिंह राजनीति की बारीकियों को मंझे हुए राजनेताओं से ज्यादा बेहतर तरीके से समझते थे. समाजवादी पार्टी को क्षेत्रीय पार्टी से राष्ट्रीय पार्टी में बदलने के पीछे अमर सिंह ही थे. समाजवादी पार्टी के लिए बहुजन समाज पार्टी के टुकड़े कर देने वाले भी अमर सिंह थे.

अमर सिंह की सबसे बड़ी खासियत यह थी कि वह जिसके साथ भी जुड़ते थे उसके परिवार का हिस्सा बन जाते थे. अमिताभ बच्चन के साथ जुड़े तो उनके पूरे परिवार के साथ इस तरह से जुड़े कि अभिषेक बच्चन को अपना बेटा कहने लगे. अभिषेक की फ़िल्मी प्रेस कांफ्रेंस में भी अमर सिंह नज़र आते थे. अभिषेक की फिल्मों के प्रमोशन के लिए उनके साथ अमर सिंह देश भर में घूमते थे.

मुलायम सिंह यादव के करीबी बने तो अखिलेश यादव को बेटे की तरह देखने लगे. इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए अखिलेश का विदेश में न सिर्फ एडमिशन कराया बल्कि बीच-बीच में अखिलेश यादव से मिलने भी जाते थे. अखिलेश यादव और डिम्पल की शादी में भी अमर सिंह की बहुत बड़ी भूमिका थी. बताने वाले तो यहाँ तक बताते हैं कि मुलायम सिंह यादव की साधना गुप्ता के साथ दूसरी शादी में भी अमर सिंह का ही दिमाग था.

अमर सिंह ने अखिलेश यादव के साथ अभिभावक की तरह से जो व्यवहार किया था उसकी वजह से अखिलेश यादव भी उनकी दिल से इज्ज़त करते थे. प्रेस कांफ्रेंस में भी अमर सिंह का ज़िक्र आता था तो मुख्यमंत्री रहते हुए अखिलेश यादव उन्हें अमर सिंह अंकल ही कहते थे. अखिलेश के सामने अमर सिंह का हर आदेश पत्थर की लकीर की तरह से होता था.

अमर सिंह की खासियत यह थी कि वह जिसके साथ भी जुड़ते थे उसके अच्छे समय पर भी उसके साथ रहते थे और बुरे वक्त में भी उसके साथ खड़े रहते थे लेकिन जब उनके खुद के रिश्ते खराब हो जाते थे तो सार्वजानिक मंच से भी अपने पुराने दोस्त की जड़ खोदने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे.

एबीसीएल डूब जाने के बाद अमिताभ बच्चन जब दीवालिया होने की कगार पर आ गए थे और उनका बंगला प्रतीक्षा बिकने की नौबत आ गई थी तब अमर सिंह ने अनिल अम्बानी की मदद से अमिताभ बच्चन को डूबने से बचाया था. अमर सिंह का यही अहसान था कि जया बच्चन ने मुलायम सिंह यादव की तुलना में अमर सिंह को ज्यादा महत्व दिया था.

अमर सिंह और अखिलेश के रिश्तों में दरार तब आयी जब अखिलेश यादव और शिवपाल यादव के बीच जंग छिड़ गई. मुलायम दोनों को साथ लेकर चलना चाहते थे लेकिन बीच का रास्ता न शिवपाल को पसंद था और न अखिलेश को. शिवपाल के कहने पर मुलायम सिंह यादव ने जब समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष पद से अखिलेश को हटाकर शिवपाल को अध्यक्ष बनाने का फैसला किया तब अमर सिंह शिवपाल के साथ खड़े थे. अमर सिंह ने भी यही चाहा कि सरकार अखिलेश संभालें और पार्टी शिवपाल. अखिलेश को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाने का फैसला होने के बाद जब मुलायम सिंह यादव के घर का टाईपराइटर खराब होने की खबर अमर सिंह को मिली तो अमर सिंह ने गाड़ी भेजकर अपने घर से टाईपराइटर मंगवाया. जिस वक्त टाईपराइटर लेने के लिए गाड़ी अमर सिंह के घर गई हुई थी उसी वक्त किसी ने फोन कर अखिलेश को बता दिया था कि उन्हें प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाया जा रहा है. यही वह पल था जिसने अखिलेश यादव के दिल से अमर सिंह को निकाल फेंका.

