Friday - 12 January 2024 - 1:18 AM

पेशबंदी के लिए अफसरों पर कार्रवाई से और बढ़ेगी मुख्यमंत्री की मुसीबत

के पी सिंह

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सुस्त कार्यप्रणाली उनके लिए मुसीबत का कारण बन चुकी है। हाल में प्रदेश में ताबड़तोड़ कई बड़ी घटनाएं हुई जिनसे उनकी कार्यप्रणाली कटघरे में खड़ी हो गई है। निवर्तमान राज्यपाल राम नाईक जो कानून व्यवस्था की बहुत चिंता करते थे इस माहौल के कारण अपने को मीडिया के सामने धर्म संकट में महसूस करने लगते थे।

अखिलेश सरकार के समय तो वे गंभीर घटनाओं को लेकर दो टूक कह डालते थे कि प्रदेश में कानून व्यवस्था की स्थिति गड़बड़ाई हुई है जिसमें सुधार के लिए सरकार को विचार कर कदम उठाने चाहिए लेकिन योगी सरकार में वे बेलाग शब्दों में ऐसा नहीं कह सकते थे पर सरकार को क्लीन चिट देना भी उनके लिए मुमकिन नहीं था।

इसलिए वे यह कहकर बच निकलने की कोशिश करते थे कि संगठित अपराधों में तो कमी आयी है पर अन्य अपराध बढ़ने की बात उनको स्वीकार करनी पड़ती थी। अंदाजा लगाया जा सकता है कि जब योगी सरकार के अपने राज्यपाल भी प्रदेश की कानून व्यवस्था के सवाल को लेकर सहज नहीं रह पाते थे तो स्थिति कितनी बिडम्बनापूर्ण होगी।

योगी आदित्यनाथ ने जब कार्यभार संभाला था तो लगभग तीन महीने तक उनके बिना कुछ किये केवल उनको लेकर व्याप्त धारणा के आधार पर शासन संचालन में परिवर्तन महसूस होने लगा था। अपराधी इन महीनों में स्वतः भयभीत रहे और अधिकारी, कर्मचारी खुलेआम घूस मांगना बंद कर गये थे। इस दौरान योगी ने सभी विभागों के प्रेजेन्टेशन लिये जिससे लोगों की उम्मीदें और बढ़ गई। लोगों को लगा कि होम वर्क करके योगी सरकार जब विकास की गाड़ी प्रदेश के नक्शे पर दौड़ायेगी तो कायाकल्प हो जायेगा।

लेकिन जल्दी ही उनकी सरकार की खोखलेपन से निहित स्वार्थ बखूबी परिचित हो गये तो उनका भय जाता रहा। दुर्भाग्य यह है कि योगी के पास न तो शासन संचालन को लेकर दूर दृष्टि है और न ही वे प्रबंधन कला से परिचित हैं।

उनकी कमजोरी पहली बार तब सामने आयी जब उन्हें सपा के कार्यकाल में पदस्थ किये गये अधिकारियों को हटाने के लिए काफी चिंतन मनन करते देखा गया। धारणा यह थी कि सपाई शासन के ज्यादातर अधिकारी अपने राजनैतिक आकाओं के पिट्ठू थे जिन्होंने अपनी क्षमताओं का इस्तेमाल भाजपा कार्यकर्ताओं के दमन के लिए किया था। इसलिए सरकार बदलते ही कार्यकर्ता बेसब्र थे कि इनका फौरन महत्वहीन जगहों पर तबादला हो।

इसमें देरी की वजह स्पष्ट नहीं हो पा रही थी जिससे भाजपा के कार्यकर्ताओं में ही अपनी सरकार के लिए क्षोभ घुमड़ने लगा था। योगी सरकार बनते ही भाजपा को उपचुनावों में तीन लोकसभा सीटें गंवानी पड़ी जिसके पीछे कहीं न कहीं इसी कारक को जिम्मेदार कहा जा सकता है।

बाद में जब तबादले हुए भी तो स्थिति बहुत नहीं सुधरी। अधिकारियों की महत्वपूर्ण जगहों पर तैनाती के संबंध में तमाम व्यवहारिक पक्षों का ध्यान नहीं रखा गया। इस मामले में सरकार जातिगत दृष्टिकोण से ग्रसित नजर आयी। जन्मना हुकूमत चलाने की योग्यता रखने के मिथक के तहत पोस्टिंग पाने वाले अधिकारी निरंकुश होकर काम कर रहे थे क्योंकि उन्हें मालूम था कि पोस्टिंग देने के इस मापदंड के कारण सरकार के पास सीमित विकल्प हैं जिससे उन्हें हटाने का फैसला आसानी से नहीं लिया जा सकता।

