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पश्चिम बंगाल में क्यों बढ़ रही है राजनीतिक हिंसा

प्रीति सिंह

राजनीतिक झड़पे और हिंसा पश्चिम बंगाल में नई नहीं है। बंगाल में 60 के दशक से राजनीतिक झड़पें और हिंसा ही चुनावी हथियार रहे हैं। अगर बंगाल का राजनीतिक इतिहास गौर से देखें, तो पता चलता है कि हिंसा की ये घटनाएं न तो पहली बार हो रही हैं और न ही आखिर बार होंगी।

चुनाव बाद भी पश्चिम बंगाल में खून खराबा जारी है। बंगाल के कूचबिहार और उत्तरी दमदम में दो टीएमसी कार्यकर्ता की हत्या कर दी गई जिसकी वजह से इलाके में तनाव का माहौल है। दरअसल बंगाल में राजनीतिक झड़पों का एक लंबा व रक्तरंजित इतिहास रहा है।

कांग्रेस के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रॉय से लेकर टीएमसी की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के कार्यकाल तक करीब 30,000 राजनैतिक लोगों की हत्या हुई है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े भी इसकी गवाही देते हैं।

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एनसीआरबी के आंकड़ों के अनूसार 2016 में बंगाल में राजनीतिक कारणों से 91 घटनाएं हुईं, जिसमें 205 लोगों की मौत हुई थी। वहीं 2015 में 131 वारदात हुई थी, जिसमें 184 लोगों की मौत हुई थी।

बंगाल की सत्ता ममता बनर्जी के संभालने के दो साल बाद 2013 में भी बंगाल में राजनीतिक वजहों से 26 लोगों की हत्या हुई थी और ये हिंसा देश के किसी भी राज्य से कहीं ज्यादा थी। वहीं 2018 में सिर्फ पंचायत के चुनाव में एक दिन में 18 लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था। लोकसभा चुनाव भी इससे अछूता नहीं रहा।

लोकसभा चुनाव 2019 में पश्चिम बंगाल एक ऐसा राज्य रहा जहां तकरीबन लोकसभा चुनाव के हर चरण में भारी हिंसा देखने को मिली। सियासी मैदान में उतरे उम्मीदवारों पर हमले किए गए, उनकी गाड़ियों को क्षतिग्रस्त किया गया और राजनीतिक समर्थकों की जमकर पिटाई की गई। सबसे बड़ा बवाल आखिरी चरण के चुनाव प्रचार से ठीक पहले उस वक्त देखने को मिला जब बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के कोलकाता रोड शो में उनके ट्रक के ऊपर डंडे फेंके गए।

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राजनीतिक इतिहास के शुरुआती पन्ने अस्थिर

पश्चिम बंगाल के राजनीतिक इतिहास के शुरुआती पन्ने बेहद अस्थिर राजनीति के हैं। देश का विभाजन हुआ तो बंगाल का भी विभाजन हुआ। पश्चिम बंगाल भारत के हिस्से में आया। पश्चिम बंगाल को भी ख़ून खराबे के अलावा विस्थापन और शरणार्थियों की समस्याओं से रूबरू होना पड़ा।

1967 से 1980 का समय गंभीर

पश्चिम बंगाल के लिए 1967 से 1980 के बीच का समय बहुत ही अस्थिर रहा। यह हिंसक नक्सलवादी आंदोलन, बिजली के गंभीर संकट, हड़तालों और चेचक के प्रकोप का समय रहा। इन संकटों के बीच राज्य में आर्थिक गतिविधियां थमी सी रहीं।

इतना ही नहीं इस बीच राज्य में राजनीतिक अस्थिरता भी चलती रही। आजादी के बाद से 1967 तक कांग्रेस का शासन रहा। कोई आठ महीनों के लिए बांग्ला कांग्रेस के नेतृत्व में यूनाइटेड फ्रंट ने सत्ता संभाली इसके बाद तीन महीने प्रोग्रेसिव डेमोक्रेटिक गठबंधन ने राज किया फिर फरवरी 1968 से फरवरी 1969 तक एक साल राज्य में राष्ट्रपति शासन रहा।

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बमुश्किल एक साल (फरवरी 1969 से मार्च 1970 तक) बांग्ला कांग्रेस ने सत्ता संभाली फिर आगे के एक साल राष्ट्रपति शासन का रहा। अप्रैल 1971 से जून 1971 तक कांग्रेस ने राज्य में सत्ता संभाली लेकिन सरकार कायम न रह सकी और जून 1971 से मार्च 1972 तक फिर राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा।

1972 में जब चुनाव हुए तो उस दौरान कांग्रेस और वाम दल दोनों ही राज्य की सत्ता पाने की कोशिश कर रहे थे। अजय मुखर्जी की सरकार गिर चुकी थी और राज्य में राष्ट्रपति शासन लग चुका था।

कहा जाता है कि इस दौरान पश्चिम बंगाल के प्रभारी रहे कांग्रेस नेता सिद्धार्थ शंकर रॉय के नेतृत्व में कांग्रेस ने खूब उत्पात किए, बूथ कैप्चरिंग की और वाम दलों को सत्ता से बाहर रखने के लिए राजनैतिक हत्याएं हुईं। पश्चिम बंगाल के लोग इनकी संख्या 1 हजार से लेकर 11,000 तक बताते हैं, जिनको इस सत्ता संघर्ष में जान गंवानी पड़ी और यही से पश्चिम बंगाल में राजनैतिक हिंसा की शुरुआत हुई। चुनाव में कांग्रेस को जीत हासिल हुई और सिद्धार्थ शंकर रॉय मुख्यमंत्री बने।

केंद्र में इंदिरा गांधी की सरकार थी। 1971 में बांग्लादेश के अलग देश बन जाने के बाद लाखों शरणार्थी पश्चिम बंगाल में आ गए थे। इसी दौरान नक्सल आंदोलन भी अपने चरम पर था। दोनों मुद्दों पर एक साथ जूझ रही कांग्रेस की केंद्र और राज्य की सरकार ने ताकत का इस्तेमाल किया। वाम दलों ने राजनैतिक तौर पर कांग्रेस का विरोध किया, लेकिन कांग्रेस ने इसका बदला लिया और कई लोग इस हिंसा में मारे गए। हिंसा का ये दौर तीन साल तक चलता रहा और इसी बीच 1975 में देश में आपातकाल लग गया।

अगले अंक में पढ़ेंगे आगे की कहानी….

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