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तमिलनाडु में इतनी मजबूर क्यों है भाजपा?

प्रीति सिंह

देश ही नहीं दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी का दंभ भरने वाली भाजपा इस समय चुनावी मोड में है। देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहा है, जिसमें वह जी-जान से लगी हुई है और जीत के दावे कर रही है।

जहां असम में भाजपा दोबारा सत्ता में आने के लिए संघर्ष कर रही है तो वहीं पश्चिम बंगाल में सत्ता में काबिज होने के लिए विरोधियों को कड़ी चुनौती पेश कर रही है, लेकिन इन राज्यों के इतर तमिलनाडु में मामला बिल्कुल अलग है।

तमिलनाडु के चुनावी रण में भाजपा मैदान में तो हैं लेकिन नेताओं में न तो पश्चिम बंगाल की तरह जोश है और न ही असम की तरह जज्बा।

भाजपा की रडार पर तमिलनाडु कई सालों से है। अपने पांव मजबूत करने की कोशिश में लगी भाजपा को अब तक यहां कोई बड़ी सफलता नहीं मिल पाई है। यहां पांव जमाने के लिए भाजपा सारे हथकंडे आजमा चुकी है। यहां न तो प्रधानमंत्री मोदी का जादू चला और ना ही केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह की चाणक्य नीति।

राज्य की दो द्रविड़ पार्टियों से मिल रही चुनौती के बाद से आखिकार भाजपा को यह भलीभांति एहसास हो गया है कि यहां अकेले दम पांव जमाना आसान नहीं है। यहां न तो चाणक्यनीति काम करेगी और न ही कोई जादू, इसलिए विधानसभा चुनाव के लिए भाजपा ने सत्तारूढ़ अन्नाद्रमुक के साथ गठबंधन कर लिया।

उत्तर भारत के राज्यों में अपने सहयोगी दलों को अपनी शर्तों पर चुनाव में सीट देनी वाली भाजपा का तमिलनाडु में स्थिति बिल्कुल अलग है। तमिलनाडु में भाजपा  AIADMK  के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ रही है। एआईडीएमके ने भाजपा को मात्र 20 सीट चुनाव लडऩे के लिए दिया है। इतना ही नहीं भाजपा ने जिन उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है उनमें से 18 दूसरी पार्टियों से आयातित उम्मीदवार हैं। इन उम्मीदवारों का भाजपा या संघ से कोई संबंध नहीं है।

तमिलनाडु में पांव जमाने के लिए भाजपा ने अपनी सबसे सफल रणनीति पर काम कर रही है। विपक्षी पार्टियों को तोड़ो और आगे बढ़ों की रणनीति पर भाजपा यहां भी चल रही है। यह सच है कि यदि भाजपा ऐसा न करती तो शायद उसके पास चुनाव में उतारने के लिए प्रत्याशी भी न होते।

भाजपा ने जिस तरह उत्तर प्रदेश, बिहार, असम, गोवा, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल समेत कई राज्यों में विपक्षी पार्टियों के नेताओं को तोड़कर अपनी पार्टी संगठन को मजबूत करने का काम किया है, वैसा ही भाजपा ने तमिलनाडु में भी किया।

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भाजपा पिछले एक साल से डीएमके के असंतुष्ट नेताओं पर नजर रखे हुए थी। पिछले सात माह में भाजपा ने मुख्य विपक्षी दल डीएमके के कई बड़े नेताओं को तोड़ने में कामयाब रही और इन्हीं नेताओं के भरोसे चुनाव मैदान में है।

CAA को वोट मांगने का बनाया आधार

सीएए यानी नागरिकता संसोधन कानून। इसको लेकर उत्तर प्रदेश, असम और दिल्ली समेत कई राज्यों में जमकर बवाल हुआ। भाजपा इसे अपनी उपलब्धियों में गिनाते नहीं थकती, लेकिन तमिलनाडु में नहीं गिना रही। यहां भाजपा ये कह रही है कि वह सत्ता में आयेगी तो सीएए को लागू नहीं करने देगी।

