न्यूज डेस्क
एक ओर देश में कोरोना संकट के बीच सोशल मीडिया के मार्फत हिंदू-मुस्लिम करने के माहौल बिगाडऩे की कोशिश हो रही है तो वहीं कर्नाटक राज्य के कोलार में रहने वाले दो भाइयों ने लॉकडाउन में गरीब लोगों को खाना खिलाने के लिए अपनी जमीन बेंच दी।
कहा जाता है कि भूख की तपिश वहीं महसूस कर सकता है जो कभी भूखा सोया होगा। दूसरे को भूख से हो रहे पेट दर्द को महसूस वहीं कर पायेगा जिसने ऐसी स्थिति का सामना किया होगा। कर्नाटक के ये दोनों भाई ऐसा महसूस इसलिए कर पाये क्योंकि एक वक्त में उनकी मदद के लिए भी बिना किसी भेदभाव के कई हाथ उठे थे।
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इसीलिए मुजम्मिल और तजम्मुल कहते हैं कि ‘अगर हम धर्म देखकर लोगों को खाना दें तो ईश्वर हमारी ओर देखना बंद कर देगां। इन दोनों भाइयों ने 25 लाख में अपनी संपत्ति बेच दी और अब इन पैसों से गरीब लोगों को राशन मुहैया करा रहे हैं।
37 साल के मुजम्मिल पाशा, दोनों भाइयों में छोटे हैं। वह कहते हैं, ‘हमें लगा कि बहुत से लोग हैं जो गरीब हैं, जिनके पास खाने के लिए कुछ नहीं है। उनके लिए हमें आगे आना होगा।’
वह कहते हैं, एक वक्त था जब हम ख़ुद भी बहुत गरीब थे। किसी ने हमारे प्रति भेदभाव नहीं रखा, अलबत्ता मदद ही की। फिर हम ऐसा कैसे कर सकते हैं।
जब इन दोनों भाइयों को एहसास हुआ कि लॉकडाउन के कारण बहुत से गरीब लोगों के लिए परिस्थितियां मुश्किल हो गई हैं और उन्हें परेशानी से जूझना पड़ रहा है तो इन दोनों भाइयों अपनी जमीन के टुकड़े को बेचने का फैसला किया। दोनों भाइयों ने जो जमीन बेंची है, उस जगह पर अपने बागान की चीजों को स्टोर करते थे।
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मुजम्मिल बताते हैं, ‘हमने अपनी जमीन का वो टुकड़ा अपने एक दोस्त को बेच दिया। वो बड़ा भला मानस था और उसने हमें उस जमीन के बदले 25 लाख रुपये दिये। ‘
वह बताते हैं, इस दौरान और भी बहुत से दोस्तों ने अपनी-अपनी ओर से सहयोग किया। किसी ने 50 हज़ार रुपये दिए तो किसी ने एक लाख रुपये। वास्तव में यह कहना ठीक नहीं है कि अभी तक कितना ख़र्च किया जा चुका है। अगर ईश्वर को पता है तो काफी है।’
वो बताते हैं, ‘हमने गरीबों को खाना देना शुरू किया और जिस किसी भी जगह पर हमें पता चला कि कोई किल्लत से जूझ रहा है वहां हमने उसे 10 किलो चावल, 2 किलो आटा, एक किलो दाल, एक किलो चीनी, 100-100 ग्राम करके धनिया, लाल मिर्च, हल्दी, नमक और साबुन इत्यादि चीजें मुहैया करायीं।’
रमजान शुरू हुए दो दिन हुए हैं और इन दो दिनों में ढाई हजार से तीन हजार लोगों को खाने के पैकेट दिए जा रहे हैं और जरूरत की चीजें भी।
गरीबों को खाना खिलाने का विचार कहां से आया? के सवाल पर मुजम्मिल कहते हैं, ‘जब हम बड़े हुए तो हमारी दादी हमें बताया करती थीं कि हमारी परवरिश के लिए बहुत से लोगों ने मदद की थी। किसी ने पांच रुपये तो किसी ने दस रुपए की मदद की। दादी कहा करती थीं कि हमें बिना किसी भेदभाव के लोगों की मदद करनी चाहिए। वो अरबी पढ़ाया करती थीं। ‘
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मुजम्मिल ने बहुत छोटे पर ही अपने पिता को खो दिया था। जब उनके पिता की मौत हुई तो बड़ा भाई चार साल का और छोटा भाई तीन साल का था। दुख यहीं खत्म नहीं हुआ। पिता के मौत के 40 दिन ही बीते थे कि मां का भी निधन हो गया। तीनों ब”ाों को उनकी उनकी दादी ने बड़ा किया।
एक स्थानीय मुअज्ज़िन ने उन्हें एक मस्जिद में रहने के लिए जगह दी। मस्जिद के पास ही एक मंडी थी,जहां दोनों भाइयों ने काम करना शुरू किया।
मुजम्मिल बताते हैं, ‘हम दोनों बहुत अधिक पढ़े-लिखे नहीं हैं। साल 1995-96 में हम हर रोज 15 से 18 रुपये रोजाना कमाया करते थे। कुछ सालों बाद मेरे भाई ने मंडी शुरू करने के बारे में सोचा।’
जल्द ही दोनों भाइयों ने कुछ और मंडियों की शुरुआत की। अब वे आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु से भी केले लाते हैं और डीलरों के साथ थोक व्यापार करते हैं।
मुजम्मिल आगे कहते हैं, ‘धर्म सिर्फ इस धरती पर ही है। ईश्वर के पास नहीं। वो जो हम सब पर नजर रखता है वो सिर्फ हमारी भक्ति को देखता है बाकी और कुछ नहीं।
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