Thursday - 11 January 2024 - 8:54 AM

मौन की प्रेस कांफ्रेंस…!

शबाहत हुसैन विजेता

कुछ बुद्धिजीवियों में शादी को लेकर चर्चा चल रही थी। कुछ शादी को बंधन मान रहे थे। बंधन को तरक्की की दौड़ में बाधा मान रहे थे। शादी को तरक्की की राह में बाधा मानने वालों के पास मज़बूत तर्क भी थे। उनका कहना था कि आज़ाद इंसान अपने मन की कर सकता है। वह जिस रास्ते पर भी चाहे उस रास्ते पर तरक्की की चाबी ढूंढ सकता है।

उसकी जेब में घरेलू सामानों की लिस्ट नहीं होती। देर होने पर उसे यह जवाब नहीं देना पड़ता कि कहाँ गए थे। अभी तक कहाँ थे। घर से निकलते वक्त नहीं बताना पड़ता कि वापसी कब होगी। किससे मिलने जा रहे हैं। किसका फोन आया था। फोन आया था तो क्यों आया था। जिससे मिलने जा रहे हैं उससे क्या काम है। देर से घर में घुसते वक्त बहानों की तलाश नहीं करनी पड़ती।

एपीजे अब्दुल कलाम मिसाइल मैन बन पाए क्योंकि उन्होंने शादी नहीं की। तुलसीदास को महान बनने के लिए पत्नी से दूर जाना पड़ा। बुद्ध ने सत्य की खोज के लिए पत्नी को छोड़ दिया। तर्क अकाट्य थे।

उन पर ज्यादा बहस की गुंजाइश नहीं थी लेकिन एक बुद्धिजीवी ने चर्चा पर विराम लगाते हुए कहा कि सब सही है, लेकिन शादी भी ज़रूरी है। सबको करनी चाहिए। जो इस बंधन से दूर रहता है या दूर हो जाता है उसे मन की बात करने के लिए रेडियो का सहारा लेना पड़ता है।

“मन की बात पिछले पांच सालों में लगातार चर्चा का विषय रही है। तमाम विषयों पर लोगों ने मन की बात सुनी है। मन की बात स्टूडियो में रिकार्ड होती है और रेडियो के ज़रिये घर- घर में सुनी जाती है, लेकिन यह पहली बार हुआ कि प्रेस कांफ्रेंस में मन की बात हुई। यह प्रेस कांफ्रेंस सिर्फ अपने मन का गुबार निकालने के लिए थी। इसमें सिर्फ वही बात कही गई जो कहनी थी। जिन बातों को लोग सुनना चाहते थे, जिनको लेकर सवाल अपना सर उठाते रहते हैं उसके जवाब में मौन सर उठाकर खड़ा था। यह मौन की प्रेस कांफ्रेंस थी। मौन की प्रेस कांफ्रेंस दुनिया की पहली प्रेस कांफ्रेंस थी।”

हालांकि मौन कई बार शब्दों से ज्यादा मुखर होता है। कई बार आँख की कोर से झांकती नमी, और होठों पर आयी मुस्कान की हल्की सी लकीर कई बार हज़ार शब्दों से ज्यादा असर छोड़ जाती है। मौन की अपनी महत्ता है। कई बार कुछ न बोलना बहुत कुछ बोल जाने से ज्यादा कारगर साबित होता है। गुजरात का इशरत जहाँ इनकाउंटर केस ज़्यादातर लोगों को याद होगा।

इस बहुचर्चित केस पर हर किसी ने चाहा था कि सूबे का मुखिया कुछ कहे लेकिन सूबे का मुखिया खामोशी की चादर ओढ़े रहा। जब एक सार्वजनिक जगह पर उनसे पूछ लिया गया कि आखिर आप इशरत जहाँ मामले पर अपनी खामोशी कब तोड़ेंगे तो उन्होंने कहा था कि मेरा मौन भी बिकता है।

हो सकता है कि उस दौर में मौन के बिकने का चलन रहा हो लेकिन मौजूदा दौर में जब सवाल दर सवाल अपने जवाब हासिल करने के लिए इस कारीडोर से उस कारीडोर में दौड़ रहे हों जब सवाल यह चाहते हों कि इन सवालों के जवाब रेडियो पर नहीं सामने से दिए जाएँ लेकिन वह चुप रहे। उन्होंने अपनी बात तो रखी लेकिन किसी भी सवाल को कोई भाव नहीं दिया। एक तरह से प्रेस को इग्नोर किया या फिर कहा जाए कि उन्होंने बता दिया कि लोकतंत्र मेरे हिसाब से चलता है और चलेगा। चौथा खम्भा दुनिया से जो चाहे पूछे लेकिन मेरी तरफ कोई सवाल उछलेगा तो मेरे मौन से टकराकर वापस लौट जाएगा।

तमाम सवालों से जूझता उनका मौन कैमरे में रिकार्ड हो रहा था लेकिन साथ ही उनके चेहरे की निराशा भी फिल्म की शक्ल में कैद होती जा रही थी। प्रेस के सामने उनकी बेबसी की वजह क्या थी। पांच साल दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का नेतृत्व करने वाले के चेहरे पर आखिर बेचैनी क्यों थी। जब किसी सवाल का जवाब ही नहीं दिया तो फिर माथे पर चिंता की लकीरें क्यों थीं।

पांच साल तक जब सिर्फ जनता की सेवा का दावा है, जब खुद को चौकीदार की शक्ल में पेश करने की इतनी जद्दोजहद है तो फिर किस बात का डर है जो उड़े हुए बालों में दिख रहा है। जब सब कुछ सही और साफ़ है तो यह चेहरे पर जो दर्द है उसकी वजह क्या है। जब कभी किसी का दिल दुखाया ही नहीं तो ऐन परीक्षा के दिन भोले बाबा की शरण में ध्यान में बैठ जाने के निहितार्थ क्या हैं।

जब सियासत को मिशन मान ही लिया है तो फिर वह क्या है जिसके खो जाने का डर सता रहा है। जब यह पता है कि मौन भी बिक जाता है तो फिर मौन के साथ दर्द बाहर कैसे निकल रहा है।

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मिशन और प्रोफेशन के बीच एक बहुत बारीक लकीर होती है। यही लकीर कई चीज़ों का विश्लेषण भी करती है और कई रास्ते भी तैयार करती है। सियासत मिशन है तो कुछ पाने का लालच नहीं और कुछ खो जाने का डर नहीं। मिला तो सर आखों पर और नहीं मिला तो जनादेश का सम्मान। प्रोफेशन में जिम्मेदारियां तय होती हैं।

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प्रोफेशन में प्रेसीडेंट की कल्पना भी होती है और प्रेसीडेंट के सामने चुप रहने का डेकोरम भी मेंटेन करना पड़ता है लेकिन यह भी सही है कि सवाल जिससे किया जाता है जवाब देना या नहीं देना भी उसी की ज़िम्मेदारी होती है, मगर खुद के सवालों पर प्रेसीडेंट को काबिज़ होते हुए देखते रहना न प्रोफेशन का हिस्सा होता है न मिशन का। मौन की प्रेस कांफ्रेंस में यह नियम तो टूटा ही है। इस टूटन का क्या अंजाम होगा इसका जवाब भविष्य खुद देगा, क्योंकि भविष्य की भाषा मौन की नहीं मुखर की होती है।

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