डा. रवीन्द्र अरजरिया
देश के लोकतंत्र की व्यवस्था का स्याह पक्ष प्रारम्भ हो चुका है। विधायिका की नींव में राजनैतिक दलों ने मट्ठा पिलाना शुरू कर दिया है।
सत्ता, सिंहासन और सल्तनत के लोलिपों व्दारा न केवल परम्परागत मर्यादायें ही तार-तार की जा रहीं हैं बल्कि स्वार्थपरिता की चरमसीमा पर बैठकर संविधान की आड में षडयंत्रकारी योजनाओं को भी अमली जामा पहनाया जा रहा है।
कार्यपालिका के अनेक नौकरशाह निरंतर बेलगाम होते जा रहे हैं। नियम, कानून और अनुशासन की धज्जियां उडाने की होड सी लगी है।
सरकार के सामने समस्यायें पैदा करने में महारत पाये वेतनभोगियों व्दारा अपनी मनमानियों, लापरवाहियों और अवैध उगाही पर पर्दा डालने के लिये दलगत कीचड उछालने के नये-नये तरीके सुझाये जा रहे हैं।
ऐसे में कार्यपालिका और विधायिका के संयुक्त विशेषज्ञ व्दारा तो न्यायपालिका तक को धाराओं, अनुच्छेदों और व्यवस्थाओं में उलझाकर रख दिया है।
उनकी पार्टी के सिपाहसालार अपने दायित्वों की पूर्ति के प्रयासों के स्थान पर समस्याओं का ढीकरा दूसरों के सिर पर फोडने में जुटे हैं। दिल्ली में विकराल होते जल संकट को निपटाने के लिए चिट्ठी-चिट्ठी खेल खेला जा रहा है।
समस्या समाधान में देरी के लिए कभी उपराज्यपाल के सिर दोष मढा जाता है तो कभी हरियाणा सरकार को कोसा जाने लगता है। कभी केन्द्र को पहल न करने के लिये कटघरे में खडा किया जाता है तो कभी व्यवस्था के लिए विपक्ष पर अंगुली उठायी जाती है।
इतना सब करने वाली आम आदमी पार्टी की दिल्ली सरकार ने पंजाब राज्य की अपनी ही पार्टी की सरकार के साथ मिलकर व्यवहारिक समाधान निकालने में रुचि नहीं दिखाई।
सियासी दावपेंचों के मध्य आम आदमी की जिन्दगी दांव पर लगाने वाले नेता धरने पर बैठकर अपने कर्तव्यों की इति मान लेते हैं जबकि हरियाणा सरकार व्दारा आंकडों के साथ दिल्ली की जलापूर्ति का वास्तविक स्वरूप प्रस्तुत किया जा चुका है।
वहीं दूसरी ओर संवैधानिक व्यवस्था के लचीलेपन का फायदा उठाकर इस आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविन्द केजरीवाल जेल के अन्दर से दिल्ली की सरकार चला रहे हैं।
देश के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है जब आरोपी के रूप में सलाखों के पीछे पहुंचा व्यक्ति मुख्यमंत्री पद पर आसीन ही नहीं है बल्कि निरंतर दिशा निर्देश भी जारी कर रहा है।
राजनैतिक दलों के आपसी रसायन से घातक अम्लराज बनने की स्थिति निर्मित हो चली है जिसका उपयोग आम आवाम पर होना लगभग तय है।
दिल्ली में गठबंधन के मंच पर समान विचारधारा का बन्दिस प्रस्तुत करने वाले पंजाब में अलग-अलग ढपली पर अलग-अलग राग अलापते रहे। कहीं प्रशंसा तो कहीं निंदा करने वालों की चालों से अल्पसंख्यक ही सबसे ज्यादा ठगे गये हैं।
उनकी समझ में नहीं आ रहा है कि साम्प्रदायिकता का भय दिखाकर वोट लेने वाले अब कौन सी नई चाल चलने वाले हैं।
