Sunday - 7 January 2024 - 5:30 AM

महाराष्ट्र में चारों पार्टियां चकरघिन्नी, सरकार का पता नहीं

कृष्णमोहन झा

महराष्ट्र में राज्यपाल की सिफारिश पर एवं कैबिनेट की मंजूरी के बाद राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया है इस बीच सरकार बनाने की कवायद में जुटी शिवसेना ने बड़ा बयान दिया है। शिवसेना ने कहा कि अगर एनसीपी कांग्रेस के साथ सरकार नहीं बनी तो मध्यावधि चुनाव के लिए तैयार है। हालांकि संजय राउत बोले इसकी नौबत नहीं आएगी।

शिवसेना के सूत्रों के मुताबिक अगर एनसीपी, कांग्रेस के साथ शिवसेना का गठबंधन नहीं हो पाया तो शिवसेना फिर चुनाव में जाने को तैयार है। यानी शिवसेना मध्यावधि चुनाव के लिए भी तैयार है। इसका मतलब है कि शिवसेना ने बीजेपी की तरफ वापसी के सभी रास्ते बंद कर दिए हैं।

शिवसेना के सूत्रो की माने तो शिवसेना का बीजेपी की तरफ वापसी का कोई रास्ता नहीं है, अगर हम वापस बीजेपी के तरफ जाएंगे तो इसका मतलब होगा कि हम झूठ बोल रहे थे। जबकि झूठ तो बीजेपी बोल रही है। शिवसेना के मुताबिक अभी एनसीपी कांग्रेस के साथ बातचीत बेहद अच्छे माहौल में चल रही है। कॉमन मिनिमम प्रोग्राम बनाने के लिए बैठकों का दौर चल रहा है। कॉमन मिनिमम प्रोग्राम यानी कि न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाने के लिए मुद्दों को छांटा जा रहा है। इसके लिए तीनों पार्टियों के वचन पत्रों को आधार बनाया जा रहा है। किसानों का कर्जा माफ इसमें प्रमुख मुद्दा है। एनसीपी,कांग्रेस और शिवसेना की सरकार नहीं बनेगी इसकी कोई संभावना नहीं है।

महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव गत 21 अक्टूबर को संपन्न हुए थे और 24 अक्टूबर को परिणामों की घोषणा भी कर दी गई। भाजपा 105 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी और शिवसेना 56 सीटें जीतकर दूसरे नंबर की पार्टी बन गई। इस तरह दोनों दलों ने मिलकर 288 सदस्यीय सदन में बहुमत हासिल कर लिया। दोनों दलों का यह गठबंधन इस फार्मूले पर बना था कि चुनाव में बहुमत मिलने पर सत्ता के समस्त पदों पर 50- 50 प्रतिशतकी हिस्सेदारी होगी। चुनाव परिणामों की घोषणा के बाद शिवसेना ने इसकी जो व्याख्या की, वह भाजपा की कल्पना के बाहर की चीज थी। शिवसेना का कहना था कि सत्ता पक्ष के पदों में मुख्यमंत्री का पद भी आता है। अतः 50 -50 की हिस्सेदारी का फार्मूला उस पर भी लागू होता है। इसलिए मुख्यमंत्री की कुर्सी पर पहले ढाई साल के लिए शिवसेना का अधिकार होगा। भाजपा ने इससे साफ इंकारकर दिया और शिवसेना को उपमुख्यमंत्री पद के साथ आधे विभाग देने का प्रस्ताव दिया, जिसे शिवसेना ने ठुकरा दिया।

शिवसेना ने साफ कहा कि वह मुख्यमंत्री की कुर्सी पर ढाई साल बैठे बिना नहीं मानेगी। शिवसेना के प्रवक्ता संजय राउत के अंदर इतना आत्मविश्वास जाग उठा था कि वे दावा करने लगे कि” लिख कर ले लीजिए अगला मुख्यमंत्री शिवसेना का ही होगा। शिवसेना को भरोसा हो गया था कि उसे राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस का समर्थन हासिल करने में सफलता मिल जाएगी और वह मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन होने का अपना सुनहरा सपना साकार कर लेगी।

