Saturday - 6 January 2024 - 8:06 AM

चुनाव करीब आ रहे हैं और बढ़ती जा रही हैं ममता की मुश्किलें

कुमार भवेश चंद्र

पश्चिम बंगाल के चुनाव दिलचस्प होते जा रहे हैं। प्रदेश में बीजेपी की अति सक्रियता की वजह से ममता बनर्जी के लिए चुनौती तो बढ़ ही रही है अब वामदलों और कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन महाजोत ने भी तृणमूल कांग्रेस को टक्कर देने के लिए रणनीतिक तैयारी शुरू कर दी है। यानी बीजेपी की बढ़ती चुनौतियों से पार पाने के लिए ममता को विपक्ष की ओर से जो सहयोग की उम्मीदें थीं वह धाराशायी हो चुकी हैं।

कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी के तेवर बेहद तीखे हैं। वे प्रदेश में बीजेपी की राजनीति को फलने फूलने का मौका देने के लिए ममता बनर्जी और उनकी पार्टी को ही कसूरवार ठहरा रहे हैं।

वाम मोर्चा के अध्यक्ष बिमान बोस ने ऐलान किया है प्रदेश को धार्मिक ध्रुवीकरण से बचाने के लिए वह मिलकर तृणमूल कांग्रेस और बीजेपी के खिलाफ लड़ाई को तेज करेंगे। जल्द ही महाजोत के घटक दलों के बीच सीटों के बंटवारे पर बातचीत शुरू होगी और इस महीने के आखिर तक इसे फाइनल कर लिया जाएगा।

महाजोत वामदलों और कांग्रेस के साथ छोटे दलों का एक बड़ा घटक है जिसमें दर्जन भर से अधिक पार्टियां हैं। बिहार की पार्टी आरजेडी भी इसी गठनबंधन का हिस्सा है। पिछली बार 2016 में वामदल और कांग्रेस ने मिलकर महाजोत के बैनर तले चुनाव लड़ा था हालांकि उस समय उसे अधिक कामयाबी नहीं मिली।

पिछले चुनाव के मुकाबले तृणमूल कांग्रेस की सीटें बढ़ गई थीं। लेकिन कांग्रेस को उस हालत में भी 44 सीटों पर जीत मिली थी और वामदल में सीपीएम को सबसे अधिक 26 सीटों पर कामयाबी मिली। उस चुनाव में बीजेपी की ताकत बहुत ही कम थी और उसने 291 सीटों पर चुनाव लड़कर भी महज तीन सीटों पर जीत का स्वाद चखा था।

लेकिन इस बार बीजेपी कार्यकर्ताओं का उत्साह उफान पर है। पार्टी के नेताओं ने पूरी ताकत लगा दी है। केंद्रीय गृहमंत्री और पूर्व बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने पश्चिम बंगाल का दौरा कर पार्टी के कार्यकर्ताओं में जोश भर दिया है। पार्टी अध्यक्ष जे पी नड्ढ़ा भी कई दौरे कर चुके हैं। बीजेपी ने तृणमूल कांग्रेस के बड़े नेताओं को तोड़कर अपनी टोली का विस्तार कर दिया है। पार्टी के तेवर बेहद आक्रामक है।

ऐसे माहौल में सियासी पंडितों को उम्मीद थी कि ममता बनर्जी की चुनौतियों को देखते हुए उन्हें गैर बीजेपी दलों का साथ मिलेगा। बिहार चुनाव के नतीजे आने के बाद वामदलों के कुछ नेताओं ने पश्चिम बंगाल में एक साथ मिलकर बीजेपी की चुनौतियों का मुकाबला करने की बात रखी थी।

लेकिन वामदलों के अलग अलग समूहों से इस प्रस्ताव को स्वीकृति नहीं मिल पाई और अब ये साफ हो गया है कि ममता बनर्जी को जहां बीजेपी से मुकाबला करना होगा वहीं गैर बीजेपी दल भी उसके लिए चुनौती खड़ी करेंगे।

