Wednesday - 10 January 2024 - 6:54 AM

फ्रांस में मजदूर क्रांति : कॉरपोरेट भारतीय मीडिया के लिए यह खबर नहीं!

जुबिली न्यूज डेस्क

इन दिनों फ्रांस में मजदूरों का अभूतपूर्व आंदोलन चल रहा है। लाखों लोग सड़क पर है और सरकार से लोहा ले रहे हैं। समाज और राजनीतिक उथल-पुथल पर बारीक नजर रखने वालों की नजर में फ्रांस के 200 साल के इतिहास में ऐसा नहीं हुआ।

यह आंदोलन 1789 में हुई फ्रांसीसी क्रांति जितना ही महत्वपूर्ण है, जिसने स्वाधीनता, समता और बंधुत्व के मूल्य स्थापित किये थे। इस आंदोलन से तय होगा कि मजदूर वर्ग सदियों के संघर्ष से अर्जित अपने अधिकारों की रक्षा कर पायेगा या नहीं।

लेकिन भारतीय मीडिया में इस ऐतिहासिक उथल-पुथल की खबर न के बराबर है। बीफ के मुद्दे पर अहर्निश चर्चा को युगधर्म बनाने में जुटा कारपोरेट मीडिया फ्रांस की इस क्रांति से कांप रहा है। या कहें कि खबर देने में भी उसकी फूंक सरक रही है, क्योंकि वह जानता है कि भारतीय मजदूरों के साथ भी वे सारे ‘पाप’ हो रहे हैं, जिन्हें लेकर फ्रांस में आग लगी है।

ये भी पढ़े :  गूगल की मदद से कैसे 40 साल बाद अपनों के बीच पहुंची पंचुबाई

ये भी पढ़े : तालाबंदी में खुला सेहत का ताला

ये भी पढ़े : 6 साल में 18 मुलाकातों के बाद भारत को हासिल क्या है ?

आइये पहले बात करें फ्रांस की। दरअसल फ्रॉस्वा ओलांद के नेतृत्व वाली सोशलिस्ट पार्टी ने 2012 में सत्ता संभालने के साथ ही मजदूरों से जुड़े कानूनों में बदलाव करने का प्रयास शुरू कर दिया था। ये बदलाव ऐसे हैं जिनसे कंपनियों के प्रबंधन के लिए किसी भी मजदूर को नौकरी से निकालना आसान हो जाएगा। यानी अब तक फ्रांस के मजदूरों के पास सेवा सुरक्षा का जो कानूनी कवच है, वह हट जाएगा।

इस साल में मार्च में सरकार की इस प्रस्तावित नीति के खिलाफ लाखों लोग सड़क पर उतरे और फिर पेरिस समेत तमाम शहरों में यह आग फैल गई। 1 मई यानी मजदूर दिवस के मौके पर कई शहरों में मज़दूरों और पुलिस के बीच हिंसक झड़पे हुईं।

फ्रांस के मजदूर हायर एंड फायर (जब चाहे किसी को नौकरी पर रखो और जब चाहे निकाल दो) से जुड़े प्रस्तावित विधेयक को तुरंत वापस लेने की मांग कर रहे हैं। इसकी वजह से फ्रांस का जनजीवन अस्त-व्यस्त होता जा रहा है।

इस विधेयक के जरिए मजदूरों के के काम के घंटे एक हफ्ते में 35 से बढ़ाकर 48, और विशेष परिस्थिति में 60 तक करने का अधिकार नियोक्तओं को दिया जा रहा है। यही नहीं, विधेयक के कानून की शक्ल लेते ही नियोक्ता को वेतन घटाने का अधिकार भी प्राप्त हो जाएगा।

