रूबी सरकार
मध्यप्रदेश में सबसे पिछड़ा आदिवासी बाहुल्य जिला श्योपुर राजनीतिक रूप से सबसे अहम जिलों में से एक है। इस जिले का कराहल विकास खण्ड 5वीं अनुसूचि में शामिल है।
इसी विकास खण्ड का एक गांव बनार, यहां की आबादी लगभग ढाई हजार, इनमें से आधे से अधिक आबादी आदिवासियों की हैं। बनार गांव में का 65 परिवार सिर्फ भील जनजाति के हैं।
इसके अलावा सहरिया जनजाति की बड़ी आबादी और शेष अनुसूचित जनजाति और पिछड़ा वर्ग से हैं। कोरोना के खिलाफ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की रणनीति का इस क्षेत्र में पड़ने वाले प्रभाव का जायजा लिया गया, तो पाया, कि बेरोजगारी और आजीविका का संकट यहां चरम पर है। कम से कम भील जनजाति अपनी आजीविका के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
जिला पंचायत सदस्य कुंवर सिंह इसी जनजाति से हैं। वे बताते हैं, कि भील परिवार आजीविका के लिए जंगल-जंगल भटकते हुए लगभग 35 साल पहले श्योपुर जिले के इस विकास खण्ड में आकर बस गये। यहां उन्हें तहसील से पट्टे पर जो जमीन मिली, वह बंजर थी। ऊपर से पानी का संकट। विधायक निधि से 95 हजार में बोर का काम हुआ था, परंतु आबादी को देखते हुए वह नाकाफी है। लिहाजा अच्छी फसल की उम्मीद यहां नहीं की जा सकतीं।
केवल बरसात में एक ही फसल ले पाते है। इसके बाद नदी, नाला सब सूख जाता है। कुंवर ने कहा, बांध बनाने के लिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से लेकर राहुल गांधी तक को पत्र लिखा। लेकिन सबने वनभूमि आड़े आने की बात कहकर टाल गये।
इसीलिए परिवारों को गुजर-बसर के लिए मजदूरी पर निर्भर रहना पड़ता है। मजदूरी के सहारे ही हमारा जीवन चलता है। सिंह बताते हैं, कि कोरोना संक्रमण के चलते लॉकडाउन और फिर लगातार अनलॉक के दौरान मजदूरी भी चली गई। गांव लौटने पर स्थिति और खराब हुई। आर्थिक आधार के रूप में कृषि ही एक प्रमुख स्रोत है।
कुंवर ने कहा, कि उपजों में मक्का, ज्वार, बाजरा, चना उड़द मूंग आदि उनके प्रमुख फसल हैं। विषेश तौर पर मक्का व ज्वार की खेती में भीलों का अधिक ध्यान रहता है। लेकिन यहां पथरीली व अनुपजाऊ जमीन होने के कारण इस तरह के फसल उगाना बड़ा दुरूह काम है।
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जनजाति समुदाय के ऊपर आयी इन मुसीबतों को देखकर परमार्थ समाज सेवी संस्थान नामक एक संस्था ने इनकी फौरी राहत के लिए पंचायत के अधीन पड़ी बंजर भूमि इन्हें पट्टे पर देने की पैरवी की और दस महिलाओं का एक समूह बनवाया। संस्थान की पैरवी के बाद लगभग एक हेक्टेअर जमीन पट्टे पर महिला समूह को जीविकोपार्जन के लिए दे दी गई। लेकिन जमीन बंजर होने के कारण महिलाओं को उपज के लिए काफी मेहनत करनी पड़ी।
समूह की हीराबाई बताती हैं, कि इस बंजर जमीन को उपजाऊ बनाने में समूह की महिलाओं ने दिन-रात मेहनत किया। सबसे पहले जमीन को समतल किया। समूह की जमापूंजी से खेत के चारों ओर तार फेंसिंग करने के बाद पेड़ लगाने के लिए 600 गड्ढे स्वयं खोदे। इसके बाद बाजार जाकर 200 रूपये का बीज खरीदा।
हीराबाई ने बताया, कि उन्हें यह कहा गया था, कि यह सारा पैसा समूह को मनरेगा की मजदूरी के रूप में वापस मिल जायेगा। लेकिन बाद में पता चला, कि जिन महिलाओं का जॉब कार्ड नहीं है, उन्हें भुगतान के लिए पहले जॉब कार्ड के लिए आवेदन देना पड़ेगा।