ये चुनौतियां इस रूप में भी बड़ी दिख रही हैं कि प्रदेश के मुस्लिम मतदाताओं के वोटों का विभाजन की तस्वीर लगभग साफ होती जा रही है। जो अभी तक ममता की बड़ी ताकत मानी जाती रही हैं। खास तौर पर सीएए और एनआरसी मुद्दे को लेकर ममता ने खुले तौर पर मुस्लिमों का साथ दिया है। लेकिन मौजूदा सियासी माहौल में एक तरफ ममता कमजोर और कई तरह की चुनौतियों से घिरी नजर आ रही हैं तो मुस्लिम मतदाता अपने दूसरे विकल्पों की ओर देखने को मजबूर होंगे।

मुस्लिम वोटरों के लिए जहां ममता के अलावा महाजोत के उम्मीदवार विकल्प के रूप में सामने होंगे वहीं एमआईएम ने भी पहली बार पश्चिम बंगाल का रुख किया है। पश्चिम बंगाल की सीमा से सटे बिहार में पांच सीटों पर जीत के बाद एआईएमआईएम के हौसले आसमान पर है। असदुद्दीन ओवैसी ने पश्चिम बंगाल में अपने मिशन को कामयाब बनाने के लिए पूरी ताकत झोक दी है।

ममता बनर्जी ने एआईएमआईएम के प्रदेश के कार्यकारी अध्यक्ष शेख अब्दुल कलाम को तोड़कर उसे शुरुआती झटका जरूर दिया है लेकिन एमआईएम ने लोकल कनेक्ट बनाने के लिए फुरफुरा शरीफ के मौलाना अब्बास सिद्दीकी से मदद की गुहार लगाई है। दरअसल पश्चिम बंगाल के मुसलमानों के बीच फुरफुरा शरीफ की बड़ी प्रतिष्ठा और प्रभाव है।

असदुद्दीन इस प्रभाव का इस्तेमाल करना चाहते हैं लेकिन पश्चिम बंगाल के मौलानाओं के संगठन ने उनके खिलाफ मुनादी कर दी है। उनका कहना है कि वे पश्चिम बंगाल में बाहरी लोगों के सियासी प्रभाव को बढ़ते हुए नहीं देखना चाहते। अगर उन्हें किसी तरह की चुनौती महसूस होगी तो वे खुद अपनी पार्टी बनाकर इसका मुकाबला करेंगे। लेकिन एआईएमआईएम जैसी बाहरी पार्टी को प्रदेश की सियासत में आगे नहीं बढ़ने देंगे।

कहने की जरूरत नहीं कि जम्मू कश्मीर के बाद पश्चिम बंगाल ही वह क्षेत्र है जहां मुस्लिम मतदाता बड़ी संख्या में चुनावों को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। प्रदेश के मालदा, मुर्शिदाबाद, दक्षिणी दिनाजपुर, उत्तर दिनाजपुर, दक्षिण 24 परगना ऐसे जिले हैं जहां मुसलिम मतदाता ही प्रत्याशियों की किस्मत तय करते हैं। 24 दक्षिण परगना को छोड़कर सभी जिले बिहार की सीमा से लगे हैं जहां ओवैसी पहले ही बड़ी चुनावी फतह हासिल कर चुके हैं।

इन पांच जिलों में के 60 से अधिक विधानसभा क्षेत्रों पर ओवैसी की पार्टी की पैनी नजर है। ओवैसी और उनके समर्थकों को उम्मीद है कि बिहार की जीत से पश्चिम बंगाल के सीमावर्ती इलाकों में उनके लिए सकारात्मक संदेश गया है। सेकुलर दलों से निराश मुस्लिम मतदाता उनकी ओर रुख कर सकते हैं। वे पश्चिम बंगाल में ममता के कमजोर होने का लाभ उठाने की फिराक में हैं।

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