Thursday - 11 January 2024 - 4:37 AM

बोहरा कमेटी का चिराग कितना कारगर

के पी सिंह 

कानपुर के बिकरू कांड के बाद 1993 में राजनीति, अपराध और पुलिस तिगड्डे की पड़ताल के लिए गठित बोहरा कमेटी की चर्चा नये सिरे से सतह पर आ गई है। ऐसा संदर्भ जब भी आया है बोहरा कमेटी की रिपोर्ट को अलादीन के चिराग की तरह पेश किया जाता रहा है जो कि मर्ज को लेकर अधूरी समझ का परिणाम है। चाहे समाज हो या विधि व्यवस्था इसमें जो विकृतियां आती है उनके पीछे कई कारक काम करते हैं जिनको देखा जाना सम्पूर्ण दृष्टि होने पर ही संभव है।

अपराधीकरण को रोकने के लिए बोहरा कमेटी जैसे ठटकर्म समय-समय पर होते रहते हैं लेकिन इसका नतीजा मर्ज बढ़ता ही गया, ज्यों-ज्यों दवा की, जैसा रहता है। उदाहरण के तौर पर सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी थी कि हर चुनाव में उम्मीदवारों को अपने ऊपर दर्ज मुकद्दमों की जानकारी शपथ पत्र के रूप में नामांकन पत्र के साथ देनी होगी।

अब तो यह भी तय कर दिया गया है कि उम्मीदवार अपने बारे में इस जानकारी को खुद खर्चा करके व्यापक रूप से प्रकाशित प्रचारित करायेगा। उम्मीद की गई थी कि समाज की मानसिकता पर यह जानकारी झन्नाटेदार असर करेगी जिससे आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवार के नाम पर उसका जमीर विद्रोह कर जायेगा। लेकिन एडीआर की रिपोर्ट बताती है कि यह कवायद वेमतलब की साबित हो रही है।

समाज में ऐसे ही महारथियों पर निसार हो जाने की प्रवृत्ति है जिससे राजनीतिक दल उम्मीदवारी तय करने में बाहुबलियों को प्राथमिकता देने के लिए मजबूर रहते हैं।

33 करोड़ देवी देवताओं को मानने वाले भारतीय समाज की स्थितियां विचित्र हैं। हिंसा के गुण को इस सांस्कृतिक परिवेश में प्रचुर मान्यता दी गई है। ज्यादातर देवता हैं जो इसी आधार पर जिसे दुष्टदलन का नाम दिया जाता है पूज्य ठहराये गये हैं। इस प्रवृत्ति का सूत्रीकरण समरथ को नहीं दोष गुसाई में निहित किया जाता है।

ऐसे में बाहुबली को कानून परित्यक्त या बहिष्कृत ठहराना चाहता है तो उसका कोई सार नहीं है। समस्या की जड़ हमारे सांस्कृतिक डीएनए में है जिसे कैसे दुरूस्त किया जाये यह एक चुनौती है। हालांकि एक समय ऐसा था जब समरथ को नहीं दोष गुसाई के विश्वास के बावजूद व्यक्तियों को लेकर समाज के सोचने का नजरिया अलग था। उस समय समाज में अपराधी और मसीहा के बीच अंतर करने की तमीज थी।

कौन सी हिंसा धर्म की हानि बचाने के लिए मजबूरी में की गई और किस हिंसा का औचित्य आपराधिक मानसिकता के अलावा कुछ नहीं है इसका पहचान करने का नीरक्षीर विवेक समाज में पर्याप्त रूप से था। विडंबना यह है कि जब लोकतंत्र एक अंग के रूप में रूल आफ ला यानि कानून का शासन स्थापित किया गया तो उसकी अग्रसरता के लिए परंपरागत सामाजिक संस्थाओं की बलि चढ़ाना समानांतर व्यवस्था खत्म करने की दृष्टि से अपरिहार्य हो गया।

दूसरी ओर कानून का शासन कारगर तरीके से संचालित भी किया जा सका जिससे समाज शून्य में चला गया और अराजकता के गर्त में धस जाना उसकी नियति साबित हुआ।

आज यक्ष प्रश्न यह है कि कानून के शासन की विकलांगता की स्थिति क्यों है। अमेरिका में जब क्राइम बढ़ जाता है तो जीरो टोलरेंस की मुहिम छेड़ी जाती है। इसमें छोटे से छोटे कोताही को भी नहीं बख्शा जाता। अगर सार्वजनिक स्थान पर सिगरेट पीने को मना किया गया है तो चाहे राष्ट्रपति के बेटे, बेटी ऐसा करते पकड़े जायें तो उन्हें भी बख्शने का सवाल नहीं है।

