कृष्णमोहन झा
लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की हार के बाद जब पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी ने उसकी नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए अपना पद छोड़ने की पेशकश कर दी, इससे उन राज्यों के प्रदेश अध्यक्षों के परिवर्तन की चर्चा होना स्वभाविक है ,जहां सत्ता होने के बाद भी पार्टी को प्रचंड हार का सामना करना पड़ा।
मध्यप्रदेश ऐसे ही राज्यों में शुमार है, जहां पार्टी की बड़ी हार ने उसे स्तब्ध कर दिया । यह तब जबकि कुछ ही महीने पहले कांग्रेस ने 15 वर्षों के बाद प्रदेश में सत्ता हासिल की थी। इस सफलता ने पार्टी को उत्साह एवं उमंग से ऐसे लबरेज कर दिया कि उसे लोकसभा की 29 में से आधे पर अपनी जीत सुनिश्चित लगने लगी थी, लेकिन जब नतीजे घोषित हुए तो वह केवल छिंदवाड़ा सीट पर ही अपनी प्रतिष्ठा बचा पाई।
गौरतलब है कि गत लोकसभा चुनाव में पार्टी को 29 में से 2 सीटे जीतने में कामयाबी मिली थी और एक सीट उसने उपचुनाव में हासिल कर ली थी।
राज्य की कमलनाथ सरकार एवं संगठन दोनों ही इस हार से स्तब्ध है।और अब यहाँ भी पार्टी नेतृत्व में परिवर्तन की चर्चा होने लगी है। कांग्रेस को मध्यप्रदेश के समान ही जिन राज्यों में पराजय का मुंह देखना पड़ा है ,वहां के अधिकांश अध्यक्षों ने इसकी नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए अपने अपने इस्तीफे दे दिए है। ऐसी स्थिति में कमलनाथ द्वारा भी इस्तीफे की पेशकश स्वभाविक होना चाहिए।
कमलनाथ को विधानसभा चुनाव के पहले प्रदेश अध्यक्ष का दायित्व सौपकर उन्हें 15 वर्षों के पार्टी के वनवास को समाप्त करने की जिम्मेदारी दी गई थी। चुनाव में वे पार्टी को स्पष्ट बहुमत तो दिला नहीं सके ,लेकिन उन्होंने पार्टी को सत्ता की दहलीज पर खड़ा जरूर कर दिया।
कमलनाथ बसपा सपा एवं निर्दलीय विधायकों लेकर मुख्यमंत्री की कुर्सी आसीन हो गए। हालांकि ज्योतिरादित्य सिंधिया का नाम भी उनके प्रतिध्वंदी के रूप में उभरा था ,परन्तु लाटरी कमलनाथ की ही खुलना थी। कमलनाथ को मुख्यमंत्री एवं प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी कांग्रेस हाईकमान ने इस उम्मीद से दी थी वे अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप विधानसभा की तरह प्रदर्शन को दोहराएंगे ,लेकिन नतीजों ने उम्मीदों पर पूरी तरह पानी फेर दिया।
प्रदेश में पार्टी की शर्मनाक हार के बाद कमलनाथ सरकार पर अस्थिरता के बादल मंडराने लगे थे,ऐसे में स्वभाविक ही है कि उन्हें एक पद की जिम्मेदारी से मुक्ति दे दी जाए। इसलिए नए प्रदेश अध्यक्ष की तलाश शुरू हो गई है।
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इस समय कांग्रेस के साथ यह दुविधा है कि वह हार पर मंथन करे या जल्द से जल्द अपने ऐसे नए अध्यक्ष को कुर्सी पर बैठाए ,जो पार्टी के खोए जनाधार को वापस ला सके। इसमें दो राय नहीं है कि लोकसभा की 29 में से 28 सीटों पर हार ने पार्टी कार्यकर्ताओं के मनोबल को पूरी तरह तोड़कर रख दिया है। अब उनके मनोबल को बढ़ाना आसान नहीं होगा और यह जब औऱ कठिन लगता है जब पार्टी के बड़े दिग्गजों की अप्रत्याशित हार ने स्तब्ध कर दिया हो।