इस बीच राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस की ओर से ऐसे बयान भी आते रहे की जनता ने उन्हें विपक्ष में बैठने के लिए जनादेश दिया है। इसलिए वे विपक्ष में ही बैठना पसंद करेंगे। उधर जब राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी से भाजपा को सरकार बनाने का आमंत्रण मिला तो तब तक यह पूरी तरह स्पष्ट हो चुका था कि शिवसेना मुख्यमंत्री पद की महत्वाकांक्षा किसी भी सूरत में नहीं छोड़ेगी। ऐसी स्थिति में शिवसेना के साथ मिलकर सरकार बनाने की भाजपा की सारी उम्मीदों को विराम लग गया और उसने राज्यपाल को यह सूचित कर दिया कि वह सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है।

भाजपा ने जब सरकार बनाने में असमर्थता व्यक्त कर दी तो राज्यपाल कोशियारी ने शिवसेना को सरकार बनाने का निमंत्रण दिया। उन्होंने 24 घंटे की समय सीमा अपने पास बहुमत होने की पुष्टि करने के लिए तय कर दी।

शिवसेना के लिए यह 24 घंटे भारी पड़ गए। राकांपा ने उसे समर्थन देने की एवज में उसके सामने यह शर्त रख दी कि व केंद्र सरकार में अपने कोटे के मंत्री अरविंद सावंत से इस्तीफा दिलवाए और भाजपा के साथ अपने गठबंधन को तोड़ दे। शिवसेना के लिए 24 घंटे में राज्यपाल के समक्ष अपना बहुमत सिद्ध करना मजबूरी था, इसलिए उसने शरद पवार की यह शर्त मान भी ली इसके बाद राकांपा ने यह शर्त भी रखी थी वह आदित्य ठाकरे की जगह उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री बनाने के लिए हामी भरे। शिवसेना इसके लिए भी तैयार हो गई और उसे लगा कि शाम होते-होते तक वह सदन में बहुमत होने का अपना दावा राज्यपाल के सामने प्रमाणित कर देगी।

शिवसेना के दफ्तर में खुशियां छा गई।लड्डू भी बटने लगे, परंतु राज्यपाल भवन में कांग्रेस के समर्थन की चिट्ठी के इंतजार में बैठे आदित्य ठाकरे के पास शाम तक कोई चिट्ठी नहीं पहुंची तो शिवसेना की खुशियों में घड़ों पानी फिर गया। इस बीच आदित्य ठाकरे ने राज्यपाल से 24 घंटे की समय सीमा को बढ़ाकर 48 घंटे करने का अनुरोध किया, जिसे उन्होंने नामंजूर कर दिया। इधर कांग्रेस ने सारा दिन अपने नेताओं से विचार विमर्श में गुजार दिया और इस बारे में कोई स्पष्ट उत्तर देने से भी इंकार कर दिया की वह शिवसेना को समर्थन देगी या नहीं और अगर समर्थन देगी तो सरकार में शामिल होगी या नहीं।

इस पूरे मामले के बाद पवार को भी यह कहने का मौका मिल गया कि कांग्रेस से उसका गठबंधन होने के कारण उनकी पार्टी कांग्रेस का रूख देखकर ही अपना रुख तय करेगी। इस दौरान कांग्रेस ने इस बात की जरा भी परवाह नहीं की शिवसेना को राज्यपाल ने केवल 24 घंटे का समय दिया है। राकांपा एवं कांग्रेस में शिवसेना को ऐसी स्थिति में पहुंचा दिया है कि वह अब न तो सरकार बना सकती है और ना ही भाजपा के पास वापस जाकर यह याचना कर सकती है कि उसे उपमुख्यमंत्री का पद भी मंजूर है। अगर यदि शिवसेना ऐसा कोई अनुरोध भाजपा से करेगी तो भी भाजपा के पिघलने की उम्मीद कम ही नजर आ रही है।

कुल मिलाकर मुख्यमंत्री पद की लालच में शिवसेना ने अपना वजूद ही दांव पर लगा दिया है। अब अगर महाराष्ट्र में भाजपा को छोड़कर सरकार बन भी जाए जाती तो उसका पांच साल चलना शायद ही संभव होता।

