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डंके की चोट पर : हुकूमत में बदलते आतंकी

शबाहत हुसैन विजेता

अफगानिस्तान आतंक के साये में पददलित हो रहा है. आतंक की परिभाषा गढ़ने वाला तालिबान तेज़ी से अफगानिस्तान पर काबिज़ होता जा रहा है. चुनी हुई हुकूमत बेबस तमाशा देख रही है. सेना ने करीब-करीब अपनी हार क़ुबूल कर ली है. आने वाले दिनों में दुनिया आतंकियों को हुकूमत करते हुए देखेगी.

अफगानिस्तान में 20 साल तक अमरीकी सेना की मौजूदगी रही. सात जुलाई 2021 को अमरीका ने अफगानिस्तान से अपने सभी सैनिकों को हटा लिया. अमरीका ने तालिबान की मुश्कें कसने के नाम पर ही 20 साल तक अफगानिस्तान में कब्ज़ा जमाये रखा था. जो बाइडन के अमरीकी राष्ट्रपति बनने के साथ ही यह तय हो गया था अमरीका अफगानिस्तान से अपने सैनिकों को वापस बुला लेगा.

20 साल में अमरीका ने तालिबान की कितनी मुश्कें कसीं इसकी तस्वीर देखनी हो तो हमें जुलाई के पहले हफ्ते पर नज़र डालनी होगी. जब अमरीकी सेना अपनी पैकिंग में लगी थी और अमरीकी विमानों में अपना सामान पैक कर उन्हें चढ़ा रही थी तब तालिबान मास्को में यह एलान कर रहा था कि अफगानिस्तान के 80 फीसदी हिस्से पर हमारा कब्ज़ा है.

अमरीकी सेना जब अफगानिस्तान छोड़ने का एलान कर चुकी थी तब उसकी तरफ सबसे ज्यादा ललचाई नज़र से चीन देख रहा था. चीन यह तय कर चुका था कि जैसे ही अमरीकी सेना वहां से हटेगी वो अपने सैनिकों को अफगानिस्तान में उतार देगा लेकिन हुआ बिलकुल उल्टा. तालिबान ने मास्को में जब यह एलान किया कि उसका अफगानिस्तान के 80 फीसदी हिस्से पर कब्ज़ा है तब अफगानिस्तान की सेना जैसे सोते से जागी. अफगानी सेना ने तालिबान पर अपनी वायुसेना के ज़रिये बम बरसाए. एक ही दिन में तालिबान के 40 लड़ाके मार गिराए.

अफगानी सेना तालिबान से सिर्फ दो-तीन दिन ही मुकाबला कर पाई. इसके बाद तो शहर-दर-शहर, सूबे-दर-सूबे तालिबान के कब्ज़े में आते चले गए. बेबस बने राष्ट्रपति अशरफ गनी दुनिया से मदद की भीख मांगते नज़र आये मगर दुनिया में कोई भी मदद को तैयार नहीं था. वो चीन भी उठकर खड़ा नहीं हुआ जो खुद अफगानिस्तान पर काबिज़ होना चाहता था.

तालिबान एक दिन में इतना मज़बूत नहीं हुआ है. याद कीजिये यह वही तालिबान है जिसने 20 साल पहले अफगानिस्तान में गौतम बुद्ध की दुनिया की सबसे ऊंची मूर्ति मिट्टी में मिला दी थी. बुद्ध की मूर्ति के साथ हुए इस व्यवहार पर कोई भी देश खुलकर नहीं बोला था. अफगानिस्तान की सरकार उस वक्त भी बेबस बनी तमाशा देख रही थी.

अमरीकी सेना आई. 20 साल तक अफगानिस्तान पर काबिज़ रही और जब गई तो ऐसा लगा जैसे कि अफगानिस्तान की हुकूमत को तालिबान के हाथों हस्तांतरित करके गई. यह बात इसलिए कहनी पड़ रही है कि जब अमरीकी फ़ौज अफगानिस्तान से जाने की तैयारी कर रही थी तभी तालिबान ने मास्को में प्रेस कांफ्रेंस की थी. मतलब उसने दुनिया को पहले से बता दिया था कि अफगानिस्तान पर हमारा कब्ज़ा है और हमारा ही रहेगा.

तालिबान आतंकियों का संगठन है. उसके निशाने पर सबसे पहले मीडिया है. उसने सबसे पहले उन पत्रकारों को मारा जो तालिबान की खबरें लिखते रहे हैं. 22 साल की अफगानी पत्रकार हिकमत नूर अपनी जान बचाने के लिए पिछले कई दिनों से बुर्का पहनकर इस गाँव से उस गाँव में भटक रही है. हिकमत नूर ने हर वो चीज़ फेंक दी है जो उसे पत्रकार साबित करती हो.