यह अजीब विडंबना है कि जहां भाजपा दूसरे राज्यों में इसे लागू करने की बात कह रही है तो वहीं तमिलनाडु में इसको लेकर उसका रवैया बिल्कुल उल्टा है। भाजपा की सहयोगी AIADMK  ने अपने मैनिफेस्टो में सीएए को तमिलनाडु में लागू ना होने देने का वादा किया हैं। अब इसे भाजपा की मजबूरी कहें या मौकापरस्ती लेकिन तमिलनाडु में भाजपा की मजबूरी दिख रही है।

मोदी लहर में भी तमिलनाडु में घट गए भाजपा के वोट

2019 में हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा ने अभूतपूर्व जीत दर्ज की। पहली बार कोई गैर-कांग्रेस पार्टी अपने दम पर लोकसभा चुनाव में में 300 सीटों के आंकड़े पार करने में सफल हुई। इतना ही नहीं भाजपा ने जो 303 सीटें जीता उसमें 224 सीटें उसने 50 प्रतिशत से अधिक वोट पाकर जीता।

सिर्फ हिंदी पट्टी में ही नहीं, भाजपा ने ओडिशा, पश्चिम बंगाल, जम्मू-कश्मीर और यहां तक कि उत्तर पूर्वी राज्यों सहित लगभग सभी राज्यों में अपना वोट प्रतिशत बढ़ाया है, लेकिन तमिलनाडु में ऐसा नहीं हुआ। लोकसभा चुनाव में तमिलनाडु में भाजपा का प्रदर्शन देखें तो पायेंगे कि यहां उसका वोट प्रतिशत 2014 में 5.56 से घटकर 2019 में 3.66 प्रतिशत रह गया है।

2014 के बाद से भाजपा का स्वर्णिम युग चल रहा है। देश के कुल 16 राज्यों में भाजपा/एनडीए की सरकार है लेकिन जब दक्षिण राज्यों की बात आती है तो कर्नाटक छोड़ अन्य राज्यों में भाजपा की राम, हिंदी और हिंदुत्व की राजनीतिन फेल हो जाती है।

तमिलनाडु को लेकर एक सवाल गाहे-बगाहे जेहन में आ ही जाता है कि आखिर तमिलनाडु में ऐसा क्या है जो पीएम मोदी और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह का जादू नहीं चलता? ऐसा क्या है कि तमिलनाडु की राजनीति के दो दिग्गजों करुणानिधि और जयललिता की मृत्यु के बाद भी भाजपा यहां पैर नहीं जमा पा रही है? ऐसे सवालों का जवाब इससे समझा जा सकता है।

2019 में संसद के मौजूदा सत्र में मानवाधिकार (संशोधन) विधेयक 2019 पर लोकसभा में चर्चा के दौरान विधेयक के पक्ष में बोलने के लिए खड़े हुए भाजपा सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री सत्यपाल सिंह ने कहा था कि भारत में मनुष्यों का हमेशा सम्मान रहा है और हम सब तो ऋ षियों की संतान हैं।

इसके जवाब में डीएमके सांसद कनिमोढ़ी ने कहा था कि लेकिन ‘मेरे पुरखे ऋ षि नहीं थे। वे साधारण इंसान (होमो सेपियन) थे। वे शूद्र थे। हम न तो किसी देवता से पैदा हुए हैं और न उनके शरीर के किसी हिस्से से। हम यहां सामाजिक न्याय के आंदोलन और मानवाधिकारों के लिए चलाए गए संघर्षों की वजह से आए हैं।’ 

कनिमोढ़ी की इस टिप्पणी में शायद इस सवाल का जवाब मिल गया होगा कि तमिलनाडु में भाजपा की राम, हिंदी और हिंदुत्व की राजनीतिन क्यों फेल हो जाती है।

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