खैर देर सबेर राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू हो ही गया। राज्य में भाजपा व शिवसेना गठबंधन को सरकार बनाने का जो जनादेश मिला था, उसका शिवसेना ने अनादर किया है। उसके लिए जनता को जवाब देने की स्थिति में भी अब वह नहीं रह गई है। राज्य में शिवसेना अकेले भी चुनाव लड़ कर देख चुकी है। गत विधानसभा चुनाव में उसने अकेले चुनाव लड़ कर 63 सीटों पर जीत हासिल की थी, जबकि भाजपा ने लगभग दुगनी 122 सीटें जीती थी। शिवसेना द्वारा पहले सरकार में शामिल न होने के कारण सदन में बहुमत सिद्ध करने में भाजपा को राकांपा का परोक्ष सहयोग मिला था, जिसने मतदान के समय अनुपस्थित रहकर भाजपा को बहुमत साबित करने में परोक्ष मदद की थी। अब वहीं राकांपा इस बार शिवसेना का साथ दे रही है, लेकिन शिवसेना की राह में इतनी बाधाएं हैं कि उसकी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज होने की उम्मीद कम ही लग रही है। महाराष्ट्र में इस समय जो राजनीतिक स्थिरता बनी हुई है ,वह केवल इन्हीं संभावनाओं को व्यक्त करती है कि राज्य को पुनः पांच सालों के अंदर ही विधानसभा चुनाव का सामना करना पड़ सकता है।

सरकार बनाने में अपनी असफलता से शिवसेना ने जो किरकिरी कराई है, वह उसे अगले चुनाव में कितनी भारी पड़ेगी ,इसका अंदाजा उसे नहीं है। उसे इस सच को स्वीकार करना होगा कि बाला साहब ठाकरे जैसा कोई करिश्माई नेता उसके पास नहीं है। बाला साहब ठाकरे के जीवन काल में शिवसेना और भाजपा के गठबंधन में शिवसेना की बड़े भाई की हैसियत पर कभी आंच नहीं आई, परंतु अब भाजपा बड़े भाई की भूमिका में आ गई है और राज्य में भाजपा से यह भूमिका छीनना शिवसेना के लिए आसान नहीं है। राज्य में शिवसेना के साथ राकांपा और कांग्रेस कभी भी खड़े दिखना नहीं चाहेंगे। शिवसेना की विचारधारा भाजपा से मेल खाती है, इसलिए कांग्रेस अगर उसके साथ आ गई तो दूसरे राज्यों में उसकी चुनावी संभावनाओं पर असर पड़ेगा। यही कारण था कि कांग्रेस ने उसे समर्थन देने के बारे में फैसला करने में जानबूझकर इतनी देर लगा दी कि उस पूरे मामले का पटाक्षेप हो गया।

कांग्रेस और राकांपा की ओर से निराशा हाथ लगने पर अब यह दिलचस्पी का विषय होगा कि शिवसेना कौन सा द्वार खटखटाती है। एकमात्र संभावना फिलहाल तो यही है कि वह भाजपा के पास जाकर इस महान भूल के लिए खेद व्यक्त कर दें। गौरतलब है कि महाराष्ट्र कांग्रेस के नेता संजय निरुपम पहले कह भी चुके हैं कि शिवसेना और भाजपा फिर एक हो जाएंगे।इसलिए इनके झगड़े में हमें नहीं पढ़ना चाहिए। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि कांग्रेस को निरुपम की सलाह सही लगी है, इसीलिए शिवसेना को समर्थन देने के बारे में कोई स्पष्ट जवाब नही दे रही है।कांग्रेस भी महराष्ट्र में सरकार बनाने को लेकर ठोस निर्णय से बचती नज़र आ रही जहां सोनिया गाँधी सरकार बनाने की संभावना तलाशने के लिए अपनी टीम को लगा रखी है वही पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी और उनके सहयोगी महराष्ट्र में शिवसेना को सहयोग देने के विरोध में दिख रहे है जब तक दोनों के बीच आम सहमति नही बनती तब तक राज्य में शिवसेन का अपनी सरकार बनाने की कल्पना मुंगेरी लाल के स्वप्न से कुछ अधिक नही दिख रहा है।

(लेखक IFWJ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और डिज़ियाना मीडिया समूह के राजनैतिक संपादक है)

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