Wednesday - 10 January 2024 - 8:43 AM

बसंत पंचमी पर पढ़े ये मशहूर कविताएं

जुबिली न्यूज़ डेस्क

देश भर में लोग आज बसंत पंचमी मना रहे हैं। इस दिन मां सरस्वती की पूजा की जाती है। ऐसा माना जाता है कि आज से बसंत की शुरुआत हो जाती है। पेड़ों पर से पुरानी पत्तियां गिरने लगती है। इस दिन मां सरस्वती की पूजा करने से मां की विशेष कृपा प्राप्त होती है। इस मौके पर हम आपको सुनाते हैं कुछ कविताएं, जोकि मशहूर कवियों द्वारा लिखी गई है

1.अब ये फूल-फूल रस भीने

अब ये फूल-फूल रस भीने
कितना तप-तप कर पाई है यह शोभा धरती ने!

तीर प्रखर थे रवि किरणों के
उपल-वृष्टि, झंझा के झोंके
किसमें साहस था पथ रोके
पर इनका मधु छीने!

फूल भले ही ये कुम्हलाये
यहाँ देर तक ठहर न पायें
पर न मलिन होंगी मालायें
जो दीं गूँथ किसी ने

अब ये फूल-फूल रस भीने
कितना तप-तप कर पाई है यह शोभा धरती ने!

गुलाब खंडेलवाल

2. आया बसंत

आया बसंत, आया बसंत
रस माधुरी लाया बसंत
आमों में बौर लाया बसंत
कोयल का गान लाया बसंत
आया बसंत आया बसंत

टेसू के फूल लाया बसंत
मन में प्रेम जगाता बसंत
कोंपले फूटने लगी
राग-रंग ले आया बसंत
आया बसंत आया बसंत

नव प्रेम के इज़हार का
मौसम ले आया बसंत
बसंती बयार में
झूमने लगे तन-मन
सोये हुए प्रेम को आके जगाया बसंत
आया बसंत आया बसंत

कविता गौड़

3. आजकल का वसन्त

जीवन से गायब
मगर अख़बारों में छप जाता है
छा जाता है खेतों में
आजकल का वसन्त

कुछ इसी तरह आता है

फ़ोन पर बात करता हुआ
एक आदमी
किसी एक गर्म आलिंगन के लिए तरसता है
और तरसते-तरसते ही मर जाता है

कुछ इसी तरह आता है
आजकल का वसन्त!

राजकुमार कुंभज

4.बसंत आया, पिया न आए

बसंत आया, पिया न आए, पता नहीं क्यों जिया जलाए
पलाश-सा तन दहक उठा है, कौन विरह की आग बुझाए

हवा बसंती, फ़िज़ा की मस्ती, लहर की कश्ती, बेहोश बस्ती
सभी की लोभी नज़र है मुझपे, सखी रे अब तो ख़ुदा बचाए

पराग महके, पलाश दहके, कोयलिया कुहुके, चुनरिया लहके
पिया अनाड़ी, पिया बेदर्दी, जिया की बतिया समझ न पाए

नज़र मिले तो पता लगाऊँ की तेरे मन का मिजाज़ क्या है
मगर कभी तू इधर तो आए नज़र से मेरे नज़र मिलाए

अभी भी लम्बी उदास रातें, कुतर-कुतर के जिया को काटे
असल में ‘भावुक’ ख़ुशी तभी है जो ज़िंदगी में बसंत आए

मनोज भावुक

5.उम्र के चालीसवे वसंत में

उम्र के चालीसवें वसंत में-
गिरती है समय की धूप और धूल
फ़र-फ़र करती झरती हैं तरुण कामनाएँ
थोड़े और घने हो जाते है मौन के प्रायः दीप
फिर, फिर खोजता है मन सताए हुए क्षणों में सुख!

उम्र के चालीसवें वसंत में-
छातों और परिभाषाओं के बगैर भी गुज़रता है दिन
सपने और नींद के बावजूद बीतती है रात
नैराश्य के अन्तिम अरण्य के पार भी होता है सवेरा
जीवन के घने पड़ोस में भी दुबकी रहती है अनुपस्थिति!

उम्र के चालीसवें वसंत में-
स्थगित हो जाता है समय
खारिज हो जाती है उम्र
बीतना हो जाता है बेमानी!

मनीष मिश्र

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