हिकमत नूर ने अपना अखबार, अपना घर और अपना शहर छोड़ने से पहले जो कुछ आख़री खबरें लिखी हैं उनमें तालिबान की तस्वीर बहुत साफ़ हो जाती है. यह हुकूमत करने जा रहे हैं मगर दिल और व्यवहार दोनों से ही आतंकी हैं. यह घरों में घुसकर अपने लिए लड़कियां पसंद करते हैं. पसंद आई लड़की चाहे उस घर की बेटी हो या बहू कोई फर्क नहीं पड़ता. उसे उठा ले जाते हैं. जब तक वो काम की रहती है साथ रहती है फिर मारकर फेंक देते हैं ताकि उनका कोई राज़ कहीं बाहर न चला जाए.

अमरीकी फ़ौज तालिबान की मुश्कें कसने आई थी. 20 साल तक वह अफगानिस्तान को अपनी मर्जी से चलाती रही मगर तालिबान तो जहाँ का तहां खड़ा रहा. बल्कि लगता तो यह है कि वो 20 साल तक लगातार सैन्य अभ्यास में लगा रहा. वो युद्ध का अभ्यास नहीं कर रहा होता तो क्या अफगानी सेना को यूं ही कुछ ही घंटों में धूल चटा पाता.

आतंकी संगठन कई देशों में मौजूद हैं मगर हुकूमत कहीं भी उनके पास नहीं है. पाकिस्तान में कई आतंकी संगठन हुकूमत के मददगार और राजदार हैं मगर वहन भी उनकी हुकूमत नहीं है. आईएसआईएस ने भी अपने आतंक के बल पर कई बार सीरिया और ईराक के कई हिस्सों पर कब्ज़ा किया और कई बार वो कब्ज़ा छूट गया.

दुनिया का कोई भी देश आतंकी संगठनों को मान्यता देने को राजी नहीं है मगर जो अफगानिस्तान में होने जा रहा है उसके बाद संयुक्त राष्ट्र संघ और मित्र देशों की क्या भूमिका होगी वो काबिले गौर होगा. मौजूदा हालात ऐसे हैं कि राष्ट्रपति अपनी हार स्वीकार कर चुके हैं. आज नहीं तो कल तालिबान अफगानिस्तान में अपनी हुकूमत बनाएगा. जो अभी आतंकी कहे जा रहे हैं वो कुछ ही दिनों में हुकूमत कहे जायेंगे. उनके हाथ में देश का झंडा होगा. उनके हाथ में देश का संविधान होगा. उनके हाथों में देश का बजट और योजनायें होंगी. लोग कैसे रहें और लोग कैसे जियें इसे तालिबान तय करेगा. ऐसे हालात में दुनिया के दूसरे देश इस हुकूमत को इग्नोर कैसे करेंगे.

यह चिंता दुनिया की हो सकती है लेकिन ज्यादा फ़िक्र की बात हिन्दुस्तान-पाकिस्तान और चीन के लिए है. चीन तो मास्को में हुई तालिबान की प्रेस कांफ्रेंस के बाद से ही खामोश है. हो सकता है कि चीन दुनिया का पहला देश हो जो अफगानिस्तान की इस नई हुकूमत को मुबारकबाद देने वाला हो.

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इस फ़िक्र की ज़रूरत नहीं है कि तालिबान हुकूमत कैसे चलाएगा क्योंकि अपने आतंक के बल पर वो उन लोगों का इस्तेमाल करेगा जो अब तक सरकार चलवाते रहे हैं. धीरे-धीरे हुकूमत चलाना सीख लेगा. फ़िक्र की बात तो यह है कि अमरीका जिन-जिन देशों में अपनी सेनायें बिठाए हुए है वहां के बारे में यह पता ही नहीं है कि वह कौन सी योजनाओं को अंजाम देने में लगा है.

तालिबान हुकूमत चलाएगा, अपनी सरकार बनाएगा, अपना राष्ट्रपति बनाएगा. इतने तक रहेगा तो यह पड़ोसी देश का मामला है लेकिन जब वो पूरी तरह से काबिज़ हो जाएगा तब पड़ोसियों को भी आँख दिखाएगा. अपनी सीमाओं के विस्तार के लिए भी निकलेगा. यह सिर्फ वेट एंड वाच वाली पोजीशन नहीं है. यह आने वाली उलझनों का सामना करने के लिए तैयारी की ज़रूरत है. हमें यह बात लगातार अपने ज़ेहन में रखनी होगी कि हम अमन चाहते हैं मगर ज़ुल्म के खिलाफ, गर जंग लाज़मी है तो फिर जंग ही सही.

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