सवाल यह उठता है कि दिग्विजय सिंह ,ज्योतिरादित्य सिंधिया, कांतिलाल भूरिया ,अजय सिंह जैसे हारे हुए दिग्गज खुद का आत्मविश्वास वापस पाने में किस तरह सफल होंगे। मध्यप्रदेश में भाजपा को इस बार 58 फीसदी वोट मिले है जो पिछले लोकसभा चुनाव से साढ़े चार फीसदी अधिक है, वही कांग्रेस को साढ़े चौतीस फीसदी मत मिले है ,जो पिछले लोकसभा चुनाव से 0.39 प्रतिशत कम है।
मध्यप्रदेश की भोपाल सीट के मुकाबले पर तो देशभर की निगाह लगी हुई थी। भाजपा ने यहां दिग्विजय सिंह जैसे बड़े नेता कुशल रणनीतिकार को साढ़े तीन लाख से अधिक वोटो से हराकर सभी को विस्मित कर दिया।
ऐसी स्थिति में सवाल उठता है कि जब पुरे प्रदेश में कांग्रेस की शर्मनाक हार हुई है तो केवल क्या प्रदेश अध्यक्ष को बदलकर पार्टी अपनी अपने खोई जनाधार को पाने में सफल हो सकती है। और फिर यह सवाल भी तो है कि जो नेतागण स्वयं चुनाव हार गए हो उनमें से किसी को अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी दी जाती है, तो पार्टी के कायाकल्प की उनसे क्या उम्मीद की जाएगी।
प्रदेश में जिन नेताओं के नाम की चर्चा इस पद के लिए की जा रही है, उनमे पूर्व सांसद ज्योतिरादित्य सिंधियाँ का नाम सबसे ऊपर चल रहा है और वे कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के करीबी भी है। वैसे भी जब विधानसभा चुनाव में जीत के बाद कमलनाथ को मुख्यमंत्री बनाया गया था तब ज्योतिरादित्य भी इस दौड़ में शामिल थे। लेकिन जब कमलनाथ को यह जिम्मेदारी दी गई तो ज्योतिरादित्य सिंधिया का नाम तब भी प्रदेशाध्यक्ष के रूप में सामने आया था।
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वैसे भी कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी किसी ऐसे नेता को ही सौंपी जाएगी जिसमे कमलनाथ की सहमति हो। दरअसल कांग्रेस के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि जिन नेताओं के नाम प्रदेशाध्यक्ष के लिये चर्चा में है ,उनमें से किसी भी नेता का संपूर्ण प्रदेश में जनाधार नहीं है।
कांग्रेस को प्रदेश के एक ऐसे अध्यक्ष की जरूरत है, जिसका न केवल प्रदेश में जनाधार हो ,बल्कि संगठन पर भी पकड़ मजबूत हो। नये प्रदेश अध्यक्ष के ऊपर केवल कार्यकर्ताओं में नये सिरे से ऊर्जा, उत्साह एवं स्फूर्ति का संचार करने की जिम्मेदारी ही नहीं होगी ,बल्कि संगठन में जारी गुटों की राजनीति को भी थामने की चुनौती का सामना करना होगा। यह चुनौती इतनी आसान नहीं है कि उससे पार पाया जा सके।
एक बात तो यह है कि प्रदेश कांग्रेस पद की जिम्मेदारी किसे दी जाये यह फैसला कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष को करना है। राहुल गांधी पार्टी की शर्मनाक हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुये पहले ही अध्यक्ष पद छोड़ने की पेशकश कर चुके हैं, उनसे अपने पद पर बने रहने के लिये लगातार मान मनोबल किया जा रहा है। जब तक यह तय नहीं हो जाता कि राहुल गांधी अपना फैसला नहीं बदलेगे तब तक विभिन्न प्रदेशों में पार्टी नेतृत्व में परिवर्तन की संभावनायें नगण्य ही रहेंगी। तब तक मध्यप्रदेश में भी पार्टी के नेतृत्व परिवर्तन के बारे में कुछ निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता।
(लेखक डिज़ियाना मीडिया समूह के राजनैतिक संपादक है)