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मुखौटा नहीं मूल्य है धर्मनिरपेक्षता

अशोक माथुर

भाजपा लगातार कहती रही है कि कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता “छद्म धर्मनिरपेक्षता” है और वह ही सकारात्मक धर्मनिरपेक्षता लाएगी। आज के दौर  में धर्मनिरपेक्षता का  मर्म समझा जाना जरूरी है।

विभिन्न समुदायों के बीच सौहार्द की गारंटी की बात संविधान की प्रस्तावना में भी उल्लिखित है। धर्मनिरपेक्षता केवल अल्पसंख्यकों के लिए ही नहीं,  बल्कि समूचे राष्ट्र के लिए एक अच्छा विचार है। यहां तक कि विदेशियों के लिए भी। एक सिद्धांतवादी राज्य में आम तौर पर राज्य ही राज धर्म को मुखर करता है। धर्मनिरपेक्ष तकाजों को सहेजे रखने की जिम्मेदारी अल्पसंख्यकों की ही नहीं होती।

भाजपा मुख्यालय में अपने विजयोपरांत संबोधन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर रोचक बात कही। उन्होने कहा कि तीस वर्षो तक झूठी धर्मनिरपेक्षता का मुलम्मा चढ़ाया जाता रहा और जिसने इसकी आड़ ले ली तो समझो उसके सारे पाप धुल गए।

इस बात में कुछ सच्चाई भी है क्योंकि कुछ नेताओं के भ्रष्टाचार और अन्य प्रतिगामी जातिवादी नीतियों को मात्र इसलिए अनदेखा कर दिया गया कि उन्होंने धर्मनिरपेक्षता के प्रति थोड़ी प्रतिबद्धता दिखाई थी। भले ही बराए नाम ऐसा किया हो।

अपने अंदाज में प्रधानमंत्री ने आगे कहा कि “ इस चुनाव में कोई भी दल धर्मनिरपेक्षता का मुखौटा पहन कर देश को गुमराह करने की हिम्मत नहीं कर सका।“  तो  क्या धर्मनिरपेक्षता मुखौटा है, या फिजूल की अवधारणा ?

प्रधानमंत्री के कथन में दम जरूर है क्योंकि हम पाते हैं कि कथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियां भी सही मायनों में धर्मनिरपेक्ष नहीं हैं। अनेक दफा हुआ है,  जब इन पार्टियों ने धर्म या धार्मिक प्रतीकों का चुनावी इरादे से इस्तेमाल किया। राजीव गांधी ने 1989 में अपने चुनाव अभियान की शुरुआत अयोध्या से की।

जहां तक भाजपा का प्रश्न है,  तो इसके नेताओं ने मतदाताओं का ध्रुवीकरण करने में कभी हिचक नहीं दिखाई।  कांग्रेस पर मुस्लिम तुष्टिकरण का दोष मढ़ा जाता है,  तो भाजपा भी बिना खटके संवैधानिक मूल्यों की परवाह किए बिना हिंदू तुष्टिकरण में मुब्तला देखी जा सकती है।

इतना ही नहीं सुप्रीम कोर्ट की आरवाई प्रभु  मामले में इस व्यवस्था से धर्मनिरपेक्षता के भाव को खासा झटका लगा कि हिंदुत्व के नाम पर वोट मांगना भ्रष्ट चुनावी कदाचार नहीं है।

सत्रह अक्टूबर, 1949 को संविधान की प्रस्तावना पर चर्चा हो रही थी,  तो एचवी कामथ ने प्रस्ताव रखा कि प्रस्तावना की शुरुआत भगवान के नाम पर शब्दों से होनी चाहिए। डा. राजेन्द्र प्रसाद, जो परंपरावादी हिंदू थे,  ने कामथ से ईश्वर के उल्लेख संबंधी अपना संशोधन प्रस्ताव वापस लेने का आग्रह किया। लेकिन कामथ अपने रुख पर अड़े रहे। मतदान की नौबत आ गई और प्रस्ताव 41-68 से गिर गया।

इसी प्रकार धर्मनिरपेक्ष शब्द को विशिष्ट रूप से शामिल तो नहीं किया गया लेकिन सदस्य एकमत थे कि हमारा संविधान उदार लोकतांत्रिक संविधान होगा। उन मूल्यों के अनुरूप होगा जिन्हें हासिल करने के लिए हमने आजादी का संघर्ष किया।

संविधानगत मौन भी उतने ही महत्त्वपूर्ण हैं। उदाहरण के लिए” संघीय”  शब्द इस्तेमाल नहीं किया है,  लेकिन संघीयता संविधान का आधार है।

बुनियादी रूप से धर्मनिरपेक्षता में तीन प्रकार के संबंध निहित हैं, जो राज्य,  धर्म और नागरिकों के मध्य हैं। राज्य को धर्म से ऊपर होना चाहिए। जहां तक धर्म और नागरिकों के संबंध का प्रश्न है,  तो नागरिकों को किसी भी धर्म का अनुसरण करने का अधिकार है, और जहां तक राज्य और नागरिकों के संबंध की बात है,  तो राज्य को सुनिश्चित करना है कि किसी भी नागरिक के साथ भेदभाव न होने पाए। इस प्रकार,  धर्मनिरपेक्षता और कुछ नहीं तटस्थता,  स्वतंत्रता और समानता ही है।

