सुरेंद्र दुबे
आज क से करोना ,क से केरल और क से कर्नाटक की बात करते हैं। कोरोना संकट से निपटने में सबसे ज्यादा तारीफ केरल राज्य की होती है क्योंकि वहां न केवल शुरुवाती दौर में ही कोरोना पर काबू पा लिया गया बल्कि कारगर सार्वजनिक वितरण प्रणाली के बल पर मजदूरों व बेसहारा लोगों को रोटी के लिए दर-दर भटकने नही दिया गया। देश में ही नहीं बल्कि बल्कि विदेशों में भी केरल मॉडल की चर्चा हो रही है।
कायदे से तो कोरोना जैसी बीमारी के संकट काल में पूरे देश में सिर्फ कोरोना को भगाने पर ध्यान देना चाहिए था, पर नेता राजनीति का कोई मौका नहीं चूकना चाहते। आज केन्द्र सरकार ने केरल के राज्यपाल को चिट्ठी लिखकर लॉकडाउन के दौरान नाई की दुकानें व रेस्तरॉ खुले रहने पर जवाब तलब कर लिया है। राज्यपाल आरिफ मोहम्मद क्या कर सकते है। असली ताकत तो मुख्यमंत्री के पास होती है, पर केंद्र सरकार को तो मीन मेंख निकालनी है।
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केरल की सफलता से उत्साहित होकर केंद्र सरकार को पूरे देश को केरल मॉडल अपनानें के लिए कहना चाहिए था, पर क्या करें वहां तो पी विजयन मुख्यमंत्री हैं जो भाजपाई न होकर कम्युनिस्ट हैं। अब ऐसे में केरल की तारीफ करना केंद्र को पसंद नहीं है जो मौके बे मौके अपने को सिर्फ भाजपा की सरकार ही समझ लेती है। केरल भी देश का हिस्सा है। केरल की तारीफ भी देश की ही तारीफ है, पर केरल सरकार की तारीफ करने के बजाय राज्यपाल के जरिये मुख्यमंत्री के कान उमेठने की कोशिश एक बचकानी हरकत ही कही जायेगी।
राज्यपाल आरिफ साहेब ज्यादा से ज्यादा सरकार से जवाब तलब कर सकते है जिसका सरकार कोई जवाब नहीं देगी। कोई तब्लीगी जमात का मसला तो है नहीं जो आरिफ साहेब कई दिनों तक न्यूज चैनेलों पर बैठकर सत्ता के पक्ष में बैटिंग करते रहेंगे। वैसे आरिफ साहेब विद्वान आदमी है पर कुर्सी के तले अक्सर विद्वता सलाम करती दिखती है।
आइये देखते हैं भाजपा के प्रिय राज्य कर्नाटक में क्या हो रहा है। हाल ही में पूर्व मुख्यमंत्री कुमार स्वामी के बेटे की शादी में हजारों लोग लॉक डाउन तोड़कर शामिल हुए थे। खुद वहां के मुख्यमंत्री येदुरप्पा भी इस शादी में शामिल हुए थे। क्या नेताओं के लिए लॉकडाउन के नियम अलग है। क्या कोरोना भी इनसे डरता है? क्या शादी में शामिल लोगों को क्वारांटाइन किया गया। क्या वहां की सरकार से जवाब तलब किया गया। मान लिया मुख्यमंत्री से पूछने की हिम्मत नही है तो किसी अफसर को सस्पेंड करने का नाटक ही कर लेते।
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देश के अनेक राज्य है जहां नेताओं या धार्मिक संगठनों द्वारा लॉकडाउन के नियमों को तोड़ा गया। सोशल डिस्टेंसिंग को धता बताकर कोरोना का प्रकोप बढ़ाया गया। इस अपराध के लिये किसको सजा मिलेगी। गरीब आदमी लॉकडाउन तोड़ेगा तो पुलिस उसे लाठियों से तोड़ देगी। जलीकट्टू प्रतियोगिता में भाग लेने वाले बैल की शवयात्रा में हजारों लोग शामिल होकर कोरोना को फैला सकते हैं क्योंकि यह धार्मिक भावनाओं व वोट बैंक का मामला है।
एक और मामले का भी जिक्र करना जरूरी है। भगवान जगननाथ की तीर्थ यात्रा में हजारों लोग शामिल हुए। वोट बैंक के डर से सरकार चुप रही और सरकार के डर से मीडिया। फिर सवाल उठता है कि सारे कानून केवल आम आदमी या गरीबों के लिए ही क्यों हैं? अगर कुछ गरीब अपनी भूख का बयान करने के लिये सड़कों पर उतर आएं तो फिर उनकी पिटाई नहीं होनी चाहिए। अगर प्रवासी मजदूर अपने घर लौटने की जिद करे तो उन्हें भी लॉकडाउन तोडऩे के लिए पीटा न जाय। ठीक है ये मजदूर कोचिंग नहीं पढ़ते पर अपने बीबी बच्चों के पास जाने का अधिकार तो संविधान इन्हें भी देता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)
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