Monday - 8 January 2024 - 5:16 PM

बढ़ते वाहन, तेज रफ़्तार और असंयमित व्यवहार

सड़कों पर बढ़ता जा रहा है जोखिम-1

रतन मणि लाल

आम तौर पर किसी भी अप्राकृतिक कारणों से हुई मौत के लिए किसी न किसी प्रकार से सरकारी व्यवस्था की विफलता जिम्मेदार मानी जाती है. बिजली से, पानी में डूब कर, जर्जर भवन की वजह से, किसी इमारत से फिसल कर, गिर कर या मौसम की मार की वजह से हुई दुखद मौतों के पीछे कोई सरकारी विभाग ही जिम्मेदार माना जा सकता है, और ऐसा करके हम अपनी कमियों या गलतियों को भुलाने की कोशिश करते हैं.

लेकिन सड़क दुर्घटनाएं हर समय किसी सरकारी तंत्र की कमजोरी नहीं, बल्कि हमारी अपनी जल्दबाजी, कम मेहनत या कम लागत में ज्यादा फायदा उठाने की आदत, और साधारण से क़ानून को भी न मानने के कारण होती हैं.

कुछ दिन पहले ही आगरा-नॉएडा यमुना एक्सप्रेसवे पर हुई दुखद बस दुर्घटना के बाद इस विषय पर नए सिरे से चर्चा शुरू हुई है. यह अपने आप में चौंकाने वाली बात है क्योंकि इस साल, जून तक, उत्तर प्रदेश में लगभग 12,000 लोग सड़क हादसों में अपनी जान गवां चुके हैं जिनको लेकर इस प्रकार की प्रतिक्रियाएं नहीं देखी गईं.

इस प्रकार की हर घटना में मुआवजे, मुकदमा लिखने और सामान्य कार्यवाई के अलावा कुछ भी नहीं किया जाता. लेकिन आगरा की ताजा दुर्घटना के बाद सड़क सुरक्षा को लेकर समग्र नीति बनाये की बात की जा रही है, जो शायद इस बात का दुखद संकेत है कि जब तक शहरी मध्यम वर्ग तक किसी त्रासदी की आंच नहीं पहुँचती, तब तक हमारी सरकारें भी कुछ ठोस करना जरूरी नहीं समझतीं.

यदि आंकड़ों को देखें, तो प्रदेश के परिवहन विभाग के अनुसार,वर्ष 2018 में सड़क हादसों से जान गंवाने वाले लोगों की संख्या 22,256 थी. उस वर्ष, उत्तर प्रदेश में कुल 42,568 सड़क दुर्घटनाएं दर्ज की गयीं थीं, जिनमे 22,256 लोगों की जान गयी, और 29,664 घायल हुए.

इससे पहले वर्ष, यानी 2017 की घटनाओं में हुई मौतों में यह 10.59 प्रतिशत की वृद्धि थी. वर्ष 2017 में कुल घटनाओं की संख्या 38,783 थी और मौतों का आंकड़ा 20,124 था.

विभाग के सूत्रों के अनुसार यह वास्तव में भयावह है क्योंकि पिछले साल सुप्रीम कोर्ट द्वारा देश भर में सड़क सुरक्षा को लेकर कई प्रस्ताव दिए गए थे.

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वर्ष 2018 के आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि प्रदेश के आठ जिलों में ही सड़क दुर्घटनाओं में हुई मौतों की संख्या 4,653 थी (या कुल संख्या का लगभग 20 प्रतिशत), और ये जिले थे – कानपुर नगर, प्रयागराज, लखनऊ, मथुरा, उन्नाव, फतेहपुर और बुलंदशहर.

केवल आंकड़ों के ही लिए यह भी जानना जरूरी है कि सड़क हादसों में मौतों की संख्या पांच साल पहले, यानी 2014 में 16,287 थी, अर्थात पांच सालों में ही करीब 37 प्रतिशत वृद्धि हुई है.

इन पांच सालों में सड़कों पर चार-पहिया व दो-पहिया वाहनों की संख्या में लाखों की वृद्धि हुई, ड्राइविंग लाइसेंस दिए जाने वाले लोगों की संख्या में भी हजारों का इजाफा हुआ, सड़कों की चौड़ाई बढ़ी और उन पर अतिक्रमण बढ़ता गया, सड़क पर वाहन चलते समय एडवेंचर करने, रेस लगाने, मोबाइल पर बात करने या गाना सुनने, आपस में बात करने, सड़क नियमों और संकेतों को अनदेखा करने, सवारी गाड़ियों में क्षमता से अधिक लोग भरने, और मालवाहक वाहनों में अनुमति से ज्यादा सामान लादने की घटनाओं में वृद्धि होती चली गयी.

आज भी, हमारी सरकारों की प्राथमिकता है कि और सड़कें बनाई जाएं, एक्सप्रेसवे बनें, वाहनों का उत्पादन बढ़ रहा है इसलिए लोग उन्हें चलाएंगे ही, और इस तरह हमारी अर्थव्यवस्था को गति मिलती रहे.

लेकिन इस गति के चलते जो हजारों परिवारों के सदस्य हर रोज सड़क दुर्घटना के शिकार हो रहे हैं उनका क्या? अपनी कोई गलती न होते हुए भी, अपनी ओर से अधिक किराया देकर, तथाकथित सुरक्षित बस, टैक्सी या एसयूवी में यात्रा करने के बावजूद जान गंवाने पर लोग क्यों मजबूर हैं?

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हम में से जो भी सड़क से नियमित यात्रा करते हैं उन्होंने जरूर देखा होगा कि किस तरह लोग दोपहिया या चार-पहिया वाहन गलत दिशा से अचानक सामने चले आते हैं, कैसे बोना किसी संकेत के ट्रकें या अन्य वाहन सड़क के किनारे खड़े कर दिए जाते हैं, कैसे बिना संकेत दिए कोई भी गाडी या तो अचानक रुक जाती है, या मुड़ जाती है, या चल देती है.

यही नहीं, हाईवे और एक्सप्रेसवे पर भी लोग आराम से सड़क पार करने से नहीं हिचकते, छुट्टा जानवर या साइकिल सवार सड़क के डिवाइडर से जब चाहें जिधर भी चल देते हैं. और इन सबको बचने के चक्कर में कार, बस या अन्य बड़ी गाड़ियों के सामने अचानक ब्रेक लगाने और दूसरी दिशा में ले जाने के अलावा कोई चारा नहीं होता, नतीजतन वे किसी पेड़ से टकराते हैं या सड़क के किनारे गिर जाते हैं.

सड़कों पर कैसे चला जाए इस पर तो हर वाहन चालक के पास अपने अनुभव भरे पड़े हैं. लेकिन क्या हर वाहन चलाने वाला भी गाडी चलाने के लिए सक्षम है?

इस लेख की अगली कडी : सबके पास तो लाइसेंस है, फिर दुर्घटनाएं क्यों?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )

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