Saturday - 6 January 2024 - 6:09 AM

…ऐसे ही नजीर नहीं बनी हैं रानी

जुबिली न्यूज डेस्क

कहते हैं कि जब आप कोई काम शिद्दत के साथ करते हैं तो पूरी कायनात आपकी मदद करती है। ऐसा ही कुछ बुंदेलखंड की रानी के साथ हुआ।

रानी पढ़ी-लिखी नहीं है लेकिन उन्होंने अपने जुनून और जज्बे के दम पर एक ऐसी लकीर खींची है जो सबके लिए नजीर बन गई है।

रानी आज उन तमाम महिलाओं के लिए प्रेरणा है जो कुछ कर पाने की सोच भी नहीं पाती। बुंदेलखंड जैसे बीहड़ इलाके में रहने वाली रानी जल संरक्षण के मुहिम में लगी हुई हैं। वह लगातार जल संरक्षण को लेकर बड़े-बड़े कैम्पेन कर रही हैं।

इस मुहिम में अब रानी अकेली नहीं हैं, बल्कि उनके साथ कई महिलाओं के साथ-साथ समाज भी लगा हुआ है। अब रानी रानी के नाम से नहीं बल्कि जल सहेली के नाम से जानी जाती है। लोग रानी का उदाहरण देने लगे हैं।

रानी भारत की उस बीहड़ इलाके से आती है जहां औरतें घर से बाहर निकलने में संकोच करती है, डरती हैं। लेकिन बुंदेलखंड की रहने वाली रानी ने इन सब बातों को नकारते हुए कोई क्या कहेगा इस किवंदती पर वार करते हुए समाज सेवा का बीड़ा उठाया।

रानी की माने तो वह बचपन से ही देखती थी कि उसके परिवार के लोगों को दूरदराज पैदल चलकर पेयजल लाने को मजबूर होना पड़ता था। सम्पूर्ण बुंदेलखंड में कई ऐसे इलाके हैं जहां के रहवासी एक एक बूंद पानी के लिए संघर्ष कर रहे। समाज के लोगों को पेयजल के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ता है लेकिन उस पानी को बचाने के लिए कोई आगे नहीं आता।

रानी सोचती थी हमारे आसपास पीने का स्वच्छ पानी है जब रानी की शादी हुई है तो उसे इस गंभीर समस्या से और ज्यादा दो चार होना पड़ा लेकिन उसके जहन में सवाल आता है कि वह क्या करें कैसे करें किस तरह समस्याओं से निजात मिल सके। इसी दौरान परमार्थ सेवा संस्थान की वह संपर्क में आईं ।

यह एनजीओ लगातार जल के संरक्षण के लिए काम कर रहा है। इस संस्थान से मुलाकात के बाद रानी की जिंदगी की तस्वीर बदल जाती है, और अब वह यहां से समाज की तस्वीर बदलने के लिए लग जाती है।

ललितपुर जिले के तालबेहट ब्लॉक के ककड़ाड़ी गांव की 35 वर्षीय रानी उपाध्याय की कहानी बहुत दुखद भरी है। अपनी शादी के कुछ ही दिनों बाद पति से परेशान होकर वह अपना ससुराल छोड़कर मायके चली आई, तब भी उसने पीछे मुड़कर नहीं देखा।

रानी अपने पिता राम प्रकाश उपाध्याय के पास ही रहती है। परमार्थ समाज सेवी संस्थान से जुडऩे से पहले वह काफी परेशान रहती थी।

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पति के साथ अनबन के कारण उसका मानसिक संतुलन काफी बिगड़ चुका था। उसे समझ में ही नहीं आ रहा था कि जिंदगी को जिस तरह से जीए। वह जिंदगी किसके भरोसे जीए, लेकिन परमार्थ समाज सेवी संस्थान से जुडऩे के बाद उसकी जिंदगी में भी काफी बदलाव आया। अब उसकी जिंदगी का एक मकसद है। वह उस मकसद को समझ चुकी है। रानी उपाध्याय कहती है कि अब मेरा लक्ष्य समाज को जल साक्षर बनाना है, पहले मैं यह खुद नहीं समझ पाई थी, लेकिन अब इसे समझ चुकी हूं।

