Friday - 5 January 2024 - 3:29 PM

मोदी सरकार को संसदीय समिति से क्यों है परहेज?

जुबिली न्यूज डेस्क

क्या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में संसद का कामकाज का तरीका बदल गया है? यह सवाल मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से लगातार उठ रहा है। पिछले दिनों उच्च सदन राज्यसभा में जो कुछ हुआ उसके बाद से तो यह सवाल और उठने लगा है।

मोदी सरकार पर यह भी आरोप लग रहा है कि संसद में बीते कुछ वर्षों से सरकार बिना उचित विचार-विमर्श के आनन-फानन में विधेयकों को पारित करने पर आमादा दिख रही है। उसे विधेयक पर विचार-विमर्श करने से कोई मतलब नहीं है। मोदी सरकार को संसदीय समिति से भी काफी परहेज है।

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आंकड़ों के मुताबिक मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में महज 25 फीसदी विधेयकों को संसदीय समिति के पास भेजा गया, जो 15वीं लोकसभा के समय भेजे गए विधेयकों की तुलना में काफी कम है।

ये बात ध्यान में रखी जानी चाहिए कि यूपीए के सत्ता में होने के दौरान 14वीं एवं 15वीं लोकसभा के समय कानून बनाने के लिए उचित विचार-विमर्श की जरूरत को ध्यान में रखते हुए अच्छी-खासी संख्या में विधेयकों को प्रवर समिति के पास भेजा गया था।

जानकारों के मुताबिक संसदीय लोकतंत्र में इसे एक बेहद अच्छे कदम के रूप में देखा जाता है। जितने ज्यादा विधेयकों को जांच-पड़ताल के लिए संसदीय समिति के पास भेजा जाता है, उतने अच्छे कानून का निर्माण होता है।

पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च डेटा केअनुसार 16वीं लोकसभा (मोदी सरकार का पहला कार्यकाल) के दौरान 25 फीसदी विधेयकों को समिति के पास भेजा गया, जो 15वीं एवं 14वीं लोकसभा के समय भेजे गए 71 फीसदी एवं 60 फीसदी विधेयकों से काफी कम है।

मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में किसी भी विधेयक को संसदीय समिति के पास नहीं भेजा गया है।

भारतीय विधायी प्रक्रिया का अध्ययन करने वाले प्रमुख गैर-लाभकारी शोध संस्थान ने 16 वीं लोकसभा (2014-2019) पर अपनी एक रिपोर्ट में इस तरह की संसदीय प्रक्रिया के महत्व पर प्रकाश डाला है।

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दिलचस्प बात यह है कि यूपीए के दस वर्षों की तुलना में मोदी सरकार के पिछले कार्यकाल में संसद में विधेयकों पर लंबे समय तक चर्चा हुई थी।

पीआरएस डेटा के अनुसार मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में लोकसभा में 32 फीसदी विधेयकों पर तीन घंटे से अधिक समय तक चर्चा की गई, जबकि यूपीए-1 और यूपीए-2 के शासनकाल के दौरान यह आंकड़ा क्रमश: 14 फीसदी और 22 फीसदी था।

इसके अलावा दो अन्य आंकड़े मोदी सरकार के कार्यकाल में संसद की कार्यवाही की स्थिति बयां करते हैं। पीआरएस के आंकड़ों से पता चलता है कि आधे घंटे के भीतर पारित होने वाले विधेयकों की संख्या 15वीं लोकसभा में 26 फीसदी से काफी घटकर 16वीं लोकसभा में छह फीसदी पर पहुंच गई।

ऐसा शायद इसलिए हुआ होगा क्योंकि बीजेपी सरकार द्वारा लाए गए हर एक विधेयक पर विपक्षी सांसदों ने काफी रुचि दिखाई होगी और उस पर बहस करने की कोशिश की होगी।

इसके साथ ही एक आंकड़ा यह भी बताता है कि 16वीं लोकसभा में मोदी सरकार 133 विधेयकों को पारित कराने में सफल रही, जो इससे पिछले लोकसभा की तुलना में 15 फीसदी अधिक है।

यह आंकड़ा यह दर्शाता है कि मौजूदा सरकार पिछली सरकारों की तुलना में अधिक से अधिक विधेयकों को पारित कराने पर आमादा है। इन 133 विधेयकों में से सबसे ज्यादा विधेयक आर्थिक क्षेत्र से जुड़े हुए थे।

मालूम हो कि कानून बनाने के अलावा संसद हर साल के सालाना बजट को भी पारित करती है। ध्यान देने वाली बात ये है कि वित्त वर्ष 2018-19 के दौरान सदन के पटल पर 17 फीसदी बजट पर चर्चा हुई थी, जो यूपीए सरकार की तुलना में अधिक है, लेकिन ‘मांग संबंधी 100 फीसदी मामलों को बिना चर्चा के पारित किया गया।’

पीआरएस डेटा के अनुसार पिछली बार ऐसा साल 2004-05 और 2013-14 के बजट के दौरान हुआ था।

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