दूसरी ओर योगी अच्छे प्रशासन के लिए अधिकारियों की स्थिरता के सिद्धांत में भी विश्वास कर रहे थे जिसे लेकर उनकी मायावती से तुलना होती थी जो अफसरों के तड़ाक भड़ाक ट्रांसफर, निलंबन आदि कार्रवाइयों से सरकार की हनक बनाये रखने में सफल थी। हालांकि यह तुलना सीएम योगी आदित्यनाथ को चिढ़ा देती थी जिससे अधिकारियों को उनका आशीर्वाद और बढ़ता रहा था। पर जब पार्टी के अंदरूनी हलकों में भी योगी की क्षमताओं पर उंगलियां उठाकर उनका विकल्प तलाशने की चर्चाये तेज होने लगी तो योगी को अपना रूख बदलना पड़ा और उन्होंने भी अधिकारियों के तबादले से लेकर उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई करने की मुद्रा साध ली।

हो रही योगी सरकार की फजीहत

इसके बावजूद जन्मना अर्हता के सिद्धांत को उन्होंने नहीं छोड़ा। हालांकि इन काबिल अफसरों के बावजूद योगी सरकार की जिस तरह फजीहत हो रही है उससे इस सिद्धांत की धज्जियां उड़ गई हैं। बरेली के विधायक की बेटी के प्रेम विवाह, संभल में पुलिस कर्मियों की हत्या कर कैदियों को उनके साथियों द्वारा दुस्साहसिक ढ़ंग से भगा लिया जाना, सोनभद्र में माफिया प्रधान के तांडव में 11 आदिवासियों को मारा जाना और उन्नाव में रेप पीड़िता के एक्सीडेंट के मामले सरकार संभाल नहीं पाई। ये प्रकरण जिस तरह से मीडिया में सुर्खी बनकर छाये उसके चलते केन्द्र तक को विचलित होना पड़ा।

जिलों के नाम बदलने, इलाहाबाद के अर्द्धकुंभ के भव्य आयोजन, वृंदावन में पूरे ठाट बाट से होली और अयोध्या में दीपावली मनाने जैसे उपक्रमों से हिन्दुत्व की तरंगित करने वाली घुट्टी पिलाकर सरकार चलाने की समस्या से निजात पाने का जो भरोसा योगी ने पाल रखा था उसे इन मामलों के बवंडर ने हिला दिया।

प्रदेश के लोग अपराधिक मानसिकता के

तो क्या उत्तर प्रदेश के लोग बुनियादी तौर पर आपराधिक मानसिकता के हैं जिसके कारण यह सोच लिया जाना चाहिए कि सूबे में कोई भी सरकार आ जाये कानून व्यवस्था को बहुत दुरूस्त नहीं कर पायेगी। जाहिर है कि कोई भी इस तरह की धारणा को सही नहीं ठहरा सकता इसलिए अगर स्थिति में सुधार नहीं आता तो सरकार ही प्रश्न चिंह के घेरे में आयेगी। स्वयं योगी कहीं न कहीं इस बात को महसूस कर रहे हैं।

इसीलिए उन्होंने पिछले दो दिनों में अधिकारियों पर धड़ाधड़ गाज गिराने का काम किया है। संकट के समय नौकरशाही को बलि का बकरा बनाकर पतली गली से निकल लेने का फार्मूला स्वयं सिद्ध है और सूबे की सरकार फिलहाल सुचिंतित ढ़ंग से स्थितियों को दुरूस्त करने की बजाय इसी पर अमल करती दिख रही है।

निलंबित हुए बुलंदशहर के एसएसपी

सरकार ने बुलंदशहर के एसएसपी एन कोलांची को थाने बेचने की आंतरिक समिति की जांच रिपोर्ट के आधार पर निलंबित किया है। 2008 बैच के आईपीएस एन कोलांची तमिलनाडु के रहने वाले हैं जिसके कारण वे साफ्ट टारगेट माने गये। वैसे हालत यह है कि अधिकांश जिलों के पुलिस कप्तान पोस्टिंग में छुट्टा लेन देन कर रहे हैं। यहां तक कि ऊपर तक लेन देन का बोल बाला चल रहा है और इसीलिए पुलिस का रवैया नहीं बदल पा रहा है।