मनीषा ने बताया, कि कोरोना संक्रमण के दौरान सरकार की ओर से जॉब कार्ड बनवाने और मनरेगा में काम दिलाने का बहुत प्रचार-प्रसार किया जा रहा था, लेकिन जब हमलोग पंचायत में जॉब कार्ड के लिए गये, तो हमें महीनों दौड़ाया गया। पांच-छह माह बाद कुछ महिलाओं का जॉब कार्ड बना, लेकिन बहुत सारी महिलाओं को अभी भी जॉब कार्ड का इंतजार कर रही हैं।
पार्वती बताती हैं, कि जो जमीन पंचायत की ओर से महिला समूह को दी गई है। चूंकि वह बजंर थी, इसलिए हमें पुरूषों की मदद लेनी पड़ी। कुंवर सिंह ने अपने ट्रेक्टर से कई टैंकर पानी लाकर बंजर जमीन को सींचा और जमीन को उपजाऊ लायक बनाया। आज जो यहां 600 पौधे दिख रहे हैं, इसमें कुंवर सिंह की भी मेहनत शामिल है।
समूह की महिलाएं नींबू ,कटहल, लौकी के अलावा कई तरह की साग-सब्जी यहां उगा रही हैं। मैहरबाई बताती हैं, कि हमलोगों ने यहां तिल्ली भी बोई, लेकिन मक्खीनुमा कीड़े ने हमारी सारी फसल चौपट कर दी। इतनी मेहनत के बाद केवल दो कुंतल ही तिल्ली निकल पायी। इस उपज का दस फीसदी पंचायत को भी देना है। चूंकि खेती ही हमारा मुख्य काम है, इसलिए बिना हारे हम सब इस काम में लगे रहे।
सुनीता भीलों के औजार पर चर्चा करते हुए बताती हैं, कि हल, ओखर, कोल्पा, तीरफल आदि हमारा कृषि औजार हैं। फसल की बुआई, निदाई, और कटाई के समय महिलाएं एक दूसरे को पूरा सहयोग देती हैं, इस सहयोग को भीली भाषा में हल्मा कहा जाता हैं।
हालांकि भील पुरूष लकड़ी काटने से लेकर चौकाीदारी तक का काम करते हैं। सड़क निर्माण के कार्य में भी भील अथक परिश्रम कर खरे पसीने की कमाई करते हैं। इसके अलावा महिलाएं और पुरूष दोनों गांव में सम्पन्न किसानों के यहां कृषि मजदूरी जैसे बुवाई निदाई और कटाई भी कर लेते हैं। लेकिन कोरोना संक्रमण के कारण यह सारे काम उन्हें नहीं मिले।
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परमार्थ संस्थान के सचिव संजय सिंह बताते हैं, कि संस्था के समन्वयक मातादीन इन महिलाओं के जॉब कार्ड के लिए पंचायत में पैरवी कर रहे हैं। उन्होंने कहा, कि पंचायतों में काम करवाना बहुत आसान नहीं रह गया है। समन्वयक फॉलोअप कर रहे है। इसके अलावा भी अन्य शासकीय कार्यों में इनकी पूरी मदद की जाती है। जरूरत पड़ने पर फल और सब्जियों को बाजार ले जाकर बेचने में भी मदद करते हैं, ताकि इनकी आजीविका सुचारू रूप से चल सके।
गौरतलब है, कि मध्यप्रदेश के पर्वतीय वनखण्डों में भीलों का विस्तार अधिक है। यह जनजाति मूलतः झाबुआ थांदला पेटलाबाद अलिराजपुर रतलाम के आस-पास निवास करते हैं, लेकिन समुदाय के बहुत सारे लोग आजीविका की तलाष में भटकते हुए श्योपुर जैसे जिले में भी आ गये हैं।
5वीं अनुसूचि में शामिल होने के बावजुद बाहरी लोगों का इनकी जमीनों पर कब्जा के सवाल पर कुंवर ने बताया, कि हमारी गरीबी पर सेठ लोग हमें कुछ पैसा उधार देकर कागज पर हमसे अंगूठा लगवा लेते हैं। अब हम पढ़े-लिखे तो है नहीं, जागरूकता का अभाव है, इसलिए कागज पर क्या लिखा है, हम पढ़ नहीं पाते और वे हमारी जमीनों को हथिया रहे हैं। लेकिन अब नई पीढ़ी पढ़ी-लिखी और समझदार है, अब ऐसा करना उनके लिए मुश्किल है। जहां नये पट्टे का सवाल है, तो पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के बाद यहां किसी को नया पट्टा नहीं मिला है।
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