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पंचायती राज बदलाव और उम्मीद

कुमार अशोक पांडेय

स्वतंत्र भारत में पंचायती राज व्यवस्था महात्मा गांधी की देन है। वे स्वतंत्रता आंदोलन के समय से ही ब्रिटिश सरकार पर पंचायतों का पूरा अधिकार देने का दबाव बना रहे थे।

आजादी के बाद 2 अक्टूबर 1952 को जब सामुदायिक विकास कार्यक्रम प्रारंभ किया गया तो सरकार की मंशा थी कि गांधी के पंचायती राज की संकल्पता को आकार दिया जाए। इस मंशा के मुताबिक ही खंड को इकाई मानकर खंड को विकास के लिए सरकारी मुलाजिमों के साथ सामान्य जनता को विकास की प्रक्रिया से जोड़ने का प्रयास किया गया।

आजादी के बाद से देश में लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए ढेर सारे उपाय हुए। उसी में से पंचायती राज व्यवस्था की स्थापना 1957 बलवंत राय मेहता की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित हुई।

1 अप्रैल 1957 को इसे लागू कर दिया गया। लेकिन इस समिति की सिफारिशों में कई गड़बड़ियां दिखीं, जिसे दूर करने के लिए 1977 में अशोक मेहता समिति का गठन किया गया। वर्ष 1978 में इस समिति ने केंद्र सरकार को अपनी विस्तृत रिपोर्ट सौंपी। राज्य में विकेन्द्रीयकरण की प्रारंभिक शुरुआत जिला स्तर से हो। मंडल पंचायत को जिला स्तर से नीचे रखा जाए।

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जिसमें करीब 15 से 20 हजार की जनसंख्या और 10 से 15 गांव शामिल हो। मेहता ने ग्राम पंचायत और पंचायत समितियों को समाप्त करने की बात कही। समिति ने मंडल पंचायत और जिला पंचायत का कार्यकाल 4 वर्ष तथा विकास योजनाओं को जिला स्तर के माध्यम से तैयार करने और उसका क्रियान्वयन मंडल पंचायत से कराने की सिफारिश की। लेकिन सरकार ने इसे खारिज कर दिया। 1985 में पीवीके राय समिति गठित है फिर 1988 में पी. के. थुंगन समिति का गठन किया गया। इस समिति अहम् सुधार या पंचायती राज संस्थाओं को संविधान सम्मत बनाना था।

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पंचायती राज को संवैधानिक मान्यता प्रदान करने के लिए 1989 में 64 नंबर संविधान संशोधन लोकसभा में पारित और राज्यसभा में न मंजूर हो गया। जबकि विधेयक के 72 वां संविधान संशोधन विधेयक बदलकर 73वां संविधान संशोधन विधेयक सिर्फ क्रमांक बदलकर 23 दिसंबर 1992 को लोकसभा और राज्यसभा में पारित हो गया। 20 अप्रैल 1993 को राष्ट्रपति ने भी अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी। संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा देश में जिला स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था का प्रावधान किया गया जबकि जम्मू-कश्मीर, मणिपुर, मेघालय, नागालैंड और मिजोरम में एकस्तरीय पंचायती व्यवस्था लागू है तो पश्चिमी बंगाल में चार स्तरीय पंचायत राज व्यवस्था लागू है। जिस व्यवस्था का स्वप्न गांधी जी ने देखा था उस स्तर तक पहुंचाने के लिए बहुत किया जाना बाकी है।

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पंचायती राज दिवस मनाने से कार्य नहीं होगा। महिला सशक्तिकरण के लिए पंचायतों में 50 प्रतिशत तक सीटों पर महिला आरक्षण है। लेकिन यह भी सत्य है कि कुछ महिलाओं को छोड़कर शेष का पंचायत का संचालन पति ही करते हैं प्रतिनिधि के रूप में। इससे महिला सशक्तिकरण सिद्ध नहीं होता। गांधी जी का पंचायत सशक्तिकरण आज बड़े अर्थशास्त्री के रूप में सिद्ध हो सकता है। जिसमें तमाम हस्त उद्योग, कुटीर उद्योग, लोहार, बढ़ई, चर्मकार, ठठेरा, कुम्हार सबके उद्यम नष्ट होते गए।

चरखा जो घर-घर का श्रम था। दुग्ध उत्पादन पूरी तरह लुप्त हो गया। गांव आत्मनिर्भर से बाजार निर्भर हो गए। जिसका प्रभाव अर्थव्यवस्था पर पड़ा है। पंचायतों को अधिक अधिकार स्पष्टता के साथ किया जाना चाहिए। जैसे कृषि, पशुपालन तथा लघु सिंचाई पूर्व शक्तियों के साथ पंचायतों की अधिकार क्षेत्र में होना चाहिए। जबकि कृषि बहुत व्यापक विषय है।

बीज से लेकर विपणन तक।ज्ञातव्य है कि राम राज्य की अवधारणा ग्राम स्वराज की शक्तियों में निहित है जहां पंचायतों में समितियों का महत्व देना जरूरी है। चर्चा जरूर होना चाहिए। उड़ीसा राज्य में पंचायतों के उपयोग की चर्चा करें। बहुत मजबूती के साथ उड़ीसा प्रदेश सरकार ने पंचायतों का उपयोगी बनाया।

मोदी सरकार ने एक महत्वपूर्ण निर्देश लेकर पंचायतों को शक्ति प्रदान करने के प्रति अपनी मंशा स्पष्ट कर दिया है। पहले अनुदान जिला और ब्लॉक पंचायत सहित तीनों स्तरों पर निकायों के लिए होता था परंतु 14वें वित्त आयोग का अनुदान सिर्फ ग्राम पंचायतों के लिए है। प्रयाप्त वित्तीय संसाधनों से पंचायतों विभिन्न क्षेत्रों में स्वालंबन प्रदान करने का एक महत्वपूर्ण माध्यम बन सकती है।

(लेखक भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता और सामाजिक चिंतक हैं)

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