रानी उपाध्याय कहती हैं, सन 2011 में गांव में परमार्थ समाज सेवी संस्थान के प्रतिनिधि अपनी संगीत टोली के साथ आए। उन्होंने नुक्कड़ नाटक व दूसरे सांस्कृतिक माध्यमों से हमें समझाया कि पानी की बचत करनी चाहिए। नाटक खत्म होने के बाद उन्होंने हमारे नाम पते आदि लिए।

पहले तो मुझे बहुत संकोच हुआ। लगा कि पता नहीं क्यों? यह मेरा नाम पता आदि नोट कर रहे हैं ? क्या करेंगे? मैंने पूछा भी, लेकिन उन लोगों ने कहा कि बस रिकार्ड रख रहे हैं। अगर जरूरत होगी तो बाद में आपसे संपर्क करेंगे। खैर, कुछ दिनों तक कोई नहीं आया?

लेकिन कुछ सप्ताह बाद परमार्थ के प्रतिनिधि आए और कहा कि गांव में ही महिलाओं की मीटिंग कर रहे हैं। वहां आना है। पहले तो मेरी हिम्मत नहीं हुई, लेकिन मेरी पड़ोसन पार्वती ने मुझमें साहस भरा और मैं भी उसके साथ पहली मीटिंग में गई। मीटिंग में मेरी जैसी ही आम महिलाएं थीं, जिससे मुझे ताकत मिला और मैं अक्सर मीटिंग में जाने लगी। धीरे धीरे मेरा भटक खुल गया और मैं गांव के बाहर ब्लॉक स्तर पर होनी वाली मीटिंग या सभाओं में भी जाने लगी।

सन 2013 में गांव में एक तालाब फट गया। हालत यह हो गई कि तालाब की मिट्टी बह गई, जिस कारण से पूरा पानी खेतों में बह गया। इससे गांव में अफरा तफरी मच गई। उस समय तो सबको समझा बुझा कर शांत कर दिया गया, लेकिन बाद के हालात की सोच को सबको चिंता होने लगी।

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गांव में मात्र एक तालाब था, अगर किसी कारण से उस तालाब का पानी बह गया और उस तालाब में भी पानी जमा नहीं हुआ तो गर्मियों में हालात बहुत बुरे हो जाते। स्थिति यह होती कि पानी के लिए मारा मारी मच जाती। ऐसे में तालाब को ठीक कराना बहुत जरूरी थी।

गांव में किसी की हिम्मत नहीं हो रही थी कि वह सरकारी अधिकारियों के पास जाए। ऐसे में मैंने हिम्मत दिखाई और ब्लॉक स्तर के अधिकारियों से मिलीं, लेकिन उन्होंने हमारी मांग पर ध्यान नहीं दिया। मैं हार नहीं मानी और जिले स्तर पर जाकर अधिकारियों से मुलाकात किया। वहां पर अधिकारियों ने मेरी मांग को सुना और तालाब को ठीक कराने का आश्वासन दिया।

गांव आने के बाद कुछ खास नहीं हुआ तो गांव की जल सहेलियों ने तालाब ठीक करने का जिम्मा उठाया। हमने कुछ ही दिनों में तालाब ठीक कर दिया। बस हमें कुछ स्वैच्छिक श्रमदान और थोड़े पैसों की व्यवस्था करनी पड़ी, जो आसानी से हो गई। गांव वालों ने जल सहेलियों के साहस को काफी सराहा।

इसके बाद से ही मैंने जल संरक्षण को लेकर ढेरों काम किए। हैंडपंप ठीक किया। कुएं खुदवाएं या गहरा कराया। और इसके अलावा लोगों को जल साक्षर बनाने के लिए काफी प्रयास किया।

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