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पद्मविभूषण तीजनबाई को मिलेगा पहला “लोकनिर्मला सम्मान”

  • 15 मार्च को संत गाडगे परिसर में तीजनबाई के पंडवानी गायन के साथ होंगे राजस्थान, आसाम, बुन्देलखंड के भी सांस्कृतिक कार्यक्रम

लखनऊ। लोक संस्कृति के संवर्धन के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दे रही संस्था सोनचिरैया की ओर से पहला लोक निर्मला सम्मान, पद्मविभूषण तीजनबाई, को रविवार 15 मार्च, को गोमती नगर संगीत नाटक अकादमी के संत गाडगे परिसर में शाम 6:30 बजे दिया जाएगा। राष्ट्रीय स्तर पर निजी संस्था की ओर से लोककला के क्षेत्र में दिया जाने वाला यह सबसे बड़ा सम्मान होगा।
इसमें सम्मान के स्वरूप एक लाख रुपए दिये जाएंगे। उस सम्मान समारोह में तीजनबाई का पंडवानी गायन मुख्य आकर्षण बनेगा। इसके साथ ही राजस्थान का कालबेलिया नृत्य और आसाम के बीहू नृत्य के साथ साथ आल्हा गायन भी सुनने को मिलेगा।

संयोजिका वरिष्ठ लोक गायिका मालिनी अवस्थी ने शुक्रवार को गोमती होटल में आयोजित प्रेसवार्ता में बताया कि लोक संस्कृति के उत्थान के लिए असाधारण सेवाओं के लिए 2020 से नियमित रूप से लोक निर्मला सम्मान दिया जाएगा।

उन्होंने बताया कि महान पंडवानी गायिका तीजनबाई का जन्म 24 अप्रैल 1956 को छत्तीसगढ़, भिलाई के गाँव गनियारी में हुआ था। वह पंडवानी लोक गीत-नाट्य की पहली महिला कलाकार हैं। देश-विदेश में अपनी कला का प्रदर्शन करने वाली तीजनबाई को बिलासपुर विश्वविद्यालय ने डी-लिट की मानद उपाधि से अलंकृत किया है।

उन्हें साल 1988 में भारत सरकार की ओर से पद्म श्री, साल 2003 में पद्म भूषण और साल 2019 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया। 1995 में उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। अपने नाना ब्रजलाल से बचपन में सुनी महाभारत की कहानियों से वह इतना अधिक प्रेरित हुई कि महाभारत की कथा, गायकी अंदाज में कहने का निर्णय उन्होंने कर लिया।

उन्होंने महज 13 साल की उम्र में पहली प्रस्तुति दी थी। उस समय में महिलाएं केवल बैठकर ही गायन करती थीं जिसे वेदमती शैली कहा जाता है। तीजनबाई ने पहली बार पुरुषों की तरह खड़े होकर कापालिक शैली में गायन कर सबको हैरत में डाल दिया। ऐसे महान योगदान को देखते हुए सोनचिरैया संस्था की ओर से पहला लोकनिर्मला सम्मान तीजन बाई को दिया जा रहा है।

इस क्रम में उसी शाम को राजस्थान का पारपंरिक कालबेलिया नृत्य मशहूर कलाकार गौतम परमार पेश करेंगे। मालिनी अवस्थी ने बताया कि सपेरा, सपेला जोगी या जागी कहे जाने वाली इस कालबेलिया जाति की उत्पत्ति गुरु गोरखनाथ के 12वीं सदी के शिष्य “कंलिप्र” से मानी जाती है। 1972 के वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के पारित होने के बाद से कालबेलिया जनजाति साँप पकड़ने के अपने परंपरागत पेशे के बजाए खेती, मजदूरी, नृत्य कर जीविका व्यतीत कर रही हैं।

कार्यक्रम का तीसरा आकर्षण होगा आसाम का बीहू नृत्य। इसके आसाम के कृषक अपनी मौसम की पहली फसल अपने आराध्य को नाचते गाते अर्पित करते हैं। उस यादगार शाम की अंतिम, जोशीली प्रस्तुति होगी शीलू सिंह राजपूत का आल्हा गायन। उन्होंने बताया कि आल्हा, बुंदेलखण्ड के वीर सेनापति थे। आल्हा के छोटे भाई का नाम ऊदल था। पृथ्वीराज चौहान से अपनी मातृभूमि की रक्षा करते हुए ऊदल वीरगति को प्राप्त हुए। ऐसे में आल्हा पृथ्वीराज चौहान की सेना पर मौत बनकर टूट पड़े। आल्हा के गुरु गोरखनाथ के कहने पर आल्हा ने पृथ्वीराज चौहान को जीवनदान दिया था।

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