वहीं दिल्ली के जल संकट को लम्बा खींचने हेतु राजनैतिक बयानबाजी करने, विपक्ष की सरकारों को कोसने और केन्द्र को घेरने का क्रमबध्द सिलसिला शुरू हो गया है ताकि नागरिकों को विपक्षी दलों के विरोध में उत्तेजित किया जा सके।
बैंगलोर, पूना, मुम्बई जैसे अनेक महानगरों में लम्बे समय से चल रही जल समस्या अब विकराल होती जा रही है मगर वहां की सरकारें अपने स्तर पर समाधान कर रहीं हैं।
पानी का परेशानी से जूझ रहे अनेक महानगरों में दसियों कोस दूर से जलापूर्ति हो रही है मगर फिर भी वहां के उत्तरदायी लोगों की स्वीकृति पर बहुमंजिला इमारतों का जंगल निरंतर बढ़ता जा रहा है।
औद्योगिक इकाइयां स्थापित हो रहीं हैं। बडे-बडे संस्थान खोले जा रहे हैं। आबादी का घनत्व विस्फोटक स्थिति तक पहुंचता जा रहा है। सैकडों फुट गहरे बोर अब हजार का आंकडा पार करने लगे हैं।
नदियां को बालू माफियों ने रेतस्थान बना दिया है। भयावह होती स्थिति की ओर से आंखें बंद करने वाले अनेक उत्तरदायी वेतनभगियों की नजर महीना पूरा होने के बाद केवल बैंक खाते में आने वाली मोटी तनख्वाय, मिलने वाली अन्य सुविधाओं और फर्जी बिलों के भुगतान पर ही टिकी रहती है। कार्यपालिका के ऐसे महारथियों से प्रशिक्षण प्राप्त करके विधायिका के अनेक चेहरे स्वयं के लाभ हेतु हमेशा विपक्ष पर दोष मढऩे का सत्तासिध्द उपाय ही सुझाते हैं।
दायित्वबोध और कर्तव्यबोध के साथ-साथ अब तो राष्ट्रबोध तक अस्तित्वहीन होने की कगार पर पहुंच गया है। स्वार्थवाद के दलदल में आकण्ठ डूबे लोगों के लिए व्यक्तिवाद, परिवारवाद और स्वजनवाद ही सर्वोच्च होता जा रहा है।
ईमानदार करदाताओं, अनुशासित नागरिकों और लोकतंत्र की आखिरी पायदान पर खडे लोगों के समर्पण को शारीरिक विलासता पर लुटाने वालों की नैतिकता पूरी तरह से मर चुकी है। टूटती सांसों पर राजनीति करने वालों को सिखाना होगा सबक अन्यथा वे निरीह की लाश पर भी चंदा वसूलने से नहीं चूकेंगे।
सत्ता के नशे की आदत में मदहोश हो चुके लोगों को किसी भी कीमत पर सिंहासन की दरकार होने लगी है।
आदर्श, सिध्दान्त और मान्यता के मायने खोने लगे हैं। सरकार बनाने के लिए विरोधी विचारधाराओं के पोषक अब आपस में आलिंगनबध्द हो रहे हैं। पार्टियों के आधारभूत दर्शन से लेकर व्यवहारिक स्वरूप तक में परिवर्तन दिखने लगे हैं।
सार्वजनिक मंचों से अतीत का संदर्भ लेकर कडी आलोचना करने वाले अब स्वार्थपूर्ति हेतु एक-दूसरे की शान में कसीदे पढने लगते हैं ऐसे में पार्टी के पक्ष में मतदान कर चुके लोगों के पास स्वयं को कोसने के अलावा कोई चारा नहीं बचता।
जनप्रतिनिधि बनने की पात्रता के स्थानीय मापदण्ड अब प्रतिभा, सेवा और समर्पण के हटकर ठेकेदारों की दम पर जागीर, वंश और अधिकार के रूप में परिवर्तित हो चुके हैं। ऐसे में अवसर मिलते ही प्रतीकात्मक विरोध करना नितांत आवश्यक है अन्यथा लोकतंत्र के लबादे में लिपटा चन्द परिवारों का राजदम्भ, अनियंत्रित होकर तानाशाही की परिभाषा बनकर हावी हो जायेगा। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।