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बीते वर्ष दिसम्बर माह में मेघालय उच्च न्यायालय के जस्टिस एसआर सेन ने इच्छा जताई कि भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित कर दिया जाना चाहिए। कहा – “ साफ  कर देना चाहता हूं कि किसी को भी भारत को एक और इस्लामी देश बनाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए नहीं तो भारत और विश्व के लिए कयामत ही आ जाएगी।“

भारत के इस्लामी देश बनने की दूर.दूर तक कोई संभावना नहीं है। लेकिन वह दिन कयामत का होगा जब भारत हिंदू राष्ट्र बन जाएगा। चौबीस मई,  2019 को मेघालय उच्च न्यायालय की खंड पीठ ने जस्टिस सेन के फैसले को नामंजूर कर दिया। कहा कि यह फैसला “ संवैधनिक रूप से दोषपूर्ण  है और संविधानगत सिद्धांतों से इसका कोई तारतम्य नहीं बैठता।“

भाजपा के कुछ नेता तर्क देते हैं कि संविधान मूल रूप से धर्मनिरपेक्ष नहीं था, और यह शब्द इंदिरा गांधी ने 1976 में 42वां संविधान संशोधन करके प्रस्तावना में जुड़वाया था। इस तरह यह विचार धर्मनिरपेक्षता को हमारी सांस्कृतिक विरासत के तौर पर खारिज कर देता है।

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कट्टर हिंदू दक्षिणपंथ धर्मनिरपेक्षता के विरोध में है क्योंकि यह धर्म को निजी मामला मानने के खिलाफ है और धर्मनिरपेक्षता को ईसाई विचार के रूप में ही देखती है,  जो अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण ही है। इस प्रकार भाजपा ने नारा दिया : किसी का नहीं तुष्टिकरण,  सभी को न्याय” ।

हैरत तो यह है कि किसी भी धर्मनिरपेक्ष पार्टी ने कभी भी तुष्टिकरण की तथ्यात्मक रूप से गलत अवधारणा को खत्म करने का प्रयास नहीं किया क्योंकि मुस्लिम आज भी उतने ही पिछड़े हैं,  जितने दलित हैं,  और जेलों को छोड़कर राज्य के तमाम संस्थानों में उनका प्रतिनिधित्व बेहद कम है।

हिंदू दक्षिणपंथी तर्क रखते हैं कि जो व्यवस्था संशोधन के जरिए की गई है उसे एक अन्य संशोधन के जरिए हटाया भी जा सकता है। इस तर्क में दो खामियां हैं। पहली तो यह कि भारत तो 1976 से पहले भी धर्मनिरपेक्ष ही था। बयालीसवां संशोधन होने के तीन साल पहले सुप्रीम कोर्ट की तेरह सदस्यीय पीठ ने केशवानंद भारती (1973) मामले में धर्मनिरपेक्षता को संविधान का आधार  करार दिया था

एसआर बोम्मई (1994) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने बाबरी मस्जिद के विध्वंस के पश्चात न केवल भाजपा सरकारों को हटाए जाने का अनुमोदन किया,  बल्कि कहा कि धर्मनिरपेक्षता लोकतांत्रिक सरकार के सफल कामकाज के लिए अनिवार्य है। प्रत्येक नागरिक को अपने धर्म की अनुपालना का अधिकार है,  और राज्य को सभी नागरिकों के साथ समानता का व्यवहार करना चाहिए। भले ही वे किसी भी विश्वास को मानते हो। राज्य धर्म विशेष को तरजीह नहीं दे सकता।

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शीर्ष अदालत ने भारतीय मूल्यों से धर्मनिरपेक्षता के विचार को इतर नहीं माना,  बल्कि माना कि धर्मनिरपेक्षता का विचार भारतीय सांस्कृतिक या सभ्यतागत मूल्यों से ग्रहण किया जा सकता है। ये मूल्य सहिष्णुता,  सौहार्द और प्रत्येक व्यक्ति को उसी रूप में स्वीकार करने की बात हैं जैसा कि वह है। जस्टिस जीवन रेड्डी ने “ सकारात्मक धर्मनिरपेक्षता”  शब्द का उपयोग किया। लेकिन उनका भाव भाजपा की धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा से पूरी तरह भिन्न है।

उन्होंने कहा था कि अदालत अपनी सभ्यतात्मक भूमिका का निर्वहन करेगी और उन स्थितियों में निर्णायक हस्तक्षेप करेगी जहां सांप्रदायिक सौहार्द और सहिष्णुता पर गंभीर खतरे मंडराने का अंदेशा उठ खड़ा होगा। आइए,  उम्मीद करते हैं कि अदालत भविष्य में भी अपने हस्तक्षेपात्मक भूमिका का निर्वहन करती रहेगी।

राज्य और धर्म को पृथक रखने की जो रेखा है,  उसे वास्तव में ऊंचा रखना ही होगा। अपराजेय रखना होगा।

( लेखक हिंदी दैनिक “ लोकमत” के प्रधान संपादक हैं )  

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