अगर इंटैलीजेंस और विजिलेंस से पुलिस कप्तानों की रिपोर्ट मंगाई जाती रहे और उसके आधार पर बेहद भ्रष्ट पुलिस कप्तानों को तुरत फुरत चलता किया जाने लगे तो थानों की नीलामी और इकजैहती की वसूली पर काफी हद तक नियंत्रण हो सकता है लेकिन ऐसा करने में मुख्यमंत्री को कोई रूचि नहीं है। इसीलिए एन कोलांची के निलंबन से अन्य पुलिस कप्तानों पर कोई प्रभाव पड़ेगा सयाने बिल्कुल भी इस मुगालते में नहीं हैं।

वास्तविकता तो यह है कि एन कोलांची के निलंबन के पीछे कुछ और कारण माने जा रहे हैं जिसकी तलाश में लोग जुटे हैं। कोई इसे पुलिस प्रशासन को साफ सुथरा बनाने के संकल्प का परिणाम नहीं मान रहा है।

आईपीएस एसोसिएशन हरकत में

उधर आईपीएस एसोसिएशन भी इसे लेकर हरकत में आ गई है। आईपीएस एसोसिएशन का कहना है कि अखिल भारतीय सेवा के वरिष्ठ अधिकारियों को नियमतः केन्द्र की अनुमति के पूर्व निलंबित या बर्खास्त नहीं किया जा सकता जबकि तीन महीने पहले बाराबंकी के एसपी डा0 सतीश कुमार को राज्य सरकार ने सीधे निलंबित कर दिया था जिन्हें बाद में बहाल करना पड़ा और अब उन्हें जालौन के एसपी की बागडोर भी सौप दी गई है। ताजा मामला एन कोलांची का है जिनके निलंबन के लिए भी केन्द्र की अनुमति की प्रतीक्षा नहीं की गई। आईपीएस एसोसिएशन की नाराजगी से योगी सरकार के मनोबल पर क्या असर होता है यह देखने वाली बात होगी।

डीजीपी ओपी सिंह निशाने पर

हालांकि प्रदेश में संगीन अपराधों की झड़ी को लेकर मुख्यमंत्री के आलोचकों के निशाने पर डीजीपी ओपी सिंह हैं। ओपी सिंह पर लम्बे समय से उंगलियां उठ रही हैं और ताजा घटनाओं से उन्हें बदलने की मांग बहुत ज्यादा जोर पकड़ गई है। दूसरी ओर मुख्यमंत्री अपने सजातीय डीजीपी पर वरदहस्त हटाने को तैयार नहीं हैं। एन कोलांची के निलंबन के साथ-साथ सोनभद्र नरसंहार को लेकर मुख्यमंत्री ने अब इतने दिनों बाद वहां के डीएम एसपी को भी हटाने का एलान कर दिया है ताकि यह संदेश दिया जा सके कि वे अधिकारियों पर मेहरबान नहीं हैं जैसी कि उनको लेकर धारणा बनाई जा रही है।

इस बीच डीजीपी भी एक्शन में आ गये हैं। उन्होंने जिलों के पुलिस कप्तानों के साथ वीडियों कान्फ्रेसिंग की ताकि यह जताया जा सके कि उनकी लगाम कहीं से भी ढ़ीली नहीं है। इस वीडियों कान्फ्रेसिंग में वे बाराबंकी, सुल्तानपुर, गौतमबुद्धनगर, संभल और आजमगढ़ के कप्तानों पर जमकर बमके। लेकिन तात्कालिक कार्रवाइयों से स्थितियां पटरी पर नहीं आयेंगी। उन्हें सुधारने के लिए स्थायी प्रतिबद्धता की जरूरत है।

चार दिन की चांदनी के बाद फिर अंधेरी रात

सोनभद्र मामले के बाद पूरे प्रदेश में सरकारी जमीन हड़पने वाले माफियाओं की तलाश शुरू हुई थी लेकिन इस मामले में चार दिन की चांदनी के बाद फिर अंधेरी रात आ गई है और सभी जिलों में प्रशासन की तेजी ठंडे बस्ते में पड़ चुकी है। फिर कहीं अगर सोनभद्र नरसंहार जैसे कांड की पुनरावृत्ति हो गई तो सरकार काग्रेस के जमाने के गड़बड़झाले को जिम्मेदार बताकर अपना दामन झटकने के लिए तैयार बैठी है।

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