भारत में ऐसी कल्पना भी नहीं की जाती। पहले सरकार तक को कानून व्यवस्था की मशीनरी पर आस्था नहीं है। सपा के शासन में तो सत्तारूढ़ पार्टी के लम्पट कार्यकर्ताओं की समानांतर सरकार कानून की मशीनरी पर हावी कर दी गई थी। तो वर्तमान सरकार में भी इसका पुरसाहाल नहीं है।

गौ रक्षा का काम सरकार को कानूनी मशीनरी से कराना चाहिए लेकिन बाहरी लोगों को इसके नाम पर कानून हाथ में लेने की छूट दी जाने का परिणाम बुलंदशहर में इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह की हत्या के रूप में सामने आना। फिर भी सरकार ने इसकी चिंता ज्यादा की कि पुलिस का मनोबल गिरे तो गिरे पर तथाकथित गौ भक्तों को मनोबल नहीं गिरना चाहिए।

विकास दुबे के एनकाउंटर के जातिगत रंग लेने के बाद यही दृष्टांत सरकार को भारी पड़ रहा है। उससे पूछा जा रहा है कि सुबोध कुमार सिंह की हत्या करने वाला एनकाउंटर कराने की वजाय उन्हें फूल मालायें क्यों पहनाई गई। सरकार को गर्दन नीचे करके यह ताने सुनने पड़ रहे हैं।

बोहरा कमेटी की रिपोर्ट का राग अलापने की वजाय यदि सरकार पर कानूनी मशीनरी को चुस्त दुरूस्त करने के लिए दबाव बनाया जाये तो नतीजे ज्यादा बेहतर हो सकते हैं। अभी हालत यह है कि प्रशासन हो या पुलिस केवल उन लोगों की ही सुनती है जो अधिकारियों की कुर्सी के लिए खतरा बन सकते हैं।

ये भी पढ़े : कांग्रेस के युवा नेतृत्व में बढ़ने लगी है निराशा

ये भी पढ़े : रोकना होगा लापरवाही के इस दौर को

कानून की मशीनरी का पुंसत्व क्षीण हो चुका है क्योंकि उसमें माफियाओं से टकराने की जुर्रत नहीं बची है। विकास दुबे के बारे में सामने आ रहा है कि जब वह जिंदा था जबरदस्ती जमीनों पर कब्जा करता जा रहा था फिर भी उसके खिलाफ एक्शन नहीं लिया जा रहा था। इस बीच भूमाफियाओं के खिलाफ चल रहे अभियान में शासन स्तर से निगरानी में भी इसे संज्ञान में नहीं लिया जा सका था।

इस मामले में इतना बड़ा कांड हो जाने के बावजूद भी कोई सार्वभौमिक परिवर्तन आया हो यह नहीं दिखाई दे रहा है। सोनभद्र में जब भूमाफियाओं ने लगभग एक दर्जन आदिवासियों की सामूहिक हत्या कर दी थी उस समय भी सरकार के लोगों ने काफी बाजू फड़फड़ाई थी पर कुछ दिनों बाद उनका खून ठंडा पड़ गया और प्रदेश भर में नजूल की जमीन से लेकर गरीब की जमीन तक पर कागजी हेराफेरी करके कब्जा जमाने का नाच बदस्तूर चलता रहा और अभी भी जारी है।

सरकार अगर ढंग से काम करना चाहती है तो उसे निहित स्वार्थो की नाराजगी का जोखिम उठाना ही पड़ेगा। पर दिक्कत यह है कि सरकार नौकरशाही को नाराज नहीं करना चाहती। वह कोई हुकुम जारी करती है और नौकरशाही बिफर जाती है तो भींगी बिल्ली बन जाती है।

ये भी पढ़े : ब्रह्मदेवताओं की नाराजगी से डोला सिंहासन

ये भी पढ़े : EDITORs TALK बैंक : पहले राष्ट्रीयकरण, अब निजीकरण ?

ऐसे में अधिकारियों के प्रति प्रतिशोध की भावना की शिकार जनता के लिए माफिया देवदूत बन जाते है जिनके सामने वे अधिकारियों को मिमियाता देख सकें। विधि व्यवस्था के लचर होने के चलते ही माफियाओं की मान्यता बढ़ी है क्योंकि उनके दरबार में पहुंचकर पीड़ित कुछ तो निदान पा लेता है।

जब तक यह नहीं हुआ कि कानूनी तंत्र इतना सक्रिय और प्रभावी हो कि लोगों को माफियाओं की शरण में जाने की जरूरत ही नहीं पड़े तब तक स्थिति नहीं सुधरेगी यह तब होगा जब भ्रष्टाचार रोकने और जबावदेही तय करने में सरकार सख्त बने। पर क्या वर्तमान सरकार में ऐसा करने की कोई इच्छाशक्ति है।

डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति Jubilee Post उत्तरदायी नहीं है।
Radio_Prabhat
English

Powered by themekiller.com anime4online.com animextoon.com apk4phone.com tengag.com moviekillers.com