अमर सिंह और मुलायम सिंह के रिश्ते ऐसे थे कि वह किसी भी सूरत में खराब नहीं होते थे. अमर सिंह और आज़म खां के बीच ज़बानी जंग चलती रहती थी लेकिन मुलायम न अमर सिंह को छोड़ते थे और न आज़म खां को. अमर सिंह की वजह से राजबब्बर ने समाजवादी पार्टी को छोड़ दिया लेकिन मुलायम ने अमर सिंह से कोई सवाल नहीं पूछा. अमर सिंह को लेकर पार्टी और परिवार में चल रहे घमासान के बावजूद मुलायम सिंह यादव ने अमर सिंह को राज्यसभा भेज दिया.

अमर सिंह पर इल्जाम है कि उनकी दोस्ती अमिताभ बच्चन से हुई तो अमिताभ और उनके भाई अजिताभ बच्चन के रास्ते अलग हो गए. अनिल अम्बानी से उनकी दोस्ती हुई तो अनिल और मुकेश अम्बानी अलग हो गए. समाजवादी पार्टी में आये तो आज़म खां पार्टी छोड़कर काफी दिन तक रामपुर में पड़े रहे. इन्हीं अमर सिंह की वजह से राजबब्बर ने पार्टी छोड़ दी. मुलायम के परिवार की जंग को अमर सिंह खत्म नहीं कर सकते थे तो उसका असर ज़रूर कम कर सकते थे क्योंकि अमर सिंह की बात को न शिवपाल टाल सकते थे न अखिलेश लेकिन अखिलेश को पार्टी अध्यक्ष से हटाने के लिए अपने घर से टाईपराइटर मंगवाकर उन्होंने चाचा भतीजे के बीच की खाई को तो चौड़ा किया ही साथ ही खुद अपने आप को भी समाजवादी पार्टी में बचाकर नहीं रख पाए.

अमर सिंह समाजवादी पार्टी से निकाले गए तो राज्यसभा सदस्य थे ही. अखिलेश से बिगाड़ के बाद पार्टी में उनकी वापसी भी संभव नहीं रह गई थी यही वजह है कि समाजवाद का चोला उतारकर उन्होंने हिंदुत्व का साफा बाँध लिया. भारतीय जनता पार्टी ने उनका इस्तेमाल तो खूब किया लेकिन उन्हें पार्टी में शामिल नहीं किया. जिस समाजवादी पार्टी ने उन्हें राज्यसभा में भेजा उसी को उन्होंने नमाज़वादी पार्टी बोलना शुरू कर दिया. समाजवादी पार्टी में रहते हुए जिस बीजेपी और संघ को वह पानी पी-पीकर कोसते थे समाजवादी पार्टी से निकलकर उसी की गोद में बैठ गए. संघ और बीजेपी से अमर सिंह कुछ हासिल तो नहीं कर पाए लेकिन अपनी 16 करोड़ की सम्पत्ति ज़रूर संघ के नाम कर गए.

अमर सिंह के न रहने पर अखिलेश ने दुःख भरा ट्वीट कर भी दिया लेकिन अमिताभ बच्चन ने सर झुकाए दुखी चेहरे वाली अपनी तस्वीर ट्वीट कर बहुत कुछ कह दिया. उनके न रहने पर सिर्फ जयाप्रदा ने खुलकर अपने दुःख का इज़हार किया. बाकी नेता तो जैसे इस इंतज़ार में दिखे कि देखें कि सामने वाला क्या बोलता है.

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अमर सिंह के पत्रकारों से बहुत अच्छे रिश्ते थे. हज़ारों शायरों के शेर उन्हें याद थे. उनके इंटरव्यू लाजवाब कर देने वाले होते थे. रिश्तों को निभाने की तरह दुश्मनी निभाना भी उन्हें अच्छी तरह से आता था. सत्ता की कमान कभी उनके हाथ में नहीं रही लेकिन कई ऐसे मौके आये हैं जिसमें उन्होंने सत्ता कमाकर दोस्तों को दे दी है. वह लम्बे समय से बीमार थे. बीमारी में न सियासी लोग उनके साथ थे, न दोस्त और न दुश्मन. बहुत ज्यादा उम्र नहीं थी उनकी. दोनों बेटियों दिशा और दृष्टि को अभी उनकी बहुत ज़रुरत थी. सियासत-फिल्म और उद्योग जगत के बीच जो काकटेल उन्होंने तैयार किया था वह बस उन्हीं के बस का था. आज वो नहीं हैं तो उनकी यह लाइन बार-बार ज़ेहन में घुमड़ रही है कि You love me, You hate me But you cant ignore me.

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