ये भी पढ़े : भारत-चीन सीमा विवाद : मोदी के बयान पर मचा घमासान

ये भी पढ़े : खासे भोले हैं चीनी सामान का बहिष्कार कर चीन को सबक सिखाने वाले लोग

वहीं इस मामले में राष्ट्रपति ओलांद का कहना है कि सरकार के इस कदम से रोजगार बढ़ेगा, लेकिन मजदूर यूनियनें इसे गलत बता रही हैं। ख़ुद सोशलिस्ट पार्टी के अंदर इस मुद्दे पर फूट पड़ गई है औऱ कई महत्वपूर्ण नेताओं ने अलग राह चुन ली है।

उनका साफ कहना है कि यह बाजारवादी नीति “फ्रेंच सोशल कांट्रैक्ट” के साथ विश्वासघात है। यूनियनों का रुख सख्त है और वे सरकार की ओर से विधेयक के कुछ प्रावधानों को हल्का करने के प्रस्ताव को भी खारिज कर चुकी हैं।

नतीजा यह है कि रेलवे से लेकर रिफाइनरियों तक में कामकाज प्रभावित है। देश भर में मजदूर आंदोलन के नारे गूंज रहे हैं। पेरिस जैसे सैलानियों के स्वर्ग में भी अनिश्चितता का माहौल है और उसकी तमाम सड़कों पर ख़ून के धब्बे नजर आते हैं, जो पुलिसिया कार्रवाई के शिकार मजदूरों के बदन से बहा है।

फ्रांस के इस माहौल का असर यूरोप के तमाम देशों पर पड़ रहा है। खबर है कि जर्मनी में भी खदबदाहट शुरू हो गई है और “कर लो दुनिया मुट्ठी में” वाले कारपोरेट जगत को रास्ता नहीं सूझ रहा है।

लेकिन दिलचस्प बत यह है कि इस खबर को भारत का मीडिया लगभग पचा गया है। आप गूगल में भी इसे आसानी से नहीं खोज पायेंगे, कम से कम भारतीय समाचार समूहों का ऐसा कोई प्रकाशन, जिसमें फ्रांस के मजदूरों की बात हो, आपको आसानी से नहीं दिखेगा।

और यह संयोग नहीं है। भारत का पूरा कारपोरेट मीडिया, वर्षों से श्रम सुधारों के लिए माहौल बनाने में जुटा है, जिसका एकमात्र अर्थ भारत के मजदूरों को मिले तमाम कानूनी अधिकार छीनना है।

यही नहीं, गाहे-बगाहे मीडिया, इस मुद्दे पर मोदी सरकार की सुस्ती को कोसता भी नजर आता है। मीडिया के अंदर सेवा सुरक्षा, काम के घंटे, समान वेतनमान जैसे मुद्दों को बेमानी बना दिया है। वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट के मुताबिक किसी पत्रकार से छह घंटे से ज़्यादा काम नहीं लिया जा सकता, लेकिन 10 से 12 घंटे पिसना तो आम बात है, फिर चाहे पत्रकार अखबार का हो, या टीवी का। आखिर शोषण की चक्की चलाने वाला कॉरपोरेट मीडिया फ्रांस की खबरें दिखा भी कैसे सकता है ?

बहरहाल, फ्रांस की खबर रोकी जा सकती है, पर वह आग कैसे रुकेगी जो फ्रांस के मजदूरों के दिलों में लगी है। वह तो महाद्वीपों और महासागरों को पार कर फैलती ही जाएगी। फ्रांस, पूंजीवाद के गहरे संकट में फंसे होने की मुनादी है।

ध्यान रहे कि भारत के मजदूर भी सुलग रहे हैं जिनके शोषण को ‘विकास’  और हक़ मांगने को ‘अराजकता’  बताना कॉरपोरेट मीडिया की नीति रही है। यह सुलगन कब शोला बनकर धधक पड़े, कहना मुश्किल है।

सावधान संपादकों! इतिहास तुमसे भी हिसाब लेगा!

Radio_Prabhat
English

Powered by themekiller.com anime4online.com animextoon.com apk4phone.com tengag.com moviekillers.com